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पुरुष, मरणोपरान्त पुरुष एवं स्त्री मरणोपरान्त स्त्री ही होती है । आचारांग सूत्र में कहा गया है कि स्थावर जीव त्रस के रूप में और त्रस जीव स्थावर के रूप में अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं। यदि लोकवाद को सत्य माना जाय कि जो इस जगत् में जैसा है, वह उस जन्म में वैसा ही होगा, तो दान अययन, जप-तप, समस्त अनुष्ठान व्यर्थ हो जायेंगे फिर भला क्यों कोई दान करेगा या यम-नियमादि की साधना करेगा।
___ अहिंसाधर्म-निरूपण' -अहिंसा को यदि जैन धर्म दर्शन का मेरुदण्ड कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए जैनागमों में अहिंसा की विस्तृत चर्चा की गई है। सूत्रकार ने भी कुछ सूत्रों में अहिंसा का निरूपण किया है। संसार के समस्त प्राणी अहिंस्य हैं, क्योंकि(i) इस दृश्यमान त्रस-स्थावर रूप जगत् की मन, वचन, काय
की प्रवृत्तियाँ अथवा बाल यौवन, वृद्धत्व आदि अवस्थाएं
स्थूल हैं, प्रत्यक्ष हैं। (ii) स्थावर-जंगम सभी प्राणियों की पर्याय अवस्थाएँ सदा एक
सी नहीं रहती। (iii) सभी प्राणी शारीरिक, मानसिक दुःखों से पीड़ित हैं अर्थात्
सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है।
१. आचारांग १ श्रु० ९ अ० १ गाथा ५४
(मूलअनुवाद विवेचन टिप्पण युक्त) सं०-मधुकर मुनि अनु०-श्रीचन्द सुराना 'सरस', आगम प्रकाशन समिति, व्यावर राजस्थान ।
२. सूत्रकृतांग सूत्र-१।४।८४-८५
उरालं जगओ जोयं विपरीयासं पलेति य । सम्वे अक्कंत दुक्खा य अतो सव्वे अहिंसिया ॥ एतं खु णाणिणो सारं जं न हिंसति किंचण । महिसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया ।।
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