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पूर्व में कहा जा चुका हैं, जैन श्रमण भ्रमणशील साधुओं का जीवन व्यतीत करते रहे हैं। इससे उन्हें अपने श्रावक अनुयायियों से निरंतर संपर्क बनाये रखने में सहायता मिली। जैन धर्म के जीवन्त बने रहने का एक बहुत बड़ा कारण यह भी बना । उत्तरवर्ती काल में बौद्ध धर्म मठों में सीमित हो गया, जबकि जैन श्रमण सतत भ्रमण में संलग्न रहे। यही कारण है कि जैनों के मठों और गहावासों की संख्या अपेक्षाकृत कम है । भ्रमणशीलता की जैनों की प्रवृत्ति आज भी विद्यमान है। श्रमणसंघ और उपासक-संघ में पारस्परिक आदान-प्रदान निरन्तर चलता रहता है।
अतएव यह निष्कर्ष सर्वथा उचित होगा कि जैन धर्म में प्राचीन श्रमण परंपरा का अस्तित्व आज भी देखा जा सकता है ।
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