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अव्यक्त रूपे उगी रह्या हता ते उल्लेख पण प्रस्तुत स्थले बिसार्वा जेवो नथी"
जैन प्रकाश ता० २६-५-३५ पृष्ट ३२८
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- समाज साथ देखीतुं बंट कर वा मां तेमनी सूरि सम्राट् नी पदवी चाली जाती होय अथवा तो चैत्य-वाद ना आजु बाजु ना वातावरण मां व्यापी रहेली वहेमी रूठियों थी दवायेला जैनधर्मानुयायियों नी रूढि शिथिलवा दूर करवा माटे तेम नी एक नी शक्ति अपर्याप्त होय" जैन प्रकाश ता० ९-६-३५ पृष्ट ३५१
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कलिकाल सर्वज्ञ एवं गुर्जरेश परमाहेन् कुमारपाल प्रतिबोधक श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के विषय में श्राप लिखते हैं कि:"जन हितार्थ तेमणे जे जे कार्य किधा ते विषं अहीं कहवानुं नथी परन्तु राज्याश्रय लेइ नेमणे १४४० देवालय बंधाव्या ते खरे खर चैत्यवादनी विकृति ना बेग ने हटाड़वा ने बदले वधारवानु कर्यु छे अने ते कार्य खटके तेहवु छे ।
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जैन प्रकाश ६-१-३५ पृ० ३५२
क्या आपके उपर्युक्त उद्धरण एक विशाल जनसमुदाय के दिल दुखानेवाले नहीं हैं ? शायद, आपकी मान्यता यह रही हो कि मूर्तिपूजा रूप सड़ों चरमकेवली श्रीजम्बूस्वामी के समय प्रारम्भ हुआ होगा और श्रीमान् लौंकाशाह ने इस सड़े ( विकृत
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