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समय अर्थ-चेतनारूप अनूपम अमूर्ति ऐसा सिद्धसमान सदाकाल मेरा पद है । पण HP मोहरूप महाअंधकारने आत्माके अंग कहिए समस्त प्रदेशमें संसर्ग करि महाअंधकारसे घेर रख्या
हैं ताते नहीलख्या गया। अब मेरे कोई ज्ञानकी कला कहिए अंश उपजा है ताते नाटक
समयसार नाम परमागमके गुण कहूंहूं । जिसके प्रसादते मेरेकू मोक्षमार्ग सिद्ध होय अर 18 शरीरमें वसिवो वेगिकरि मिटिजाय ॥ ११॥ अब कवि लघुता वर्नन ॥ सवैया ३१ सा
जैसे कोऊ मूरख महासमुद्र तरिवेको, भुजानिसो उद्यूतभयोहै तजि नावरो॥ जैसे गिरि ऊपरि विरखफल तोरिवेको, वामन पुरुष कोऊ उमगे उतावरो ॥ जैसे जल कुंडमें निरखि ससि प्रतिबिंब, ताके गहिवेको करनीचोकरे टावरो॥
तैसे मैं अलपबुद्धि नाटक आरंभकीनो, गुनीमोही हसेंगे कहेगे कोऊ बावरो ॥ १२ ॥ __ अर्थ-जैसे कोई मूर्खमनुष्य महासमुद्र तिरनेको नावकू छांडि-भुजानितूं उद्यमी भयोहै ।
अथवा जैसे कोई वामन पुरुष पर्वत ऊपरिके वृक्षके फल तोरनेकू उतावलो होइ उछले है। है अथवा जैसे कोई बालक जलके कुंडमें चंद्रमाका प्रतिबिंबके ग्रहण करनेकू अपना । हस्तकू नीचाकरे पकड्या. चाहै । तैसे मैं अल्पबुद्धी नाटककी भाषा करनेका आरंभकीया है ।
सो मंदबुद्धिके धारकको ऐसा वडाकार्यका आरंभ देखि गुणवंत पुरुष हास्यकरि कहेंगे कोऊ 5 वावरा है या सयाना होता तो ऐसे कार्य कैसे आरंभ करता ॥ १२ ॥ पुनः ॥ ३१ सा॥
जैसे काहू रतनसौ वींध्यो है रतन कोऊ, तामें सूत रेसमकी डोरी पोइंगइ है ।।.. . .. तैसे बुद्धटीकाकरी 'नाटक सुगमकीनो, तापरि अलपबुद्धि सूधी परनई है ॥
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नाटक. ॥४॥