________________
समाधितंत्र
और बेषके विकल्पसे मुक्ति होती है ऐमा ( समयाग्रहः ) आगम-संबंधी आग्रह है...बाह्मण आदि जातिमें उत्पन्न होकर अमुक वेष धारण करनेसे ही मुक्ति होती है ऐमा आगमानुवन्धि हठ है ( ते अपि ) वे पुरुष भी ( आत्मनः) आत्मा ( परम "दं परमपदको (न प्राप्नुन्त्येव ) प्राप्त नहीं कर सकते हैं-संसारसे सूक्त नहीं हो सकते हैं। ____भावार्थ-जिनका एसा आग्रह है कि अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा आगममें कहा है, वे भी मुक्तिको प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि जाति और लिंग दोनों ही जब देहाश्रित हैं और देह ही आत्माका संसार है तब संसारका आग्रह रखने वाले उसे कैसे छूट सकते हैं ?।।८९||
तत्पधप्राप्त्यर्थ जात्मादिविशिष्टे वारोरे निर्ममत्व सिद्धयर्थ भीगेम्यो घ्यावृत्यापि पुनर्मोहवशाच्छरीर एवानुबन्ध प्रकुर्वन्तोत्याह
यत्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदधाप्तये । प्रोति तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिनः ॥१०॥
टोका-यस्य शरीरस्य त्यागाय गिमवाय भोगेभ्यः स्रग्सनितादियो निवर्तन् । तथा यववाप्तये यस्य परमवीतरागत्वस्यावाप्सय प्राप्तिनिमित्त भोगेम्यो निवर्तन्ते । प्रीतिमनुबन्धं सत्रव शरीरे आबद्ध एव कुर्वन्ति द्वेषं पुनरम्यत्र परमवीतरागत्वे । के ते ? मोहिनो मोड्वन्तः ॥ ९० ॥
उस परमपदकी प्राप्तिके लिये ब्राह्मणादिजातिविशिष्ट शरीरमें निर्ममत्वको मिद्ध करनेके लिये भोगों को छोड़ देनेपर भी अमानी जीव मोहके वश होकर शरीरमें ही अनुराग करने लग जाते हैं, ऐसा कहते
अन्वयार्थ-[ यत्यागाय ] जिस शरीरके त्यागके लिये---उससे ममत्व दूर करनेके लिये-और ( यअवाप्तये ) जिस परम वीतराग पदको प्राप्त करने के लिये [ भोगेभ्यः ] इन्द्रियोंके भोगोंसे (निवर्तन्त ) निवृत्त होते हैं अर्थात् उनका त्याग करते हैं ( तत्रैव ) उसी शरीर और इन्द्रियोंके विषयोंमें ( मोहिनः ) मोहो जीव (प्रोति कुर्वन्ति ) प्रोति करते हैं और ( अन्यत्र ) बीत रामता आदिके साधनोंमें ( वेषं कुर्वन्ति ) द्वेष करते हैं।
भावार्थ--मोहको बड़ी ही विचित्र लीला है। जिस पारीरसे ममत्व हटानेके लिये भागोंसे निवृत्ति धारण की जाती है. संयम ग्रहण किया