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( ५८ ), जो आसक्त रहते हैं, वही पापकर्म के फलस्वरूप नरकादि को भोगते हैं, दूसरे नहीं।
अकारकवाद या अकर्तृत्ववाद-सांख्य-योगमतवादी आत्मा को अकर्ता मानते हैं। उनके मत में आत्मा या पुरुष अपरिणामी एवं नित्य होने से कर्ता नहीं हो सकता । शुभ अशुभ कर्म प्रकृति कृत होने से वही कर्ता है। आत्मा अमूर्त, कटस्थ, नित्य एवं स्वयक्रियाशून्य होने से कर्ता नहीं हो सकता। शास्त्रकार की इसके विरुद्ध आपत्ति इस प्रकार है___ आत्मा को एकान्त, कूटस्थ, नित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी एवं निष्क्रिय मानने पर प्रत्यक्ष दृश्यमान, जन्ममरणरूप या नरकादि गमल-रूप यह लोक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा एक शरीर व योनि को छोड़कर दूसरे शरीर व योनि में संक्रमण नहीं कर सकेगा । साथ ही एक शरीर में बालक, वृद्ध, युवक आदि पर्यायों को धारण करना भी असम्भव होगा। वह आत्मा सर्वदा कूटस्थ नित्य होने पर विकार रहित होगा और बालक तथा मुर्ख सदैव बालक व मूर्ख ही बना रहेगा, उसमें किसी नये स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होगी। ऐसी स्थिति में जन्ममरणादि दुःखों का विनाश, उसके लिए पुरुषार्थ, एवं कर्मक्षयार्थ, जप-तप, संयम-नियम आदि की साधना सम्भव नहीं होगी। सांख्य के प्रकृति कर्तृत्व एवं पुरुष के भोक्ता होते हुए भी कर्ता न मानने को ले कर अनेक जैनाचार्यों ने इस सिद्धान्त को अयुक्तियुक्त बताया है। _ आत्मषष्ठवाद-आत्मषष्ठबाद वेदवादी सांख्य व वैशेषिकों का मत है । प्रो० हर्मन जैकोबी इसे चरक का मत मानते हैं। इनके अनुसार अचेतन पंचमहाभत एवं सचेतन आत्मा ये छ: पदार्थ हैं। आत्मा
१. सूत्रकृतांग १।१।१३-१४ २. अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः अक निगुण: सूक्ष्म आत्मा कपिल
दर्शने । षड्दर्शन समुच्चय । (गुणरत्नसरिकृत रहस्य दीपिका सहित ): - हरिभद्रसूरि, सं० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९७० ३. तत्वार्थ वार्तिक २।१०१ ४. सन्ति पंचमहब्भूता इहमेगेसि आहिता ।
आयछट्ठा पुणेगाऽऽहु आया लोगे य सासते । सूत्रकृताङ्ग सू० १११:१५
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