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समाजितंत्र
यदि कोई कहे कि पुत्र, स्त्री आदिके साथ वचनव्यवहार और शरीरव्यवहार करते हुए तो सुख प्रतीत होता है, फिर उस व्यवहारका त्याग करना कैसे युक्तियुक्त कहा जा सकता है ? उसका समाधान करते हुए कहते हैं---
अन्वयार्थ - ( देहात्मदृष्टीना) शरीरमें आक्रदृष्टि रखने वाले मिथ्यादृष्टि बहिरात्माओं को (जगत्) यह स्त्री-पुत्र मित्रादिका समूहरूप संसार ( विश्वास्य) विश्वास के योग्य (च) और ( रम्यं एव) रमणीय ही मालूम पड़ता है । परन्तु ( स्वात्मनि एव आत्मदृष्टीनां ) अपने आत्मामें ही आत्मदृष्टि रखने वाले सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माओंको ( क्व विश्वासः ) इन स्त्रीपुत्रादि परपदार्थों में कहाँ विश्वास हो सकता है (बा) और (क्व रतिः) कहाँ आसक्ति हो सकती है ? कहीं भी नहीं ।
भावार्थ - जब तक अपने परमानन्दमय चैतन्य स्वरूपका बोध न होकर इन संसारी जीवोंकी देहमें आत्मबुद्धि बनी रहती है तब तक इन्हें यह स्त्री-पुत्रादिका समूह अपनेको आत्मस्वरूपसे वंचित रखनेवालां ठग समूह प्रतीत नहीं होता, किन्तु विश्वसनीय, रमणीय और उपकारी जान पड़ता है । परन्तु जिन्हें आत्माका परिज्ञान होकर अपने आत्मामें ही आत्मबुद्धि उत्पन्न हो जाती है उनकी दशा इनसे विपरीत होती है-वे इन स्त्रीपुत्रादिको “आत्मरूपके चोर चपल अति दुर्गति-पत्य साई " समझने लगते हैं- किसीको भी अपना आत्मसमर्पण नहीं करते और न किसी में आसक्त ही होते हैं ॥ ४९ ॥
नत्येवमाद्दारादावप्यन्तरात्मनः कथं प्रवृत्तिः स्यादित्या
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेश्चिरम् । कुर्याववशा रिकचिह्नाक्कायाभ्यामंतरवरः
॥५०॥
टीका — चिरं बहुतरं कालं बुद्धौ स धारयेत् । किं तत् ? कम् । कथम्भूतम् ? परमन्यत् । कस्मात् ? आत्मज्ञानातू । आत्मज्ञानलक्षणमेव कार्य बुद्धी चिरं धारमेदित्यर्थः परमपि किचिद् भोजनव्याख्यानादिकं वाक्कायाम्यां कुर्यात् । कस्मात् ? अर्थात् स्वपरोपकारलक्षणत्र योजनवशात् । किविशिष्टः ? बतत्परसदनासक्तः ॥ ५०॥
यदि ऐसा है तो फिर अन्तरात्माकी भोजनादिके ग्रहण में प्रवृत्ति कैसे हो सकती हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ —– अन्तरात्माको चाहिये कि वह (आत्मज्ञानात्परं) आत्मज्ञानसे भिन्न दूसरे ( कार्य ) कार्यको ( चिरं ) अधिक समय तक ( बुद्धी )