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सूत्र में कर्म-बन्ध के पांच कारण माने गये हैं, जो अधिक प्रचलित हैं--
(i) मिथ्यादर्शन (ii) अविरति (iii) प्रमाद
(iv) कषाय (v) योग। (i) मिथ्या दर्शन-जो वस्तु जैसी है, उसे उस रूप में न मानकर विपरीत रूप में मानना या ग्रहण करना मिथ्यात्व है। दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन का उल्टा मिथ्यादर्शन है। भगवतीआराधना एवं सर्वार्थसिद्धि में भी जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन बताया गया है।
(ii) अविरति-विरति का अभाव ही अविरति है। सर्वार्थसिद्धिकार ने विरति का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पांच त्याज्य हैं; अतः हिंसा आदि पांच पापों को नहीं छोड़ना या अहिंसादि पांच व्रतों का पालन न करना अविरति है। सूत्रकृतांग की चौथी व पाँचवी गाथा में जीव को परिग्रह के दो रूप-सचेतन एवं अचेतन से सचेत किया गया है। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणियों में आसक्ति रखना सचेतन परिग्रह व सोनाचाँदी, रुपया-पैसा में आसक्ति रखना अचेतन परिग्रह है। परिग्रह चूँकि कर्म बंध का मूल है इसलिए वह दुःख रूप है।
(iii) प्रमाद-प्रमाद का अर्थ है आलस्य का होना, क्रोधादि कषायों के कारण अहिंसा आदि के आचरण में जीव की रुचि नहीं होती। वीरसेन ने क्रोध, मान, माया और लोभरूप-कषायों और हास्य आदि नौ उप-कषायों के तीव्र उदय होने को प्रमाद कहा है।
(iv) कषाय-आत्मा के कलुष परिणाम जो कर्मों के बन्धन के कारण होते हैं, कषाय कहलाते हैं। १. तं-मिच्छतं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । भगवतीआराधना, गाथा५६
आचार्य शिवकोटि, (संम्पा० सखाराम दोषी, जीवराज जैन ग्रन्थमाला
शोलापुर प्र० सं० सन् १९३५) २. सर्वार्थसिद्धि-७।१ . ३. धवला, वीरसेन, खं० २ भाग १ सूत्र ७ पृ० ७
(हिन्दी अनुवाद सहित अमरावती प्र० सं० १९:३९.५९) ४. सर्वार्थसिद्धि ६१४, पृ० ३२०
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