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ने उचित विचार व्यक्त किये हैं' कि 'कदाचित् यह संयोगमात्र नहीं था कि वे सभी शाक्य, लिच्छवि और सात्वत नामक स्वाधीन लोकतंत्रों के स्वतंत्र वातावरण में उदिन हुए।' इस प्रकार जैन और बौद्ध धर्मों में प्रतिबिंबित श्रमण परंपरा ने पूर्वी भारत में विशेषतः वर्तमान बिहार और बंगाल राज्यों में, बड़ी संख्या में अनुयायी प्राप्त किये ।
अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और तपश्चरण श्रमण परंपरा के मुख्य सिद्धांत थे और श्रमण परंपरा के किसी भी धर्म में इन सिद्धांतों की रक्षा और क्रियान्विति उतनी नहीं हुई जितनी जैन धर्म में । जैन श्रमणों ने अपने उपदेशों और आचार से बहुसंख्यक लोगों का आदर प्राप्त किया और किसी विशेष अवस्था, जाति या साधन के प्रति आत्मीयता का परिहार किया । इसीलिए वे 'निर्ग्रन्थ' अर्थात् 'ग्रन्थि - रहित' कहे गये । उपनिषदों के काल में और कालांतर में भी श्रमणों का ब्राह्मणों के साथ निरंतर उल्लेख सूचित करता है कि श्रमणों को भी वही आदर दिया जाता था जो ब्राह्मणों को दिया जाता था । जैसा कि पाठक ने संकेत किया है 'समस्त पद' 'श्रमण-ब्राह्मण' से एकसाथ ध्वनि निकलती है कि आध्यात्मिक उपदेशकों के ये दो वर्ग थे जिनमें प्रायः कोई भेद-भाव नहीं था। दीघ निकाय आदि बौद्ध ग्रन्थों में भी 'श्रमण ब्राह्मण' पद का प्रयोग हुआ है जिससे इन दोनों का महत्त्व ध्वनित होता है । अशोक ने अपने साम्राज्य के सभी धर्मों को पांच वगों में विभाजित किया था । (बौद्ध) संघ, ब्राह्मण, आजीवक, निर्ग्रन्थ ( या जैन) और अन्य मत । उसने घोषणा की थी कि वह सभी के प्रति सम्मान का भाव रखता है, भले ही उसका तीव्र आकर्षण बौद्ध धर्म के प्रति था गिरनार, शाहबाजगढ़ी और मानसेरा के उसके धर्म - लेखों में श्रमणों के जो प्रचुर उल्लेख हैं उनसे तत्कालीन लोगों पर श्रमणों के प्रभाव की पुष्टि होती है ।
१. भट्टाचार्य पूर्वोक्त,
२.
गोठ एन०० 'हिस्ट्री ऑफ इण्डियन बुद्धिज्म' (१९८१ ) पृ० २१
ढ, हुल्श, 'कॉर्पस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम्', भाग १
३.
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