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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि
२. समत्व का स्वरूप
'समणो समसुहदुक्खो' सुख और दुःख, इन दोनों में एक समान अनुभूति, जीवन की सबसे महान सफलता है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक धर्म में सुख-दुःख को समान रूप से सहन करने पर बल दिया गया है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि यदि तू पाप से बचना चाहता है तो सुख-दुःख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर, फिर युद्ध के लिए तैयार हो ; न प्रिय को प्राप्त कर हर्षित हो और न अप्रिय को प्राप्त कर उद्विग्न । सुख-दुःख को समान समझने वाला धीर पुरुष निर्वाण का अधिकारी है :
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ "न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ॥
"समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।"३
जैन धर्म में 'सामायिक' की बड़ी प्रतिष्ठा है । अणुव्रती गृहस्थ के चार शिक्षाव्रतों में और महाव्रती साधु के पाँच चारित्रों में सामायिक का समावेश है। राग-द्वेष की निवृत्तिपूर्वक समस्त आवश्यक कर्तव्यों में समता भाव का अवलम्बन सामायिक है । आचार्य अमितगति ने 'सामायिक पाठ' में सामायिक के स्वरूप का अच्छा प्रतिपादन किया है :
"दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे योगे वियोगे भुवने वने वा । निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समंमनो मेऽस्तु सदापि नाथ ।।
१. श्रीमद् भगवद्गीता, २-३८. २. श्रीमद् भगवद्गीता, ५-२०. ३. श्रीमद् भगवद्गीता, २-१५. ४. आचार्य उमास्वाति 'तत्त्वार्थसूत्र' ७-२१ तथा ९-१८. ५. आचार्य अमितगति-'सामायिक पाठ' ३.
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