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इस प्रकार श्रमण परंपरा के सिद्धांतों को, जिनमें सम्यक्चारित्र पर बल दिया गया है न कि कर्मकांड या बाल-तप पर, ध्यान में रखते हुए जैन द्रष्टाओं ने एक ऐसी आचार-संहिता प्रस्तुत की जिसका आज के जैन भी पालन कर रहे हैं और जो जैन संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है ।
वैदिक परंपरा की भाँति श्रमण परंपरा ईश्वर के सिद्धांत पर आधारित नहीं है, अतः इस पर बल दिया गया कि अपरिग्रह का कठोरता से पालन करके एवं कर्मपुद्गलों के आस्रव का निरोध करके मोक्ष की प्राप्ति की जाए । अतः जैन धर्म में कर्मों का आस्रव रोकने तथा निर्जरा करने के लिए आत्म-संयम पर बल दिया गया । कृपा करके सहायता पहुँचाने वाले परमात्मा की आवश्यकता ही नहीं समझी गयी । यही कारण है कि जैन धर्म में आज भी परमात्मा की मान्यता नहीं है । जैन धर्म के अनुसार देवों को भी मोक्ष की प्राप्ति के लिये मनुष्य भव धारण करना पड़ेगा। किसी भी प्रकार के कर्मकांड का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि वह इस प्रक्रिया में सहायक नहीं हो
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पूर्व कथन के अनुसार, श्रमण परंपरा में लिंगों की समानता का प्रतिपादन किया गया है । इस दृष्टि से जैन धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म का सन्दर्भ देना उचित होगा। यह सुविदित है कि बुद्ध ने आरंभ में स्त्रियों को दीक्षा की अनुमति नहीं दी थी । किन्तु कालांतर में, आनन्द के अनुरोध पर स्त्रियों की दीक्षा की अनुमति उन्होंने झुंझलाते हुए दे दी । जैन धर्म में ऐसी बात नहीं है । यहाँ तक की प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभनाथ के समवसरण में साध्वियों की प्रचुर संख्या थी । वही परंपरा ऋषभोतर काल में चलती रही; जिनकी ऐतिहासिकता सन्देह के परे है उन तेईसवें और चौबीसवें तीर्थङ्करों के समवसरणों में भी साध्वियों की बहुत बड़ी संख्या थी । इस तथ्य की संपुष्टि मथुरा से प्राप्त जैन अभिलेखों' से होती है जिनमें अनेक जैन साध्वियों और महिला अनुयायियों के उल्लेख मिलते हैं ।
१. 'लूडर्स लिस्ट', एपिग्राफिया इण्डिका', जिल्द १० ।
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