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समापितंत्र
इदानीं मूडात्मनोऽन्तरात्मनश्च त्यागोपाषानविषयं प्रदर्शयन्नाहत्यागावाने बहिर्मूहः करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नारसहिरुपादान न स्यागो निष्ठितात्मनः ॥४७॥ टोका-मूहः बहिरात्मा त्यागादाने करोति । पव ? पहिबाहो हि वस्तुनि वेषोदयादभिलाषाभावान्मळाल्मा त्यागं करोति । रागोवयात्तत्राभिलाषोत्यसेरुपादानमिति । आत्मविस अन्तरात्मा पुनरध्यात्म स्वात्मरूप एव त्यागादाने करोति । तत्र हि त्यागो रागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा । स्वीकारश्चिदानन्दादेः । वस्तु निष्ठितात्मा कृत्यकृत्यात्मा तस्य अन्तर्बहिर्वा नोपावाम तथा म त्यागेऽन्तर्वहिर्वा ॥४७॥
अब बहिरात्मा और अन्तरास्माके ल्याग ग्रहण विषयको स्पष्ट करते हुए कहते हैं___ सम्वयार्थ-( मुहः) मूर्ख बहिरात्मा (बहिः ) बाह्य पदायाँका ( त्यागादाने करोति ) त्याग और ग्रहण करता है अर्थात् द्वेषके उदयसे जिनको अनिष्ट समझता है उनको छोड़ देता है और रागके उदयसे जिन्हें इष्ट समझता है उनको ग्रहण कर लेता है तथा ( आत्मवित् ) आरमाके स्वरूपका ज्ञाता अन्तरात्मा ( अध्यात्म त्यागादाने करोति) अन्तरंग राग-द्वेषका त्याग करता है और अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप निजभावोंका ग्रहण करता है। परन्तु (निष्ठतात्मनः) शुद्ध स्वरूपमें स्थित जो कृतकृत्य परमात्मा है उसके (अन्तः बहि) अंतरंग और बहिरंग किसी भी पदार्थका ( न त्यागः ) न तो त्याग होता है और ( न उपादानं ) न ग्रहण होता है।
भावार्थ-बहिरात्मा जीव मोहोदयसे जिन बाह्य पदार्थोंमें इष्टअनिष्टको कल्पना करता है उन्हीमें त्याग और ग्रहणकी क्रिया किया करता है। अन्तरात्मा वस्तुस्थितिका जानने वाला होकर वैसा नहीं करता-वह बाह्य पदार्थोसे अपनी चित्तवृत्तिको हटाकर अन्तरंगमें हो त्याग-ग्रहणकी प्रवृत्ति किया करता है-रागादि कषाय भावोंको छोडता है और अपने शुद्ध चैतन्यरूपको अपनाता है। परन्तु परमात्माके कृतकल्य हो जानेके कारण, बाह्य हो या अंतरंग, किसी भी विषयमें स्थान और ग्रहणकी प्रवृत्ति नहीं होती। वे तो अपने सुख स्वरूपमें सदा पिर रहते हैं ।। ४७ ।।