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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ जैन धर्म में वीतरागता, आप्त (ईश्वर) का लक्षण माना गया है :
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।"२ साधु, राग और द्वेष इन दोनों पर विजय प्राप्त करने के लिए ही साधुत्व का आचरण करता है :
"रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।"३ आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि हिंसादि पापों से निवृत्ति के लिए रागद्वेष से निवृत्त होना आवश्यक है :
"रागद्वेष-निवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।"४ वे, वासुपूज्य जिनकी स्तुति करते हुए कहते हैं :
"भगवन्, आप वीतराग हैं इस कारण आपको मेरी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं, और आप वीतद्वेष हैं इस कारण किसी की निन्दा से भी आपको कोई प्रयोजन नहीं । फिर भी आपके पुण्य गुणों का स्मरण पापरूपी मैल को हटाकर हमारे चित्त को पवित्र करता है ।"
"न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।।
१. श्रीमद् भगवद्गीता २-५६, ५७, ६४. २. आचार्य समन्तभद्र 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार्य', १-६ ३. आचार्य समन्तभद्र 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार्य,' ३-४७. ४. आचार्य समन्तभद्र 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार्य', ३-४८ ५. समन्तभद्राचार्य, 'स्वयंभू स्तोत्र' १२-२.
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