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समाधिष
जाता है, और उन आत्माके भेदों में किमका ग्रहण और किसका त्याग करना चाहिये ? ऐसी आशंका दूर करनेके लिये आत्माके भेदोंका कथन करते हैं
मन्वयार्थ-( मर्वदेहिषु ) सर्वप्राणियोंमें (बहिः) बहिरात्मा ( अन्तः) अन्तरास्मा ( च पर:) और परमात्मा ( इति ) इस तरह ( त्रिधा ) तीन प्रकारका (आत्मा) माया ! अस्ति है। तत्र ) आत्माके उन तीन भेदोंमेंसे ( मध्योपायात ) अन्तरात्माके उपायद्वारा ( परमं ) पर. मास्माको ( उपेयात् ) अंगीकार करे-अपनावे और (बहिः ) बहिरास्माको ( यजेत् ) छोड़े।
भावार्थ-आत्माकी तीन अवस्थाएं होती हैं बहिरात्मा, मन्तरात्मा और परमात्मा । उनमेंसे जब तक प्रत्येक संसारी जोवकी अन्धेतन पूदगल-पिंडरूप शरोरादि विनाशीक पदार्थों में मारम बुद्धि रहती है, या आरमा जबतक मिथ्याल्व-अवस्थामें रहता है । तब तक वह 'बहिरास्मा' कहलाता है। शरोरादिमें आत्मबद्धिका त्याग एवं मिथ्यात्वका विनाश होनेपर जब आत्मा सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब उसे 'अन्तरात्मा' कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरास्मा और जघन्य अन्तरात्मा । अन्तरंग-बहिरंग-परिग्रहका त्याग करने वाले, विषयकषायोंको जीतनेवाले और शुद्ध उपयोगमें लोन होने वाले तत्वज्ञामी योगीश्वर 'उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशवतका पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छठे गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं मोर तस्वश्रद्धाके साथ व्रतोंको न रखने वाले अविरतसम्यादष्टि जीव 'जनन्य अन्तरात्मा' रूपसे निद्दिष्ट हैं। ___ आत्मगुणोंके घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार धातियाकर्मोका नाश करके आल्माकी अनन्त चतुष्टयरूप शक्तियोंको पूर्ण विकसित करनेवाले 'परमात्मा' कहलाते हैं। अथवा आस्माकी परम विशुद्ध अवस्थाको 'परमात्मा' कहते हैं। यदि कोई कहे कि अभव्योंमें तो एक बहिरामावस्था ही संभव है, फिर सर्व प्राणियों में आत्माके तीन भेद केसे बन सकते हैं ? यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभव्य जीवोंमें भो अन्तरात्मावस्था और परमात्मावस्था शक्तिरूपसे जरूर है, परन्तु उक्त दोनों अवस्थाओंके व्यक्त होनेकी उनमें योग्यता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो अभव्यों में केवल कानावरणीय कर्मका बन्य व्यर्थ ठहरेगा । इसलिये पाहे निकट भव्य हो, दूरान्दुर भव्य