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रचित जो जैन-प्रबन्ध ग्रन्थ हैं ? वे जैनग्रन्थकारों द्वारा तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दियों के बीच रचे गये हैं । ये ऐतिहासिक वृत्तान्त प्रायः सरल संस्कृत या प्राकृत गद्य और कभी-कभी पद्य में लिखे गये। हेमचन्द्र प्रथम विद्वान् थे जिन्होंने प्रबन्धकाव्य से भिन्न साहित्य के एक स्वतन्त्र रूप 'प्रबन्ध' के अस्तित्व को मान्यता दी। जैन-प्रबन्ध को सर्व-.. प्रथम स्पष्टत: परिभाषित करने का श्रेय राजशेखरसूरि को है। वह कहते हैं कि आर्यरक्षित के पूर्व के चरित और उसके बाद के लोगों पर लिखे गये प्रबन्ध कहलाते हैं। उसने चौबीस प्रबन्धों में आचार्यों, कवियों, राजाओं एवं सामान्यजनों के उल्लेख किये हैं। यद्यपि आर्यरक्षित के पश्चात् भी 'चरित' लिखे गये हैं।
जैन-चरित और जैन प्रबन्ध में अन्तर है। जैन-चरित अधिक पुराना है । जैसे-पउमचरिउ, त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित, कुमारपालचरित आदि । राजशेखर के अनुसार तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों आदि और आर्यरक्षित (निधन ३० ई०) तक के ऋषियोंके जीवन वृत्तान्त 'चरित' कहलाते हैं और आर्यरक्षित के बादके जीवन-वृत्तान्त प्रबन्ध' । जैन चरित, जैन-प्रबन्ध की अपेक्षा अधिक बृहद् होते हैं । एक ही पुरुष का 'चरित' एक ही ग्रन्थ में आबद्ध किया जा सकता है जबकि प्रबन्धों के एक ग्रन्थ में कई पुरुषों या घटनाओं के कई छोटे-छोटे प्रबन्ध गूथे जाते हैं । जैनचरित अर्द्ध-ऐतिहासिक और पौराणिक होते हैं जबकि जैन-प्रबन्ध अधिकांशतः ऐतिहासिक होते हैं । ए० एन० उपाध्ये के अनुसार विषयवस्तु और रूप की दृष्टि से इन दोनों में अन्तर है। जैन प्रबन्ध प्रायः गद्य में हैं जबकि जैन-चरित मुश्किल से गद्य में लिखे गये हैं।
जैन-प्रबन्ध सामान्यतया गुजरात और मालवा के श्वेताम्बरों द्वारा लिखे गये हैं जबकि जैन-चरित श्वेताम्बरों और दिगम्बरों दोनों द्वारा। जैन-प्रबन्धों में उपकथाएँ या अन्तर्कथाएँ कम हैं परन्तु जैन-चरितों में इनकी बहुलता के साथ-साथ विषयान्तर भी हो जाता है। भाषा की दृष्टि से जैन-प्रबन्ध सरल संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अधिक लिखे गये हैं किन्तु परवर्ती जैन चरित मुख्यतया संस्कृत में ही लिखे गये, जिनकी भाषा अधिक रूढ़िवादी और क्लिष्ट है । जैन-प्रबन्धों की पहुंच और जैन-प्रणाली ऐतिहासिक है जबकि जैन-चरितों में इनका अभाव
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