Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 83
________________ समाषितंत्र पुष्प दोनों (यः) जो विनाश है और वही ( मोक्षः ) मोक्ष है ( ततः ) इसलिये ( मोक्षार्थी ) मोक्षके इच्छुक भव्य पुरुषको चाहिये कि ( अन्नतानि इव ) अव्रतोंकी तरह ( व्रतानि अपि ) व्रतोंको भी ( त्यजेत् ) छोड़ देवे । भावार्थ - मोक्षार्थी पुरुषको मोक्षप्राप्तिके मार्ग में जिस प्रकार पंच अद्रत विघ्नस्वरूप है उसी प्रकार पाँच व्रत भी बाधक हैं, क्योंकि लोहेकी बेड़ी जिस प्रकार बन्धकारक है उसी प्रकार होने की बेड़ी भी बंधकारक है । दोनों प्रकारकी बेड़ियों का अभाव होनेपर जिस प्रकार लोकव्यवहारमें मुक्ति ( आजादी }) समझी जाती है उसी प्रकार परमार्थ में भी व्रत और अत दोनोंके अभाव से मुक्ति मानी गई है। अतः मुमुक्षुको अव्रतोंकी तरह व्रतोंकी भी छोड़ देना चाहिये ॥ ८३ ॥ 1 कथं तानि त्यजेदिति तेषां त्यागक्रमं दर्शयन्नाहअव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ॥ टीका - अग्रतानि हिंसादीनि प्रथमतः परित्यज्य तेषु परिनिष्ठितो भवेत् । पश्चात्तान्यपि त्यजेत् । किं कृत्वा ? सम्प्राप्य । किं तत् ? परमं पर्व परमवीत रागतालक्षणं क्षीणकषायगुणस्थानं । कस्य तत्पदं ? बात्मनः ।। ८४ ।। अब उनके छोड़नेका कम बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( अव्रतानि ) हिसादिक पंच अव्रतोंको ( परित्यज्य ) छोड़ करके ( व्रतेषु ) अहिमादिक व्रतोंमें (परिनिष्ठितः ) निष्ठावान् रहे अर्थात् उनका दृढ़ता के साथ पालन करे, बादको ( आत्मनः ) आत्माके ( परमं पदं ) रागद्वेषादिरहित परम वीतराग- पदको ( प्राप्य ) प्राप्त करके ( तानि अपि ) उन व्रतोंको भी ( त्यजेत् ) छोड़ देवे । 1 भावार्थ - प्रथम तो हिमादिक पंच पापरूप अशुभ प्रवृत्तिको छोड़कर अहिंसादिक व्रलोके अनुष्ठानरूप शुभ प्रवृत्ति करनी चाहिये । साथ ही अपना लक्ष शुद्धोपयोगकी ओर ही रखना चाहिये। जब आत्माके परमपदरूप शुद्धपयोगकी - परमवीतरागतामय क्षीणकषायनामक गुणस्थान की— सम्प्राप्ति हो जाये तब उन व्रतोंको भी छोड़ देना चाहिये 1 लेकिन जब तक वीतराग दक्षा न हो जावे तबतक व्रतोंका अबलम्बन रखना चाहिये, जिससे अशुभको ओर प्रवृत्ति न हो सके ||८४||

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