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प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन शोध प्रबन्ध-सार
-प्रवेश भारद्वाज यह ग्रन्थ राजशेखरसूरि द्वारा ई० सन् १३४९ में रचा गया । इसके उद्धरणों का परवर्ती जैन-प्रबन्धों में प्रयोग हुआ है । सोलहवीं शताब्दी का बल्लालकृत भोजप्रबन्ध भी इसका साक्ष्य है। प्रबन्धकोश का सर्वप्रथम उपयोग १८५६ में ए०के० फार्बस् महोदय ने 'रासमाला' में किया है। इसके बाद १९वीं शताब्दी के अन्त में लिखी गयी हेमचन्द्राचार्य की जीवनी में बुहलर महोदय ने इसका प्रभूत प्रयोग किया है। इसकी प्रसिद्धि से प्रेरित होकर इसके दो गुजराती भाषान्तर किये गये ---एक मणिलाल नभुभाई द्विवेदी द्वारा और दूसरा हीरालाल रसिकदास कापड़िया द्वारा । १९२१ में हेमचन्द्रसभा, पाटन से और १९३१ में जामनगर से इसके संस्करण निकाले गये ।
मुनि जिनविजय ने १९३५ में सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रबन्धकोश का एक प्रामाणिक संस्करण निकाला। आर०एस०त्रिपाठी, गुलाबचन्द्र चौधरी, ए० के० मजुमदार, बी० जे० सांडेसरा प्रभृति विद्वानों ने राजशेखर को इतिवृत्तकार मानकर प्रबन्धकोश का अपने ग्रन्थों में यत्र-तत्र स्फुट प्रयोग किया है। चतुर्विंशतिप्रबन्ध पर नागरीप्रचारिणी पत्रिका में शिवदत्त शर्मा का केवल एक लेख और जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६ में लगभग आधा पृष्ठ प्रकाशित है। किन्तु आज तक प्रबन्धकोश का न तो हिन्दी या अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और न ही उस पर कोई एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित किया गया।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में प्रबन्धकोश को पहली बार एक नये दृष्टिकोण से देखा और परखा गया है। इसमें प्रबन्धकोश का परम्परागत राजनैतिक, सामाजिक, भौगोलिक अथवा सांस्कृतिक अध्ययन न करके इतिहामशास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है क्योंकि प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन जैन इतिहास के विकासक्रम की एक कडी है।
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