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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
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" योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव गच्छाति सान्वयः ॥ शुद्रत्वमाशु महावीर ने अवर्णों को सामाजिक महत्त्व प्रदान करने के लिए शूद्रों को प्रवज्या का विधान किया । 'उत्तराध्ययन' में हरिकेशबल नामक चाण्डाल के गुण सम्पन्न मुनि होने का उल्लेख है :"सोवागकुलसंभूओ गुणुत्तरधरो मुणी ।
हरिएसबलो नाम आसि भिक्खू जिइन्दिओ ॥
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जन्म के आधार पर मानी गई वर्ण-व्यवस्था का महावीर ने घोर विरोध किया । उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर ही है
:--
"कम्मुणा बभ्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ ।
इसो कम्पुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥३
इस प्रकार मानव-मानव में ऊँच-नीच की भावना को छोड़कर समान,
सहृदय व्यवहार करना समता का निर्मल रूप है ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
अपने सुख-दुःख के समान दूसरे के सुख-दुःख का भी अनुभव करना, मानव-जीवन की परम श्रेष्ठ अनुभूति है ।
कृष्ण ने कहा था " हे अर्जुन ! मुझे वह योगी परम श्रेष्ठ लगता है जो विश्व के समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को अपने जैसा अनुभव करता
है" :
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"आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ४ महावीर ने कहा है
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" सव्वे पाणा पियाउआ सुहसाया दुक्खपडिकूला "
अर्थात समस्त प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, उन्हें सुख अच्छा लगता है और दुःख प्रतिकूल ।
१. मनुस्मृति, २-१६८.
३. उत्तराध्ययन २५-३३.
५. आचारांग सूत्र १-२-३
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२. उत्तराध्ययन १२-१.
४. श्रीमद् भगवद्गीता ६-३२.
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