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( ७८ ) ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार वाराणसी नगरी के समीप गंगा नदी उत्तर-पूर्व दिशा में बहती है । आज भी गंगा नदी वाराणसी नगरी के समीर उत्तर-पूर्व दिशा में बहती है । ज्ञाताधर्मकथा में एक मृत-गंगाद्रह की चर्चा है।
- ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त उत्तराध्ययनचूर्णी में भी मृतगंगा (मयंग) का उल्लेख है । इससे ज्ञात होता है कि इस नगर के समीप गंगा की कोई एक अन्य धारा भी थी। किन्तु आगे चलकर यह धारा क्षीण होती गई और मुख्य धारा से विछिन्ने होकर उसने अनेक द्रहों का रूप ले लिया । जिनमें वर्षा और बाढ़ का पानी जमा हो जाता होगा। गंगा की इस मृतधारा की एवं उससे निर्मित द्रह की सूचना जैन साहित्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
वाराणसी नगरी के भौगोलिक मानचित्र एवं टोपोग्राफी से प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में गंगा की एक धारा वर्तमान अस्सी नाले की ओर से होती हुई दुर्गाकुण्ड, भेलूपुर, रेवड़ीतालाब आदि क्षेत्रों को स्पर्श करते हुए नई सड़क, बेनिया के रास्ते से होकर संस्कृत विश्वविद्यालय के निकट वरुणा में मिल जाती थी। आज भी बाढ़ अथवा वर्षा में इन क्षेत्रों में विशाल जलराशि एकत्र हो एक बृहद् द्रह का रूप ले लेती है। इन क्षेत्रों में आज भी कई पक्के सरोवर हैं, संभवतः इनका निर्माण यहाँ के आवासीय प्रक्षेत्रों को उक्त जल-जमाव की समस्या से मुक्त रखने के उद्देश्य से ही किया गया होगा।
प्राकृत शब्द 'मयंग' का संस्कृत रूप 'मातंग' भी हो सकता है, ऐसी स्थिति में मयंगतीरदहे का अर्थ होगा-गंगा के किनारे मातंगों की बस्ती के निकट स्थित तालाब । संभव है कि वर्तमान हरिश्चन्द्र घाट के समीप मातंगों (चांडालों) की बस्ती रही हो और उस बस्ती के निकट वर्तमान रवीन्द्रपुरी तालाब के रूप में रही हो । उत्तराध्ययनचूर्णी में उस द्रह के समीप मातंगों की बस्ती होने की स्पष्ट रूप से चर्चा है।
जैन आगमों में वाराणसी की बाह्य उपत्यकाओं में अनेक उद्यानों एवं वन खण्डों के भी उल्लेख हैं। कल्पसूत्र में यहाँके आश्रमपदउद्यान' का, उपासकदशाङ्ग और आवश्यक नियुक्ति में कोष्ठकवन का,
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