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( ७३ ) उपरोक्त मत पर शंका व्यक्त करते हए कुछ मतवादी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं मानते, आत्मा की बाल्यादि अवस्थाएं नहीं होती न ही सुख-दुःख होते हैं इसलिए किसी जीव का बध करने से या पीड़ा देने से कोई हिंसा नहीं होती।
शास्त्रकार उक्त मत को असंगत बताते हैं क्योंकि समस्त प्राणियों की विविध चेष्टायें तथा बाल्यादि अवस्थाएं प्रत्यक्ष हैं, प्राणिमात्र मरणधर्मा है । एक शरीर नष्ट होने पर स्वकर्मानुसार मनुष्य तिर्यञ्चनरकादि योनियों में परिभ्रमित होता है एवं एक पर्याय से दूसरे पर्याय में बदलने पर जरा, मृत्यु, शारीरिक-मानसिक चिंता, संताप आदि नाना दु ख भोगता है जो प्राणियों को सर्वथा अप्रिय है । इसलिए स्वाभाविक है कि जब कोई किसी प्राणी को सतायेगा, पीड़ा पहुँचायेगा, प्राणों से रहित कर देगा तो उसे दुःखानुभव अवश्य होगा इसीलिए शास्त्रकार ने इन्हीं तीन स्थूल कारणों को प्रस्तुत कर किसी भी प्राणी को हिंसा न करने को कहा हैं। चारित्र-शुद्धि के लिए उपदेश'
प्रथम अध्ययन के अंतिम तीन सूत्रों में कर्मबंधनों को तोड़ने के लिये चारित्र-शुद्धि का उपदेश दिया गया है । वास्तव में ज्ञान-दर्शन, चारित्र अथवा त्रिरत्न समन्वित रूप में मोक्ष-मार्ग के अवरोधक कर्मबंधनों से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है । हिंसादि पांच आस्रवों से अविरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, काय रूपी योग का दुरुपयोग ये चारित्र दोष के कारण हैं और कर्मबन्धन के भी कारण हैं। चारित्र-शुद्धि से आत्मशुद्धि होती है उमास्वाति एवं उनके तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने (१) गुप्ति, (२) समिति, (३) धर्म, (४) अनुप्रेक्षा, (५) परीषहजय, (६) चारित्र व (७) तप को संवर का कारण माना है। इसी प्रकार चारित्र शुद्धि के परिप्रेक्ष्य में दस विवेक सूत्रों का निर्देश किया है जो तीन गाथाओं में इस प्रकार अन्तनिहित
१. सूत्रकृतांग १२०८६-८७-८८ । २. तत्त्वार्थसूत्र ९।३।
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