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( ८२ ) को छोड़कर कोई भी १५वीं शती से पूर्व की नहीं है । उनमें भी एक भव्य प्रतिमा चन्द्रावती से लायी गयी है। उस पर विभिन्न कालों के तीन लेख हैं तथा एक लेख में 'चन्द्रावत्यां' ऐसा उल्लेख है। साहित्यिक साक्ष्यों से ऐसी सूचना मिलती है कि यह प्रतिमा चन्द्रावती के प्राचीन चन्द्रमाधव के मंदिर में स्थित थी । यद्यपि दिगम्बर समाज द्वारा पूर्व मंदिर के स्थान पर नये मंदिर का निर्माण हो रहा है किन्तु श्वेताम्बर जिनालय आज भी उसी स्थिति में है। जन्मस्थान के इन मंदिर के स्वामित्व को लेकर लगभग दो शताब्दियों से दोनों सम्प्रदायों में विवाद चल रहा था, जिसके कारण इन मंदिरों का नवनिर्माण संभव नहीं हो पा रहा था। संयोग से लगभग ३ वर्ष पूर्व दोनों सम्प्रदायों ने उदारता का परिचय देकर विवाद के कुछ मुद्दों पर लेखक के निर्णय को मान्य करके इस विवाद का निराकरण किया और भूमि, मंदिर और प्रतिमाओं आदि का विभाजन कर लिया। इसके पश्चात् दिगम्बर समाज ने अपने क्षेत्र में विशाल धर्मशाला के साथ नवीन मंदिर बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। संयोग से नवीन जिनालय के लिए नींव की खुदाई में कुछ ऐसी प्राचीन जिन मूर्तियाँ और पुरातात्त्विक महत्त्व की सामग्री प्राप्त हुई है जो इस मंदिर-स्थल की प्राचीनता को सुनिश्चित करने में अत्यन्त सहायक है । प्राप्त सूचनाओं के अनुसार नींव की खुदाई के समय पूर्व-दक्षिण दिशा में जो सामग्री उपलब्ध हो सकी है, उसका सचित्र विवरण यहां प्रस्तुत है।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि मंदिर निर्माण की शीघ्रता में उस स्थल की वैज्ञानिक दृष्टि से समुचित खुदाई नहीं हो पायी और बहुत कुछ सामग्री भूगर्भ में ही रह गयी। प्राचीन मूलनायक प्रतिमा .. निर्माणाधीन दिगम्बर मंदिर की दक्षिण दिशा की नींव से पार्श्वनाथ की एक खण्डित प्रतिमा मिली है---यह प्रतिमा पद्मासन में स्थित है। प्रतिमा की पादपीठ में सर्प की कुण्डली है और वही सर्प पार्श्वभाग में उस कुण्डली से वलयाकार में ऊपर उठता हुआ प्रतिमा के मस्तक पर सप्तफणों का छत्र बनाये है । अपने मूल आकार में यह
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