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दूसरे भोज धारा नरेश परमार वंशीय मुजदेव के भतीजे भोज हैं। यद्यपि इन भोज का अनेक जैन आचार्यों से सम्बन्ध रहा है और जैन प्रबन्धों में इनका विस्तृत उल्लेख भी है। इनका काल ईस्वी सन् की ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। इसी परमारवंश में एक अन्य भोज भी हुए हैं किन्तु इनका काल तेरहवीं शताब्दी का उतरार्द्ध है, परमारवंशीय इन दोनों-भोज ( प्रथम ) और भोज (द्वितीय ) का वाराणसी से कोई सम्बन्ध था, यह ज्ञात नहीं है। पुनः इस लेख की लिपि की आधार पर अनुमानित काल से इन दोनों का काल भी परवर्ती ही है। ___इनके अतिरिक्त कन्नौज के प्रतिहार वंशीय राजाओं में एक भोजदेव का उल्लेख मिलता है। ये प्रतिहारों की अवन्ति शाखा के वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट (द्वितीय) के पौत्र एवं उत्तराधिकारी थे।" नागभट्ट (द्वितीय) ने ही अपनी राजधानी अवन्ती से कन्नौज स्थानान्त. रित की थी। इस भोजदेव का एक अभिलेख देवगढ़ (झाँसी) के जैन मन्दिर से भी प्राप्त है। वह भी इस अभिलेख की तरह एक स्तम्भ लेख है । इसके अतिरिक्त इनका ही एक प्रशस्ति लेख ग्वालियर से भी प्राप्त है । प्रभावकचरित्र१९ एवं प्रबन्धकोश२० के बप्पभट्टिसूरिप्रबन्ध में इन भोजदेव का विवरण उपलब्ध होता है। बप्पभट्टिसूरि द्वारा कन्नौज (कान्यकुब्ज) जाकर इन्हें जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने के भी उल्लेख हैं । इन स्रोतों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि भेलपुर पार्श्वनाथ जन्मस्थल स्थित मंदिर से प्राप्त इस अभिलेख में उल्लेखित भोजदेव प्रतिहारवंशीय कान्यकुब्ज के राजा भोजदेव ही हैं। दोनों प्रबन्धों और देवगढ़ के अभिलेख (ईस्वीसन् ८६२) से इनका राज्य काल ईसा की ९वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध है । यही इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काल होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वाराणसी में भेलपुर स्थित जिनालय के नींव की खुदाई में जो पुरातात्वीक सामग्री प्राप्त हुई है वह चौथी शताब्दी से लेकर १०वीं शताब्दी के मध्य की है। ये सभी प्रतिमाएँ और स्तम्भ चुनार के लाल पत्थर के हैं। इस आधार पर यहाँ चतुर्थ शताब्दी में भी पार्श्वनाथ मंदिर होने और
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