Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ तत्त्वार्थसूत्र में 'कषाय-युक्त जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करना बंध है' ऐसा कहा है। तत्त्वार्थवृत्तिकार अकलंकदेव के अनुसार आत्मप्रदेशों के साथ जो कर्म क्षीर-नीरवत एक होकर स्थित हो जाते हैं, रहते हैं या बँध जाते हैं, वे बंधन या बंध कहलाते हैं । अक. लंक देव के अनुसार सामान्य की अपेक्षा से बंध के भेद नहीं किये जा सकते अर्थात् इस दृष्टि से बंध एक ही प्रकार का है। किन्तु विशेष की अपेक्षा से बंध दो प्रकार का है-(i) द्रव्यबंध और (ii) भावबंध ।। द्रव्यबंध-ज्ञानावरणादि कर्म-पुद्गल प्रदेशों का जीव के साथ संयोग द्रव्यबंध है। भावबंध--आत्मा के अशुद्ध चेतन परिणाम (भाव) मोह. रागद्वेष और क्रोधादि जिनसे ज्ञानावरणादि कर्म के योग्य पुद्गल परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, भावबंध कहलाता है। आचार्य नेमिचन्द्र कर्मबंध के कारणभूत चेतन परिणाम को भावबंध मानते हैं। कर्मबन्ध के कारण -जैन दर्शन में बंध के कारणों की संख्या के विषय में मतैक्य नहीं है, । कारण एक ओर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार" में वैदिक दर्शनों की तरह अज्ञान को ही बंध का प्रमुख कारण बतलाया है तो दूसरी ओर स्थानांग, समवायांग एवं तत्त्वार्थ१. स कषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्ग्लानादत्ते स बन्धः । --तत्त्वार्थ सूत्र ८।२ २. पं. सुखलाल संघवी, भारत जैन महा मण्डल, वर्धा, १९५२ ३. तत्वार्थ वार्तिक-२।१०।२ पृ० १२४ ४. आत्मकर्मणो रन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः। सर्वार्थसिद्धि (पूज्यपादाचार्य सं० व अनु० फलचन्द-सिद्धान्तशास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, काशी प्रथमावृत्ति सन् १९५५) १।४ पृ० १४ ५. क्रोधादिपरिणामवशीकृतो भावबन्धः-तत्त्वार्थवार्तिक-२।१०० पृ० १२४ ६. द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्राचार्य, प्रका० श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल वि० नि० सं० २४३३ ७. समयसार (आत्मख्याति-तात्पर्यवृति भाषावनिका टीका सहित) कुन्द कुन्दाचार्य, सम्पा०पन्नालाल जैन प्रका० परमश्रुत प्रभावक मंडल, बोरिया द्वितीयावृत्ति, सन् १९७४ गाथा-१५३, आत्मख्याति टीका--गा. १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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