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विभिन्न कालों में उसके जीर्णोद्धार की सूचना मिलती है । अनुमानतः प्रथम मंदिर लगभग चौथी शताब्दी के पूर्व निर्मित हुआ होगा । आगे उसकी सामग्री का उपयोग करते हुए लगभग छठीं शताब्दी में कोई मंदिर बना होगा जिसमें उपलब्ध मूलनायक की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई होगी । पुनः ९वीं - १०वीं शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्वार हुआ होगा । जिनप्रभसूरि के काल तक यही मंदिर रहा होगा । पुनः मुगल काल के पश्चात् लगभग १७वी शती में पुराने मंदिर के स्थल पर नवीन मंदिर का निर्माण हुआ होगा ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ के जन्मस्थल पर आज से १६०० वर्ष पूर्व भी एक जिनालय था, जो ईंट और पत्थर से निर्मित था और अपने आप में भव्य रहा होगा ।
प्रस्तुत लेख हेतु उपलब्ध विविध सूचनाओं और सहयोग के लिए मैं दिगम्बर जैन समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ता बाबू ऋषभदास जी, श्री मुन्नी बाबू, श्री सतीश कुमार जैन, ब्रह्मचारी पं० श्री धन्यकुमार जी, मंदिर के पुजारी तथा पुरातात्विक सामग्री के काल-निर्णय सम्बन्धी चर्चा के लिए प्रो० मधुसूदन ढाको प्रो० अवधकिशोर नारायण, प्रो० कृष्णदेव, प्रो० माहेश्वरी प्रसाद चौबे तथा संस्थान के पूर्व शोधछात्र डा० मारुतिनन्दन तिवारी और अपने शोध सहयोगी डा० शिव प्रसाद का आभारी हूँ ।
१. आवश्यकनियुक्ति, ३८२-८४
२. कल्पसूत्र - १४८
३. (अ) तेणं कालेणं तेणं समएण वाणारसी नाम नगरी होत्था, वन्नओ । तीसे णं वाणारसीएं नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छि में दिसिभागे
गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था ।
(ब) उत्तराध्ययनचूर्णि अध्याय १२, पृ० ३५५. ४. कल्पसूत्र, १५३
५.
उपासक दशांग, ३।१२४,
६. आवश्यक नियुक्ति, १३०२
७. निरयावल, ३।३
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-ज्ञाताधर्मकथा ४.२
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