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(८४ ) यहाँ से उपलब्ध है जो २९ इंच की है ? फणावली के ऊपर कमठ उत्कीर्ण है। एक स्तम्भ का शिरो भाग भी यहाँ से प्राप्त हुआ है, जो लेख युक्त है, लेख अत्यन्त संक्षिप्त है और मात्र ६' x ३" में खुदा है। प्रो० कृष्णदेव जी एवं डा० टी० पी० वर्मा ने इस के कुछ अंश को पढ़ा है, तद्नुसार "ॐ ( महा ) राज भाजदेव . . . .कारितं' ऐसा उल्लेख है, शेष अंश पढ़ा नहीं जा सका है। अक्षरों की बनावट के आधार पर लेख की काल सीमा ९वीं--१०वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है। ( चित्र सं० ८) _ हमारे अनुरोध पर प्रो० माहेश्वरी प्रसाद जी चौबे ने इसे पढ़ने का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार लेख का पाठ निम्न है१. ॐ [महाराज श्री भाजदेव मनि
३. ट्र श्री कच्छ म (वी?) ... (लं?)कारितं
प्रस्तुत शिलालेख में महाराज श्री भाजदेव का उल्लेख है, किन्तु यह 'भाजदेव पाठ शुद्ध नहीं हैं, मेरी दृष्टि में इसे भोजदेव होना चाहिए। यद्यपि हम 'भोजदेव' ऐसा शुद्ध पाठ मानें तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विवेच्य 'महाराज श्री भोजदेव' कौन थे ? यह सुनिश्चित है कि इस अभिलेख की लिपि ९वीं-१०वीं शताब्दी की है। अतः ये भोजदेव वही हो सकते हैं जिनका शासन ९वीं..-१०वीं शताब्दी में वाराणसी पर रहा हो। इस संदर्भ में मैंने सर्वप्रथम जैन स्रोतों से खोज करने का प्रयत्न किया है।
"Political History of Northern India from Jain Sourcess" में मुझे भोज नामक चार राजाओं का उल्लेख उपलब्ध हुआ। इनमें से एक भोजदेव का उल्लेख काठियावाड आमरण शिलालेख (वि० सं० १२३३) में मिलता है किन्तु इन भोजदेव का काल ईस्वीसन् की १२वीं शताब्दी का उतरार्द्ध है और इनका शासन क्षेत्र काठियावाड (पौराष्ट्र) है । अतः काल और क्षेत्र दोनों ही दृष्टि से इनका सम्बन्ध वाराणसी के इस अभिलेख भोजदेव से नहीं हो सकता है । यद्यपि इनके पुत्र ने सन्मतिस्वामी (सुमति) नामक पांचवें तीर्थंकर की उपासना हेतु एक बगीचा दान दिया था ।
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