Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 104
________________ ( ९८ ) "ऐसा प्रबन्धचिन्तामणि से ज्ञात होता है । चर्वितचर्वण करने से क्या लाभ ? कतिपय नवीन प्रबन्धों को प्रकाशित करता हूँ ।" मजुमदार ने प्रबन्धकोश से उद्धरण दिया है - 'अर्णोराज के बाद पहले लवणप्रसाद और बाद में वीरधवल राजा हुए ।' किन्तु मूल में लिखा है • 'सम्प्रति युवा पिता-पुत्रौ लवणप्रसाद - वीरधवलौ स्तः ।' अर्थात् इस समय दोनों पिता-पुत्र, लवण प्रसाद और वीरधवल थे । यदि इसे पूर्वोक्त वाक्य के तारतम्य में पढ़ा जाय तो अर्थ निकलेगा कि सम्प्रति लवणप्रसाद और वीरधवल ( गुर्जरधरा को ) सुरक्षा प्रदान करने वाले थे । मजुमदार साहब का तीसरा आरोप है कि राजशेखर त्रिभुवनपाल को पूर्णतया विस्मृत कर जाता है । किन्तु यदि मूल ग्रन्थ को पढ़ा जाय तो यह आरोप अनर्गल प्रतीत होगा। पूर्व - - उद्धृत मूल पंक्ति में चौलुक्यों में राजशेखर ने केवल त्रिभुवनपाल का नहीं प्रत्युत् बालमूलराज का भी नाम नहीं दिया है । मूलराज 'द्वितीय' (११७६-७८ ई० ) का भी राजशेखर ने उल्लेख नहीं किया है। राजशेखर उनका नाम गिनाना चाहता था जिन्होंने गुर्जरधरा को सुरक्षित रखा । त्रिभुवनपाल ने चौलुक्य राज्य खोया और स्वयं अप्रसिद्ध रहा । वह धर्म और साहित्य का पोषक भी नहीं था । चौथे आरोप के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह प्रथम मोजदीन सुरत्राण 'इल्तुतमिश' हो सकता है जिसने १२३४ ई० में भिलसा जीता, उज्जैन को लूटा और महाकाल मन्दिर की तोड़फोड़ की । सम्भवतः उसने गुजरात पर आक्रमण के लिए कोई छोटी टुकड़ी भेजी हो, जिसका वस्तुपाल ने सफलतापूर्वक मुकाबला किया। राजशेखर ने यह नहीं कहा है कि उक्त श्लोक की रचना वस्तुपाल ने की। उसका कहना है कि वीरधवल के निधन के बाद वस्तुपाल ने उक्त श्लोक को पढ़ा | प्रबन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोश में श्लोक एक ही है और निधन के बाद पढ़ा गया बताया जाता है । अन्तर इतना है कि प्रबन्धचिन्तामणि में तेजपाल के मुख से श्लोक कहलवाया गया है और प्रबन्धकोश में वस्तुपाल से । यह कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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