Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 71
________________ ( ६९ ) दूसरा कोई देव, ब्रह्मा, विष्णु आदि किसी को सुख-दुःख से युक्त नहीं कर सकता।' - अवतारवाद-नियतिवाद की भाँति अवतारवाद मत भी आजीवकों का है । समवायांगवृत्ति और सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में त्रैराशिकों को आजीवक या गोशालक मतानुसारी बताया गया है, ये आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानते हैं(i) रागद्वेष रहित कर्मबन्धन से युक्त पाप सहित अशुद्ध आत्मा की अवस्था । (ii) अशुद्ध अवस्था से मुक्ति हेतु शुद्ध आचरण द्वारा शुद्ध निष्पाप अवस्था प्राप्त करना तदनुसार मुक्ति में पहुँच जाना। (iii) शुद्ध निष्पाप आत्मा क्रीड़ा, राग-द्वेष के कारण उसी प्रकार पुनः कर्मरज से लिप्त हो जाता है जैसे-मटमैले जल को फिटकरी आदि से स्वच्छ कर लिया जाता है, परन्तु आँधीतूफान से उड़ाई गयी रेत व मिट्टी के कारण वह पुनः मलिन हो जाता है। इस तरह आत्मा मुक्ति प्राप्त कर भी क्रीड़ा और प्रदोष के कारण संसार में अवतरित होता है। वह अपने धर्मशासन की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए रजोगुण युक्त होकर अवतार लेता है। यही तथ्य गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है-हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं ही अपने रूप को रचता हूँ, साधु पुरुषों की रक्षा तथा पापकर्म करने वालों १. (i) न कर्तृत्त्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। गीता ५।१४ (ii) गीता शां० भा० ५।१४ २. सूत्रकृतांगसूत्र--१।३।७०-७१ । ३. इह संवुडे मुणी जाये पच्छा होति अपावये। वियर्ड व जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा ॥ सूत्रकृतांगसूत्र-१।३।७१ ४. स मोक्ष प्राप्तोऽपि भूत्वा कीलावणप्पदोसेण रजसा अवतारते । सूयगडं चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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