Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 96
________________ ( ९० ) इतिहासशास्त्र की भृग्वांगिरस परिपाटी युगों से चली आ रही है जिसने प्राचीन इतिहासशास्त्रीय परम्पराओं को पूर्वमध्यकालीन परम्पराओं से युगबद्ध कर दिया है। जैन आगम-साहित्य में नेमि, पार्श्व, महावीर जैसे तीर्थङ्करों के जीवन-वृत्त के साथ ही श्रेणिक, कुणाल एवं सम्प्रति प्रभृति राजाओं की परम्परा भी सुरक्षित है । जिनसेन (८३७ ई.) ने आदिपुराण में इतिहास की परिभाषा प्रस्तुत की है । हेमचन्द्र ने अभिधानचिन्तामणि में पुरावृत्त, प्रहेलिका, जनश्रुति, वार्ता, ऐतिह्य एवं पुरातनी को इतिहास का पर्याय माना है । जैन इतिहास-लेखन की परिपाटी वहिकाओं (बहियों) के रूप में मिलती है । प्रबन्धचिन्तामणि में राजा विक्रमादित्य की धर्मवहिका का उल्लेख है । प्रबन्धकोश में स्पष्ट वर्णन है कि वहिकाएं तीन प्रकार की होती थीं : (१) रोकड़ बही, (२) विलम्भ बही अर्थात् प्रदान बही और (३) परलोक बही या धर्म बही जिनमें इतिहास सुरक्षित रहा । राजशेखरसूरि ने मेरुतुङ्ग द्वारा स्थापित इतिहास की परम्परा को आगे बढ़ाया। उसने जैन-प्रबन्धों को एक स्वतन्त्र शास्त्र का दर्जा दिया, जो इतिहास का साधन बना। उसने न केवल प्रबन्ध की परिभाषा दी अपितु इतिहास को साहित्य के घेरे से बाहर निकाला। उसने इतिहास को युद्धों और राजसभाओं की परिधि से निकालकर जनसामान्य के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया। चौबीस प्रबन्धों में केवल सात राजवर्ग के प्रबन्ध हैं और शेष आचार्यों, कवियों या सामान्य जनों के हैं। राजशेखर ने अपने ग्रन्थ में उन्हीं प्रबन्धों का संग्रह किया है जिन्हें उसने अपने आचार्यों से श्रत-परम्परा में प्राप्त किये थे। उसने इतिहास को परम्परा, स्रोत ग्रन्थों और यथाश्रुति पर आधारित माना। प्रथम अध्याय में जैन प्रबन्ध का अर्थ और उसको परिभाषा दी गयी है । 'प्रबन्ध' शब्द का प्रयोग बराबर बदलता रहा है, जैसे कभी महाकाव्य, कभी लेख, कभी शोध-प्रबन्ध । परन्तु जैन-ग्रन्थकारों ने 'प्रबन्ध' शब्द का तकनीकी अर्थ में प्रयोग किया है। जैन-प्रबन्ध छोटेछोटे अध्याय होते हैं और कई प्रबन्धों को मिलाकर जो ग्रन्थ तैयार किया जाता था उसे प्रबन्ध-ग्रन्थ कहते थे। गुजरात और मालवा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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