Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 77
________________ ( ७५ ) व नियुक्तिकारों ने इन दार्शनिक मन्तव्यों का सम्प्रदाय विशेष सहित उल्लेख किया है। । जहां तक इसमें अन्तर्निहित दार्शनिक विवेचना का प्रश्न है, सूत्रकार ने जिन मतवादों का उल्लेख किया है, उन्हें अपने अनेकान्तवाद व कर्मवाद प्रवण अहिंसा की कसौटी पर कसते हुए यही बताने का प्रयास किया है कि चाहे वह वैदिक दर्शन का कूटस्थ आत्मवाद हो, बौद्धों का क्षणिकवाद, लोकायतों का भौतिकवाद हो, सांख्यों का अकर्तावाद हो या नियतिवादियों का नियतिवाद हो-कोई भी दर्शन हमारे सतत अनुभव व्यक्तित्व की एकता एवं हमारे चेतनामय जीवन की जो सतत परिवर्तनशील है, सम्पूर्ण दृष्टि से समुचित व्याख्या नहीं कर पाता । यह जैनदर्शन की अनेकान्तवादी दृष्टि ही है जो एकान्तशाश्वतवाद एवं एकान्त-उच्छेदवाद के मध्य आनुभविक स्तर पर एक यथार्थ समन्वय प्रस्तुत कर सकती है तथा नैतिक एवं धार्मिक जीवन की तर्कसंगत व्याख्या कर सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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