Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 114
________________ (१००) जैन न्याय शास्त्र : एक परिशीलन-विजयमुनि शास्त्री, पृष्ठ१०+१७६; मूल्य-२० रूपया; प्रथम संस्करण-मार्च-१९९०; प्रकाशक-दिवाकर प्रकाशन, अवागढ़ हाउस, आगरा-२८२००२, उत्तर प्रदेश । राष्ट्रसंत उपाध्याय अमर मुनिजी के सुशिष्य श्री विजयमुनिजी एक गम्भीर अध्येता एवं उत्कृष्ट वक्ता के रूप में विख्यात हैं । विवेच्य पुस्तक में प्रमाण, नय और निक्षेप का अत्यन्त सरल और संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली शैली में विवेचन किया गया है, जिससे सामान्य पाठकों को ऐसे दुरुह विषय भी सरस प्रतीत होते हैं। वस्तुतः पूर्व में भी इन विषयों पर लिखा जा चुका है, परन्तु वह जनसामान्य के लिये नहीं अपितु विद्वत् वर्ग के लिये ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। मुनिजी के इस श्रम से जनसामान्य भी उक्त गूढ़ विषयों का रसास्वादन कर सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। X जैन दर्शन में बन्ध-मोक्ष-लेखक : डा. योगेशचन्द्र जैन, प्रकाशक : श्री भूपकिशोर स्वाध्याय समिति, मुरार, ग्वालियर (म० प्र०); मूल्य : ४-०० रूपया। प्रस्तुत कृति एम० ए० उत्तरार्ध संस्कृत परीक्षा में लिखा गया लघु शोध निबन्ध है। इसमें जैन दर्शन के अनुसार बन्ध एवं मोक्ष की अवधारणाओं का विवेचन हुआ है। बन्ध का स्वरूप, बन्ध के कारण, मोक्ष का स्वरूप और उसके साधन इसके प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं । इसमें बन्ध और मोक्ष सम्बन्धी अन्य दर्शनों की अवधारणाओं का तुलनात्मक विवेचन और में पुद्गल के स्वरूप की चर्चा की गई है। विवेचन सप्रमाण, युक्तिसंगत और स्तरीय है। इस लघु ग्रन्थ के लिए लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। देविदत्थओ (देवेन्द्रस्तव) अनुवादक और व्याकरणात्मक-विश्लेषकडा० सुभाष कोठारी एवं श्री सुरेश सिसोदिया, पृ० ७१+१५१; मूल्य ५० रुपये; प्रथम संस्करण : नम्बर १९८८ ई०; प्रकाशक-आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत शोध संस्थान, पद्मिनी मार्ग, उदयपुर, (राजस्थान)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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