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समत्व का स्वरूप
अर्थात् हे देव, सम्पूर्ण ममत्व बुद्धि से रहित मेरा मन सुख-दुःख, बैरी बन्धु, संयोग-वियोग, भुवन-वन आदि विषमताओं में समत्व का अनुभव करे ।
महावीर ने श्रमण और ब्राह्मण की परिभाषा बताते हुए कहा था - "मुंड-मुंडा लेने से कोई श्रमण और 'ओम्' 'ओम्' रटने से कोई ब्राह्मण नहीं होता; किन्तु ब्राह्मण बनने के लिए ब्रह्मचर्य और श्रमण बनने के लिए समता धारण करना आवश्यक है।"
"न वि मुण्डिएण समणो, ओंकारेण न बभ्भणो ।
समयाए समणो होई, बभ्भचेरेण बम्भणो ॥"? आचार्य कुन्दकुन्द ने भी समभाव को श्रमणत्व का मूल माना है :
"सुविदितपयत्थसुत्तो संजमजवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥" २
अर्थात् जीवादि नव पदार्थ तथा तत्प्रतिपादक सूत्रों को जानने के पश्चात् संयम तथा तप से युक्त वीतराग श्रमण जब सुख-दुःख में समान अनुभूति करने लगता है तभी वह शुद्ध तथा योगी कहा जाता है । इस प्रकार सुख-दुःख में समत्व की अनुभूति समता का अविकल स्वरूप है।
"वीतरागात् परो देवो न भूतो न भविष्यति ।" समता का एक दूसरा रूप भी है - न किसी के प्रति राग और न किसी के प्रति द्वेष । संक्षेप में हम इसे वीतराग भाव कह सकते हैं । गीता का "स्थितपूज्ञ' वीतरागता का समन्वित रूप है। स्थितप्रज्ञ न तो दुःख में उद्विग्न होता है और न सुख में स्पृही । वह राग, भय तथा क्रोध-सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सर्वत्र स्नेह को त्यागकर न तो शुभ की प्राप्ति में प्रसन्न और न अशुभ की प्राप्ति में दुःखी होता है; राग और द्वेष दोनों से रहित होकर, वशीभूत इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता हुआ स्वाधीन आत्मावाला वह अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त करता है :१. उत्तराध्ययन, २५, ३१-३२ । २. प्रवचनसार, १-१४ ।
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