Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 37
________________ ( ३५ ) तथापि यह उल्लेखनीय है कि "श्रमण" और ब्राह्मण" शब्दों का प्रयोग साथ-साथ होने पर भी श्रमण धर्म ब्राह्मण धर्म के कर्मकांड और यज्ञों के विरुद्ध थे। बौद्धों का अंगुत्तर-निकाय और जैनों के दसवेयालिय और उत्तरज्झयण में ब्राह्मणों के क्रियाकांड का निरसन किया गया है और "वास्तविक' ब्राह्मण के लक्षण बताये गये हैं। दो विभिन्न आध्यात्मिक पद्धतियों का प्रतिनिधित्व करने वाले श्रमण और ब्राह्मण धर्मों का परस्पर विरोध एक जनश्रुति का-सा रूप ले चुका था, जिससे पतंजलि ने यह वार्तिक लिखा' : "येषां च शाश्व. तिको विरोधः”। यही कारण है और इसमें आश्चर्य भी नहीं, कि जैन आगम गर्व के साथ सूचित करते है कि महावीर के सभी प्रमुख गणधर ब्राह्मण थे। यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म श्रमण परंपरा से उद्भूत हुए थे, तथापि उन दोनों में स्पष्ट और विचारणीय अंतर है। जैसा कि सर्वविदित है, बुद्ध ने मध्यमा प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) का उपदेश दिया जिसका तात्पर्य था-कि वैदिक धर्म के आत्यंतिक कर्मकांड का निराकरण और घोर कायोत्सर्ग की पद्धति का परिहार । तथापि, बौद्ध धर्म के इतिहास से प्रकट होता है कि कई दृष्टियों से उसे व्यावहारिक सुविधावाद के समक्ष झकना पड़ा जिसके कारण अंततः उसका पतन होकर रहा; दूसरी ओर श्रमण परंपरा के दूसरे धर्म, जैन धर्म, ने कुछ ऐसा किया कि वह कायोत्सर्ग की पद्धति पर अटल रहकर आज भी जीवित रह सका है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि श्रमण धर्म के भ्रमणशील जीवन, कायोत्सर्ग की पद्धति का अनुसरण, हिंसा और कर्मकांड का परित्याग, लिंगों की समानता की उद्घोषणा, जातिवाद की अस्वीकृति आदि प्रमुख सिद्धांतों का पालन आज भी जैन श्रमण धर्म के अनुयायियों द्वारा किया जा रहा है। इससे यह तथ्य प्रतिफलित होता है कि जैन संस्कृति और धर्म के उपदेश आज भी अविच्छिन्न रूप में विद्यमान हैं। श्रमण धर्म के प्रमुख सिद्धांतों का पालन बहुत बड़ी संख्या में जैन साधुओं और साध्वियों द्वारा किया जा रहा है। दूसरी ओर, वैदिक १. 'महाभाष्य', २. ४. ९, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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