________________
जैसे-निकाचित कर्म' का, परन्तु अनेक सुख-दुख पुरुष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुये होते हैं और नियत नहीं होते । अतः केवल नियति ही समस्त वस्तुओं का कारण है, ऐसा मानना कथमपि युक्तिसंगत नहीं है। काल, स्वभाव, अदृष्ट, नियति
और परुषार्थ ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर सापेक्ष सिद्ध होते हैं, अत. एकान्त रूप में केवल नियति को मानना सर्वथा दोषयुक्त है।
अज्ञानवाद स्वरूप---शास्त्रकार एकान्तवादी, मंशयवादी तथा अज्ञानमिथ्यात्वग्रस्त अन्य दर्शनिकों को वन्यमृग की संज्ञा देते हुये एवं अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में उनके सिद्धान्तों की समीक्षा करते हुये कहते हैं कि एकान्तवादी, अज्ञानमिथ्यात्वयुक्त अनार्य श्रमण सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्र से पूर्णतः रहित हैं। वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अहिंसा, सत्य, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि सन्दर्भो से शंकावुल होकर उनसे दूर भागते हैं। सद्धर्मप्ररूपक वीतराग के सान्निध्य से कतराते हैं । सद्धर्मप्ररूपक शास्त्रों पर शंका करते हुये वे हिंसा, असत्य, मिथ्यात्व एकान्तवाद या विषय कषायादि से युक्त अधर्म प्ररूपणा को निःशंक होकर ग्रहण करते हैं तथा अधर्म प्ररूपकों की स्थापना करते हैं। यज्ञ और पशुबलिजनित घोर हिंसा की देशना वाले शास्त्रों को जिनमें कामनायुक्त कर्मकाण्डों का विधान है, हिंसा-जनक कार्यों की प्रेरणा है, निःशंक भाव से स्वीकार करते हैं। घोर पापकर्म में आबद्ध ऐसे लोग इस जन्म-मरण रूप संसार में बार-बार आवागमन करते रहते हैं। अज्ञानग्रस्त एवं सन्मार्ग-अभिज्ञ ऐसे अज्ञानवादियों के संसर्ग में आने वाले दिशामूढ़ हैं एवं दुःख को प्राप्त होंगे। संजय वेट्टलिपुत्त के अनुसार तत्त्व विषयक अज्ञेयता या अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है । १. कर्म का जिस रूप में बन्ध हुआ उसको उसी रूप में भोगना अर्थात्
उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा अवस्थाओं का न होना निकाचित कर्मावस्था कहलाती है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४४० २. सत्रकतांगसूत्र १२।३३-५० ३. जाविणो मिगा जहासत्ता परिताणेण तज्जिया,
असंकियाइ संकंति संकियाई असंकिणों । वही, १२।३३ ४. वही, पृ० ५१ .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org