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और महाभारत के उल्लेख किये हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि वह इन महाकाव्यों से पूर्णतः परिचित थे।
जगतसिंह के पुत्र शाह महण सिंह की प्रेरणा से १३४९ ई० में राजशेखर ने प्रबन्धकोश की रचना की। राजशेखर की रुचि संगीत की ओर भी थी। उनके शिष्य सुधाकलश संगीत-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने १३४९ ई० में 'सगीतोपनिषतसारोद्धार की रचना की। राजशेखर ने प्रबन्धकोश में विभिन्न वाद्ययन्त्रों का उल्लेख किया है जिससे उनके संगीतज्ञान की पुष्टि होती है ।
राजशेखर के अब तक सात-आठ ग्रन्थ प्रकाश में आए हैं : (१) प्रबन्ध-कोश, (२) न्यायकन्दलीपंजिका, (३) द्वयाश्रय काव्य पर लिखी गयी वृत्ति (४) षड्दर्शनसमुच्चय, (५) अन्तरकथासंग्रह, (६) कहानियों का संग्रह-जिसे कौतुककथा या विनोदकथा भी कहते हैं । (७) स्याद्-वादकलिका, (८) उपदेशचिन्तामणि । इसके अतिरिक्त उन्होंने शान्तिनाथचरित का संशोधन भी किया। । तृतीय अध्याय में ग्रन्थ-परिचय है। इसमें ग्रंथ-रचना की राजनीतिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि का वर्णन किया गया है। रचनाकाल, स्थान, ग्रंथ शीर्षक, विविध संस्करणों, अनुवादों, रचना उद्देश्यों तथा ग्रन्थ की भाषा शैली पर विचार किया गया है । आश्चर्य है कि राजशेखर ने संस्कृत और प्राकृत के साथ-साथ अरबी शब्दों का भी निःसंकोच प्रयोग किया है । ___ ग्रन्थ-परिचय के बाद दो अध्यायों में ग्रंथगत ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन एवं मूल्यांकन किया गया है। इन २४ प्रबन्धों में दो प्रबन्धों-राजा वङ्गचल तथा रत्नश्रावक के प्रबन्ध की ऐतिहासिक पहचान नहीं की जा सकी है। मुनि जिनविजय ने ग्रंथ की प्रस्तावना में कहा है कि ऐतिहासिक दृष्टि से वङ्कचूल की कथा और कश्मीर निवासी संघपति रत्नश्रावक की कथा अज्ञात है। राजशेखरसूरि के अनुसार पारेत जनपद की सीमा पर चर्मण्वती नदी के तट पर ढीपुरी नगरी थी । वहाँ के राजा विमलयश ने अपने राजकुमार पुष्पधूल को निर्वासित कर दिया। कालान्तर में वह सिंहगुहापल्ली का पल्लीपति बन गया और सुस्थिताचार्य द्वारा बतलाये गये चार नियमों से उदार
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