Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 73
________________ ( ७१ ) (iii) परिग्रह एवं हिंसा से मोक्ष प्राप्ति मानने वाले प्रवज्जा धारियों का संसर्ग छोड़कर निष्परिग्रही, निरारम्भी महा त्माओं की शरण में जायें। (iv) आहार सम्बन्धी ग्रासैषणा, ग्रहणषणा, परिभोगैषणा, आसक्ति रहित एवं राग-द्वेष मुक्त होकर करें। लोकवाद समीक्षा :--लोकवादियों का तात्पर्य पौराणिक मतवादियों से है। महावीर के युग में पौराणिकों का बहुत जोर था। लोग पौराणिकों को सर्वज्ञ मानते थे, उनसे आगम-निगम, लोकपरलोक के रहस्य, प्राणी के मरणोत्तर दशा की अथवा प्रत्यक्ष दृश्यमान लोक की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय की बहत चर्चाएँ करते थे ।। भगवान् महावीर के युग में पूरणकाश्यप, मक्खलिगोशाल, अजितकेशकम्बल, पकुद्धकात्यायन, गौतमबुद्ध, संजयवेटलिपुत्त एवं कई तीर्थंकर थे जो सर्वज्ञ कहे जाते थे। शास्त्रकार ने इन मतवादियों के सिद्धान्त पर निम्न दृष्टियों से विचार किया है-(i) लोकवाद कितना हेय व उपादेय है, (ii) यह लोक अनन्त, नित्य एवं शाश्वत है या अविनाशी है या अन्तवान किन्तु नित्य है। (iii) क्या पौराणिको आदि का अवतार लोकवादी है एवं (iv) त्रस, त्रस योनि में हो और स्थावर, स्थावर योनि में ही संक्रमण करते हैं । लोकवादी मान्यता का खण्डन___ लोकवादियों की यह मान्यता कि लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत एवं अविनाशी है का खण्डन करते हुए जैनदार्शनिक कहते हैं कि यदि लोकगत पदार्थों को उत्पत्ति (विनाश रहित स्थिर) कूटस्थ नित्य मानते हैं तो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है, क्योंकि इस जगत् में जड़-चेतन कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील न हो, पर्याय रूप से वह सदैव उत्पन्न व विनष्ट होते दीखता है। अतः लोकगत पदार्थ सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं हो सकते। दूसरे लोकवादियों की यह मान्यता सर्वथा अयुक्त है कि त्रस सदैव त्रस पदार्थ में उत्पन्न होता है. १. सूत्रकृतांग १।४।८०-८३ २. वही पृ० ९२ ३. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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