________________
समत्व का स्वरूप
११
सामान्य जन की सुख - दुःख की अनुभूति केवल स्वतः तक सीमित होती है । जीवन का यह एकाङ्गी एवं अत्यन्त संकुचित दृष्टिकोण है । यही अनुभूति जब व्यापक रूप ग्रहण कर दूसरे प्राणियों के भी सुख - दुःख का अनुभव करने लगती है तब वह समता का विशुद्ध रूप धारण करती है । इसीलिए आचार्यों ने ठीक कहा है।
" आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्
जो अपने को प्रतिकूल लगे, उसे दूसरे के प्रति आचरण मत करो । समता अध्यात्मवाद है । यहाँ व्यक्ति और समाज, दोनों के साथ आत्मा की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है । यह केवल मनुष्यों में ही नहीं अपितु प्राणिमात्र में समानता का पोषक है । इसका उद्देश्य बाह्य विषम परिस्थितियों के कारण आत्मा में उत्पन्न विषम भावनाओं पर समत्व की प्रतिष्ठा करके आत्मा का सर्वोच्च विकास करना है। महावीर ने कहा था :
"जीविअँ नाभिकँखेज्जा, मरणं नो वि पत्थए । दुअहो वि न सज्जेजा, जीविए मरणे तहा ॥ मज्झत्थो निज्जरापेही
१५
अर्थात् - न तो जीने की आकांक्षा कर और न मरने की। दोनों में से किसी में भी आसक्ति न रख । मध्यस्थ रहकर कर्मों की निर्जरा याने मात्र आत्म-विकास का लक्ष्य रख ।
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि समता मानव-जीवन की महान् साधना एवं अनुपम उपलब्धि है । यही धर्म हैं, यही सुख और शान्ति का मूल है तथा इसी से निर्वाण की प्राप्ति होती है। गीता में कहा है - "जिनके मन में समता स्थित है उन्होंने तो इसी जीवन में संसार को जीत लिया ।"
"इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
वास्तव में एक समभावी सदा सुख और सुख का ही अनुभव करता रहता है और उसका समभाव जिस गति से अभिवद्धित होता जाता है, उसी गति से उसकी सुख - वृद्धि भी सम्पन्न बनती जाती है क्योंकि वह सुख आत्मानन्द में रूपान्तरित होकर शाश्वत रूप धारण करता जाता है । वह आत्मानन्द
१. आचारांग सूत्र १-८-८. २. श्रीमद् भगवद्गीता ५-१९.
""
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org