Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 21
________________ ( १९ ) इसके अतिरिक्त विविधतीर्थ कल्प (१३वीं शती) और तीर्थ मालायें भी जो कि १२वीं-१३वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से रची गयीं; तीर्थों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं। जैन साहित्य में तीर्थयात्रा संघों के निकाले जाने सम्बन्धी विवरण भी १३वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गयी है। तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म साधना है, बल्कि इसका व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णी में मिलता है । उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य ग्राम नगरों को नहीं देखता वह कूपमंडूक होता है। इसके विपरीत जो भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, म निवेश, जनपद, राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार-कुशल हो जाता है तथा नदी, गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु सुख को भी प्राप्त करता है। साथ ही तीर्थंकरों के कल्याणकभमियों को देखकर दर्शन विशुद्धि भी प्राप्त करता है। पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता है और उनके समाचारी से भी परिचित हो जाता है। परस्पर दानादि द्वारा विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यंजनों का रस भी ले लेता है। निशीथचर्णी के उपयुक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्य तीर्थयात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे। १ अहाव-तस्स भावं णाऊण भणेज्जा-सो वत्थ व्वो एगगामणिवासी क व मडुक्को इव ण गामण गरादी पेच्छति । अम्हे पुण अणि यतवासी, तुमं पि अम्हेहिं समाणं हिंडतो णाणाविध गामणगरागर सन्निवेसरामहाणि जाण वदे य पेच्छंतो अभिधाणकुसलो भविस्स सि, तहा सर. वाधि-वप्पिणि-ण दि-कूव-तडाग-काणणुजाण कंदर-दरि-कुहर-पव्वत य णाणाविह-रुक्खसोभिए पेच्छंतो चवखुसुहं पाविहिसि, तित्थ कराण य तिलोगइयाण जम्मण-णिक्खण-विहार--- केवलुप्पाद-निव्वाणभूमीी य पेच्छंतो दंसण सुद्धि काहिसि' तहा अण्णोग्ण साहसमागमेण य सामायारिकुसलो भविस्स सि, सव्वापुव्वे य चेइए वदंतो बोहिलाभं निजितहिसि, अण्णोण्ण सुय-दाणाभिगमसड्ढे सु संजमाविरुद्धं विविध-वंजणोक्वेयन ण्यं घय-गुल-दधि-क्षीरमादियं च विगतिवरिभोगं पाविहिसि' ।।२७१६ । -निशीथचूर्णी, भाग ३, पृ० २४, प्रकाशक-सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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