Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 64
________________ ( ६२ ) आत्मा के निज स्वरूप का कथमपि नाश न होने कारण वह नित्य और अहेतुक भी है। ऐसा मानने में कर्त्ता को क्रिया का सुख व दुःखादिरूप फल भी प्राप्त होगा एवं बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था की उपपत्ति भी हो जायेगी । सांख्यादिमत निस्सारता एवं फल श्रुति' - सांख्यादि दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित मुक्ति उपाय की आलोचना करते हुये शास्त्रकार का मत है कि पंचभूतात्मवादी से लेकर चातुर्धातुकवादी पर्यन्त सभी दर्शन सबको सर्वदुःखों से मुक्ति का आश्वासन देते हैं । प्रश्न यह है कि क्या उनके दार्शनिक मन्तव्यों को स्वीकार कर लेना ही दुःखमुक्ति का यथार्थ मार्ग है ? कदाचित् नहीं । बल्कि महावीर द्वारा प्ररूपित सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप द्वारा कर्म - क्षय कर कर्मबन्ध के कारणों - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद एवं योग से दूर रहना ही सर्वदुःख-मुक्ति का मार्ग है । उपरोक्त मतवादी स्वयं दुःखों से आवृत्त हैं क्योंकि वे संधि को जाने बिना क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं, परिणामस्वरूप धर्म-तत्त्व से अनभिज्ञ रहते हैं । जब तक जीवन में कर्मबन्ध का कारण रहेगा तब तक मनुष्य चाहे पर्वत पर चला जाये या कहीं रहे वह जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि, गर्भवासरूप संसारचक्र परिभ्रमण के महादुःखों का सर्वथा उच्छेद नहीं कर सकता । ऐसे जीव ऊँच-नीच गतियों में भटकते रहते हैं क्योंकि एक तो वे स्वयं उक्त मिथ्यावादों के कदाग्रहरूप मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, दूसरे हजारों जनसमुदाय के समक्ष मुक्ति का प्रलोभन देकर उन्हें मिथ्या व विष का पान कराते हैं । २ नियतिवाद - नियतिवाद आजीवकों का सिद्धान्त है । मंखलिपुत्तगोशालक नियतिवाद एवं आजीवक सम्प्रदाय का प्रवर्तक था । १. सूत्रकृतांग – १।१।१९-२७ २. तेणाविमं संधि णच्चा णं ण ते धम्मविउ जणा । जे तु वाइगो एवं ण ते ओहंतराऽऽहिया | वही १।१।२० ३. सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति २८ ४. सूत्रकृतांगसूत्र १/२/२८ - ३१, गोम्मटसार कर्मकण्ड - ८९२ ( प्रका० परमश्रत प्रभावक जैन मण्डल बम्बई, वी०नि०सं० २४५३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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