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पाया जाता है । जैन प्रबन्धों में कारणत्व, साक्ष्य, स्रोत, तथ्य, कालक्रम आदि पर विशेष बल दिया जाता है।
द्वितीय अध्याय की रचना इतिहास-दर्शन के इससूत्र पर आधारित है कि इतिहास के अध्ययन से पहले इतिहासकार का अध्ययन अनिवार्य होता है। रोजर फाउलर ने लिखा है कि 'ग्रन्थकार की जीवनी का ज्ञान उसकी कृतियों को समझने में सहायक सिद्ध होता है।' प्रबन्धकोशकार राजशेखर की जीवनी व कृतित्व पर आज तक एक पैराग्राफ भी नहीं लिखा हुआ है। उसके जीवन पर लिखने का यहाँ पर सर्वप्रथम प्रयास किया गया है। प्रबन्धकोश की ग्रन्थकारप्रशस्ति और खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि से विदित होता है कि राजशेखार का जन्म प्रश्नवाहनकुल की कोटिकगण की माध्यमिक शाखा में हुआ था। स्वख्याति वह नहीं चाहता था और उसने अपने विषय में ग्रन्थकार-प्रशस्ति के अतिरिक्त कुछ भी बतलाने का प्रयास नहीं किया। अनामता भारतीय कला और संस्कृति की विशेषता है। प्रबन्धकोश के आन्तरिक साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि राजशेखर श्वेताम्बर थे और उसका गच्छ हर्षपुरीय था। अभयदेवसूरि ( १२वीं शती के पूर्वार्द्ध) उनके आध्यात्मिक पूर्वज थे । अभयदेवसूरि की परम्परा में तिलकसूरि हुए। राजशेखर इन्ही तिलकसूरि के शिष्य थे।
प्रबन्धकोश के आन्तरिक साक्ष्यों एवं अन्य ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि राजशेखरसूरि का अध्ययन बड़ा व्यापक था। प्रबन्धकोशागत ग्रन्यों के नामों से प्रतीत होता है कि राजशेखर ने जैन आगमसूत्रों का मन्थन, अपने पूर्ववर्ती जैन-चरितों एवं जैन प्रबन्धों का अध्ययन और ब्राह्मण महाकाव्यों एवं पुराणों का भी अनुशीलन किया था। हेमव्याकरण, बृहद्वृत्ति, न्याय, तर्क आदि शास्त्रों की तीन बार आवृत्ति की। राजशेखर ने स्वरचित न्यायकन्दली-पञ्जिका में जिनप्रभसूरि को अपने अध्यापक रूप में स्मरण किया है। स्वयं राजशेखर ने न्यायकन्दली का अध्ययन किया था।
राजशेखर ने ग्यारह विद्याओं के नाम गिनाए हैं और उनके प्रयोग के भी उल्लेख किये हैं, जैसे गगनगामिनीविद्या, परकायाविद्या, सर्षपविद्या, हेम-सिद्धि-विद्या आदि । राजशेखरने स्थान-स्थान पर रामायण
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