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पचय को बन्ध का कारण नहीं मानते और कर्मचिन्ता से परे
. (i) परिज्ञोपचित कर्म-जानते हुये भी कोपादि या क्रोधवश शरीर से अकृत केवल मन से चिंतित हिंसादि कर्म ।
(ii) अविज्ञोपचित कर्म : --अज्ञानवश शरीर से सम्पन्न हिंसादि कर्म ।
(iii) इर्यापथ कर्म-मार्ग में जाते समय अनभिसंधि से होने वाला हिंसादि कर्म ।
(iv) स्वप्नान्तिक कर्म-स्वप्न में होने वाले हिंसादि कर्म । - बौद्धों के अनुसार ऐसे कर्मों से पुरुष स्पृष्ट होता है, बद्ध नहीं, क्योंकि ये चारों कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये बौद्ध इन कर्मग्रन्थियों से निश्चिन्त होकर क्रियाएँ करते हैं।' बौद्ध रागद्वेष रहित बुद्धिपूर्वक या विशुद्ध मन से हुये शारीरिक प्राणातिपात को भावविशुद्धि होने के कारण कर्मोपचय नहीं मानते । २ बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय बालोवाद जातक में बुद्ध कहते भी हैं किविपत्ति के समय पिता द्वारा पुत्र का वध कर स्वयं उसका भक्षण तथा मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त मांशासन पापकर्म का कारण नहीं है । __ सूत्रकार बौद्धों के तर्क को असंगत मानते हैं क्योंकि राग-द्वेषादि से युक्त चित्त विना मारने की क्रिया हो ही नहीं सकती। मैं पुत्र को मारता हूँ ऐसे चित्तपरिणाम को कथमपि भी असंक्लिष्ट नहीं माना जा सकता। ___ अतः कर्मोपचय निषेधवादी बौद्ध कर्मचिन्ता से रहित है तथा संयम एवं संवर के विचार से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते, ऐसा शास्त्रकार का बौद्धों पर आक्षेप है।
१. सूत्रकतांगचूर्णि मू० पा० टि०-पृ० ९ २. पुत्तं पिता समारंभ आहारट्ठ असंजये । भुजमाणो वि मेहावी कम्मुणा णो व लिप्पते ।।
। सूत्रकृतांगसूत्र १:२१५५ ३. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३७-४०
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