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सूत्रकृतांग के प्रथमश्रुतस्कन्ध में गोशालक या आजीवक का नामोल्लेख नहीं है, परन्तु उपासकदशांग के सातवें अध्ययन के सद्दालपुत्र एवं कुण्ङकोलिय प्रकरण में गोशालक और उसके मत का स्पष्ट उल्लेख है । इस मतानुसार उत्थान, कर्मबल, वीर्य, पुरुषार्थ आदि कुछ भी नहीं है । सब भाव सदा से नियत है । बौद्धग्रंथ दीघनिकाय, संयुक्तनिकाय आदि में तथा जैनागम स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति,
औपपातिक आदि में भी आजीवक मतप्रवर्तक नियतिवादी गोशालक का वर्णन उपलब्ध है।
नियतिवादी जगत् में सभी जीवों का पृथक व स्वतन्त्र अस्तित्व मानते हैं। परन्तु आत्मा को पृथक-पृथक मानने पर जीव स्वकृत कर्मबंध से प्राप्त सुख-दुःखादि का भोग नहीं कर सकेगा और न ही सुख-दुख भोगने के लिये अन्य शरीर, गति तथा योनि में संक्रमण कर सकेगा । शास्त्रवार्तासमुच्चय में कहा गया है कि चूकि संसार के सभी पदार्थ स्व-स्व नियत स्वरूप से उत्पन्न होते हैं अतः ये सभी पदार्थ नियति से नियमित होते हैं । यह समस्त चराचर जगत् नियति से बंधा हुआ है। जिसे, जिससे, जिस रूप में होना होता है, वह उससे, उसी समय, उसी रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार अबाधित प्रमाण से सिद्ध इस नियति की गति को कौन रोक सकता है? कौन इसका खंडन कर सकता है ? नियतिवादी काल, स्वभाव, कर्म और पुरुषार्थ आदि के विरोध का भी युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। नियतिवादी एक ही काल में दो पुरुषों द्वारा सम्पन्न एक ही कार्य में सफलता-असफलता, सुख-दुःख का मूल नियति को ही मानते हैं। इस प्रकार नियति ही समस्त जागतिक पदार्थों का कारण है।
सूत्रकृतांगकार उक्त मत का खण्डन करते हुये कहते हैं कि नियतिवादी यह नहीं जानते कि सुख-दुःखादि सभी नियतिकृत नहीं होते। कुछ सुख दुख नियतिकृत होते हैं, क्योंकि उन-उन सुख-दुःखों के कारणरूप कर्म का अबाधा काल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता ही है,
१. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग २, पृ० १३८ २. नियतेनैव भावेण सर्वेभावा भवन्ति यत् ।
ततो नियतिजा ह्यते तत्स्वरूपानुबेधतः ॥ शास्त्रवार्तासमुच्चय २०६१
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