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और लोक दोनों नित्य हैं । इन छः पदार्थों का सहेतुक या अहेतुक किसी प्रकार से विनाश नहीं होता । इनके मत में असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी विनाश नहीं होता एवं सभी पदार्थ सर्वदा नित्य हैं । बौद्ध ग्रन्थ 'उदान' में आत्मा और लोक को शाश्वत मानने वाले कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का उल्लेख है । बौद्धदर्शन में पदार्थ की उत्पत्ति के पश्चात् तत्काल ही निष्कारण विनाश होना माना जाता है । अतः उत्पत्ति के अतिरिक्त विनाश का कोई अन्य कारण नहीं है । आत्मषष्ठवादी इस अकारण विनाश को नहीं मानते और न ही वैशेषिक दर्शन के अनुसार बाह्य कारणों से माने जाने वाले सहेतुक विनाश को ही मानते हैं । तात्पर्यतः आत्मा या पंचभौतिक लोक अकारण या सकारण दोनों प्रकार से विनष्ट नहीं होते । ये चेतनाचेतनात्मक दोनों कोटि के पदार्थ अपने-अपने स्वभाव से अच्युत रहकर सर्वदा नित्य रहते हैं ।
भगवद्गीता' में आत्मा की त्रिकालाबाधित नित्यता को बताते हुये कहा गया है कि 'जो असत् है वह हो ही नहीं सकता और जो है ( सत् ) उसका अभाव नहीं हो सकता । इसी प्रकार सांख्य सत्कार्यवाद के आधार पर आत्मा और लोक की नित्यता सिद्ध करता है ।
जैनदर्शन की मान्यता है कि सभी पदार्थों को सर्वथा या एकान्त नित्य मानना यथार्थ नहीं है । इसलिये आत्मा को एकान्त नित्य सत् या असत् मानना असंगत है, क्योंकि ऐसा मानने से आत्मा में कर्तृत्व परि णाम उत्पन्न नहीं हो सकता । कर्तृत्त्व के अभाव में कर्मबन्धन न होने से सुख-दुःख रूप कर्मफल भोग भी नहीं हो सकता । अतः आत्मा, पंचभूत आदि सभी पदार्थों को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य तथा किसी अपेक्षा से सत् एवं किसी अपेक्षा से असत् अर्थात् सदसत्कार्य रूप न मानकर, एकान्त मिथ्या ग्रहण करना ही आत्मषष्ठवादियों का १. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||भगवद्गीता २।१६ ( गीता प्रेस, गोरखपुर, १९७५ )
२. असदकरणादुपादानग्रहणात सर्वसंभवाभावात्
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् || सां० का० ९
( गौडपाद भाष्य ) : ईश्वर - कृष्ण ह०० चौ० काशी, वि० सं० १९७९
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