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उदय हुआ एवं जिसने भारत के धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में सुस्थापित परंपराओं की आधार-शिलाओं को ही हिलाकर रख दिया। यह वही युग है जब वैदिक धर्म के सुस्थापित दृष्टिकोणों और कर्मकांडों का उपनिषदों के माध्यम से विश्लेषण का साहस दिखाया गया। साथ ही, यह वही युग है जब श्रमणों ने अपने आपको कदाचित् इस प्रकार संघ-बद्ध किया कि उससे बौद्ध धर्म और जैन धर्म का उदय हुआ।
तथापि, अनेक विद्वानों के अनुसार, यह मानना ही होगा कि श्रमण धर्म की पूर्वावधि इस युग से बहुत अधिक प्राचीन युग में पायी जा सकती है, जिसमें बौद्ध धर्म और जैन धर्म के रूप में संघ-बद्ध श्रमण परंपरा पुष्पित और पल्लवित हुई। प्रस्तुत विचार-विमर्श के विषय होंगे-श्रमण परंपरा की प्राचीनता, उसकी विशेषताओं की परिभाषा,
और जैन धर्म के सिद्धांतों तथा कर्मकांडों का इस दृष्टि से विश्लेषण । जिससे यह ज्ञात हो सके कि शताब्दियों से विकसित होती-होती आज के प्रचलित रूप में जैन संस्कृति प्राचीन श्रमण परंपरा के प्रति समर्पित रही भी है या नहीं।
जैसा कि स्पष्ट किया गया है, भारत में ऐसे भ्रमणशील साधुओं की प्राचीन परंपरा रही है जो निःस्पृह, अपरिग्रही और ब्रह्मचारी होते थे। इस जीवन पद्धति का अनुसरण करने वाले साधुओं के वैदिक साहित्य में विभिन्न प्रकार से उल्लेख हुए हैं। कुछ विद्वान् तो यह भी मानते हैं कि योग संप्रदाय सिंधुघाटी की सभ्यता के समय में भी था, उनकी मान्यता का आधार है वह मुद्रा जिसपर पशुपति या महायोगी के रूप में शिव का मूर्त्यङ्कन है, वे यह भी कहते हैं कि उक्त श्रमण या श्रमण मार्ग या योग-संस्था आर्यों से भी पूर्व की हो सकती है। तथापि, यह तो मानना ही पड़ेगा कि ऋग्वेद (१०.१३५.२) में मुनियों के स्पष्ट उल्लेख हैं जिनमें से एक है : 'मुनयो वात-रशनाः पिषङ्गा वसते मला"। इस उद्धरण के संदर्भ में, दो बिंदुओं पर ध्यान दिया जाएप्रथम यह कि वे वात-रशनः' थे अर्थात् वायु उनकी मेखला थी जिसका स्पष्ट अर्थ हुआ कि वे नग्न थे। इस संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि 'वात-रशना' शब्द के प्रस्तुत अर्थ पर सायण आदि विद्वान् एकमत नहीं हैं। कारण, कहा जाता है कि ये मुनि पीले और मलिन वस्त्र पहनते थे। इस बिन्दु पर अधिक समय न देकर हमें इतना ही कहना
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