Book Title: Sramana 1990 04
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ (३१) है कि ऋग्वेद के समय में भी एक ऐसा संप्रदाय था जो सांसारिक उद्देश्यों और आकांक्षाओं से निःस्पृह जीवन व्यतीत करता था और वैदिक समाज के परिचायक पारंपरिक क्रियाकांड का अनुकरण नहीं करता था। कीथ का कथन तर्कसंगत है --- 'वैदिक काल में मुनि-वर्ग को पुरोहित-वर्ग मान्यता नहीं देता था, पुरोहित-वर्ग क्रियाकांड का अनुसरण करता था और उसके विचार मनि-वर्ग के आदर्शों से नितांत भिन्न थे, जो संतान और दक्षिणा आदि सांसारिक आकांक्षाओं से परे थे।" श्रमण' शब्द से ऐसे जीवन का संकेत मिलता है जो सुविधाभोगी नहीं, प्रत्युत 'श्रम' से अनुप्राणित होता है। इससे स्पष्ट है कि श्रमण वे लोग थे जिनके जीवन में परिव्रजन, तपश्चरण और सांसारिक सुखों के प्रति विरक्ति होती थी। सभी वर्गों और मतों के अन्तर्गत भारतीय साध-मार्ग में जन्म-मरण की अनंत शृङ्खला से मुक्ति का उद्देश्य सदा सर्वोपरि रहा है। ससारिक जीवन की क्षणभंगुरता को भी साधु-मार्ग बाधक मानता है। अतएव श्रमणों तथा अन्य सभी वर्गों के साधुओं का ऐसी अवस्था प्राप्त करने का प्रयत्न रहा जिसमें जन्म मरण के चक्र से मुक्ति निश्चित हो। अतएव, कुछ विद्वानों के अनुसार, ऋग्वेद में उल्लिखित 'वात-रशन' मुनि 'श्रमण परंपरा के प्राचीनतम प्रतिरूप थे, जो कालांतर में विविध वैदिकेतर रूप लेते हुए बौद्ध और जैन धर्मों के रूप में भी दृष्टिगत हुए। हरदत्त शर्मा इससे भी आगे बढ़कर लिखते हैं कि आरण्यक-साहित्य की रचना के समय तक जिन्होंने 'श्रमण' नाम धारण कर लिया वे ऋग्वेदोक्त 'वात-रशन' १. कोथ, ए. -'द रिलीजन एण्ड फि सिफी ऑफ दि वेद एण्ड उपनिषद्स' (भारतीय पुनर्मुद्रण, १९७६), पृ० ४०२ २. मिश्र, वाई० के०, 'असे टिसिज्म इन ऐंश्यंट इण्डिया' (वैशाली, १९८७), पृ० ५१ द्रष्टव्य, मिश्र वाइ० के० 'कन्ट्रीब्यूशन्स टू दि थ्योरी ऑफ ब्राह्मणिकल असेटेसिज्म' (पूना १९३९) देव, एस० बी० 'हिस्ट्री ऑफ जैन मॉनेस्टिसिज्म फ्रॉम इन्स्क्रिप्शन्स एण्ड लिटरेचर' (पूना, १९५६), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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