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निरयावलिका में अम्बशाल वन का, अन्तकृद्दशा में काम महावन का और उत्तराध्ययननियुक्ति में तिन्दुकवन का उल्लेख मिलता है।
कुछ वर्षों पूर्व तक के मानचित्रों में भी वाराणसी के निकट भद्रेश्वर वन, हरिकेशवन, आनन्दवन, अशोकवन, ध्रुववन और महावन होने के निर्देश उपलब्ध हैं।१० इसमें हरिकेशवन और काममहावन के नाम जैन परम्परा की दृष्टि से विशेष रूप से विचारणीय हैं। हो सकता है कि उत्तराध्ययन में उल्लिखित वाराणसी के हरिकेशबल नामक श्वपाक महामुनि के नाम के आधार पर ही इस वन का नामकरण हुआ हो। इस वन की स्थिति वर्तमान रेवड़ीतालाब के निकट बतलायी गयी है । यह क्षेत्र वर्तमान भेलपुर मंदिर का निकटवर्ती है। हो सकता है कि ये हरिकेशबल पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध रहे हों और यह क्षेत्र उनका निवास स्थल या साधना स्थल रहा हो। इसी प्रकार महावन सम्भवतः अन्तकृतद्दशा में उल्लिखित काममहावन हो। औपपातिकसूत्र११ से गंगा के किनारे बसने वाले अनेक प्रकार के तापसों की भी सूचना मिलती है।
किन्तु ये सब आगमिक उल्लेख वाराणसी में पार्श्वनाथ की स्मृति में स्थापित किसी जिनालय की चर्चा के सम्बन्ध में मौन हैं। यद्यपि तिन्दुक-वृक्षवासी तिन्दुकयक्ष के एक यक्षायतन का उल्लेख उत्तराध्ययन चूणि में है १२ । वटगोहली - पहाड़पुर (बंगाल) से प्राप्त ई० सन् ४७९ के एक ताम्रपत्र में काशी के पंचस्तूपान्वय का उल्लेख आया है।३ यह पचस्तूपान्वय जैन परम्परा का एक प्रसिद्ध उपसम्प्रदाय रहा है जो लगभग दसवीं शताब्दी तक अस्तित्ववान था। यह भी स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय का सम्बन्ध पांच जैन स्तूपों से ही रहा होगा। किन्तु ये पञ्चस्तूप कहाँ थे, इसका कोई साहित्यिक उल्लेख नहीं मिलता है । सम्भव है कि मथुरा के समान वाराणसीआदि क्षेत्रों में भीपार्श्व कीस्मृति में स्तूपों का निर्माण हुआ हो और उन्हीं स्तूपों की अर्चा से सम्बन्धित होने के कारण इस सम्प्रदाय का यह नामकरण हुआ होगा। किन्तु वाराणसी में भी जैन स्तूप निर्मित हुये थे? इसके अभी तक कोई भी पुरातात्त्विक संकेत नहीं मिले हैं। जिनप्रभसूरी धर्मेक्षास्तूप का वर्णन करते हैं किन्तु उसे वे बौद्ध स्तूप ही मानते हैं । १४ किन्तु ऐसा
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