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परवादी निरसन' - इन्द्रियसुखोपभोग एवं स्वसिद्धान्त को सर्वोपरि मानने वाले दार्शनिक मतवादों की ग्रन्थकार भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि ये एकान्त दर्शनों, दृष्टियों, वादों को सत्य मानकर उनकी शरण लेकर एवं कर्मबंधों से निश्चिन्त होकर एवं पाप कर्मों में आसक्त हो आचरण करते हैं । इनकी गति संसार-सागर पार होने की आशा में मिथ्यात्व, अविरति आदि छिद्रों के कारण कर्मजल प्रवृष्ट हो जाने वाली मिथ्यादृष्टियुक्तिमत नौका में आरूढ़ मतमोहान्ध व्यक्ति की होती है, जो बीच में ही डूब जाते हैं २ अर्थात् मिथ्यात्व युक्तिमत सछिद्र नौका के समान है और इसका आचरण करने वाला व्यक्ति जन्मान्ध के समान है। __ आधाकर्मदोष -सूत्रकृतांग की ६० से ६३ तक. की गाथाएं निर्ग्रन्थ आहार से सम्बद्ध हैं। श्रमणाहार के प्रसंग में इसमें आधाकर्मदोष से दुषित आहार सेवन से हानि एवं आहारसेवी की दुर्दशा का निरूपण किया है । यदि साधु का आहार आधाकर्मदोष से दूषित होगा तो वह हिंसा का भागी तो होगा ही, साथ ही उसके विचार, संस्कार एवं उसका अन्तःकरण निर्बल हो जायेगा। दूषित आहार से साधु के सुखशील, कषाययुक्त एवं प्रमादी बन जाने का खतरा है। आधा कर्मी आहार-ग्राही साधु गाढ़ कर्मबन्धन के फलस्वरूप नरक, तिर्यञ्च आदि योनियों में जाकर दुःख भोगते हैं । उनकी दुर्दशा वैसी ही होती है जैसे-बाढ़ के जल के प्रभाव से प्रक्षिप्त सूखे व गीले स्थान पर पहुँची हुई वैशालिक मत्स्य को मांसार्थी डंक व कंक (क्रमशः चील व गिद्ध) पक्षी सता-सताकर दुःख पहुँचाते हैं। वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्तबार दुःख व विनाश को प्राप्त होते हैं।
१. सूत्रकृतांग १।२।५७-५९ २. सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० १९२-९६ ३. सूत्रकृतांग-१।३।६०-६३ ४. उदगस्सऽप्पभावेणं सुक्कंमि घातमिति उ । ढंकेहि व कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही ।।
वही, ११३१६२
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