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(v) योग - मन, वचन और काय से होने वाला आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन योग है । इन्हीं के कारण कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होता है ।
बंध उच्छेद ' ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् जैन दर्शन मुक्ति हेतु ज्ञान व क्रिया दोनों को आवश्यक मानता है । कर्मबन्ध उच्छेद हेतु दो विधियों का प्रतिपादन किया गया है - ( i ) नवीन कर्मबन्ध को रोकना संवर े एवं ( ii) आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को, उनके विपाक के पूर्व ही तपादि द्वारा अलग करना निर्जरा है । संवर व निर्जरा से कर्मबंध का उच्छेद हो जाना ही मोक्ष है ।
पंचमहाभूतवाद या भूतचैतन्यवाद -
गाथा संख्या सात व आठ में वर्णित इस मत का नामोल्लेख नहीं है । नियुक्तिकार इसे चार्वाक मत कहते हैं । अवधेय है कि ४ तत्त्व१. पृथ्वी, २. जल, ३ तेज और ४. वायु को मानना प्राचीन लोकायतों का मत है, जबकि अर्वाचीन चार्वाक मतानुयायी पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश इन पांच तत्त्वों को मानते हैं । ये पांच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजन प्रत्यक्ष होने से महान् हैं । इनका अस्तित्व व्यपदेश-खण्डन से परे है । इस प्रकार सूत्रकृतांग में अपेक्षाकृत अर्वाचीन चार्वाकों का मतोल्लेख है । यद्यपि सांख्य व वैशेषिक दार्शनिक भी पंचमहाभूतों को मानते हैं परन्तु ये चार्वाकों के समान इन पंचमहाभूतों को ही सब कुछ नहीं मानते । सांख्य-मत पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय एवं पंचतन्मात्राओं की सत्ता स्वीकारता है । वैशेषिक दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों की भी सत्ता मानता है । चार्वाक दार्शनिक पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के शरीर-रूप में परिणित होने के कारण चैतन्य की उत्पत्ति भी इन्हीं पंचमहाभूतों से मानते हैं । उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार
१. सर्वार्थसिद्धि - २०२६, पृ० १८३
२. तत्त्वार्थ सूत्र - ९॥१
३. पुव्वकदकम्म सडणं तु णिज्जरा- भगवती आराधना - गाथा १८४७
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