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( १०७ ) हरिवंशपुराण दिगम्बर जैन परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, इसमें सांस्कृतिक महत्त्व की अनेक बातें गुम्फित हैं । लेखक ने इनके अध्ययन के लिए ग्रन्थ से प्राप्त सांस्कृतिक सामग्री को वर्गीकृत करते हुए समसामयिक अन्य ग्रन्थोंसे उनका तुलनात्मक अध्ययन किया है । ग्रन्थ ६ अध्यायों में विभक्त है-प्रथम अध्याय में ग्रन्थकार और ग्रन्थ का परिचय तथा तत्कालीन राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की चर्चा है। द्वितीय अध्याय में सामाजिक जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय में जैन दर्शन के साथ साथ वैष्णव, शैव, शाक्त और नास्तिक प्रभृति जैनेतर धर्मों का भी विवेचन है। चतुर्थ अध्याय में राज्य, नगर, ग्राम आदि सम्बन्धी शासनव्यवस्था का विशद् विवेचन है। ग्रन्थ का पंचम अध्याय स्थापत्य एवं कला से संबद्ध है। छठे और अंतिम अध्याय में शोधग्रन्थ के अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों का विवरण है। विद्वान् लेखक ने ग्रंथ का सम्यक अध्ययन प्रस्तुत करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। यह ग्रंथ शोधाथियों के लिये निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होगा और लेखक के श्रम को सार्थक करेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
आगममक्ता-उपाध्याय केवलमुनि, पृष्ठ १६+२३८, मुल्य३५ रूपया, प्रथम संस्करण -सितम्बर-१९८९; प्रकाशक-- दिवाकर प्रकाशन, ७-ए, अवागढ़ हाउस, आगरा-२८२००२, उत्तर प्रदेश ।
उपाध्याय श्री केवलमुनिजी स्थानकवासी जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान्, आगम मर्मज्ञ, कथाशिल्पी और कुशल वक्ता हैं। आप द्वारा लिखित लगभग ५० कथायें और उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत कृति 'आगममुक्ता' आगम वचन एवं उनका रहस्योद्घाटन करने वाला एक महान ग्रन्थ है । इसके अन्तर्गत आपने विरक्ति, धर्मश्रद्धा, आत्मदर्शन, गर्हा, जिनस्तुति, वन्दना, आत्मा का स्नान, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, क्षमापना, पृच्छा, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा आदि ३२ विषयों पर आगमों का उद्धरण देते हुए उनकी विवेचना की है। यह पुस्तक समाज के सभी वर्गों के लिये समान रूप से उपयोगी है।
पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण त्रुटि रहित है। ऐसे सुन्दर प्रकाशन के लिए लेखक और प्रकाशक धन्यवादाह हैं।
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