________________
|
AD
समाधितंत्र शानभावनाके साथ कष्ट-सहनका अभ्यास होना चाहिये, जिससे उपार्जन किया हुआ ज्ञान नष्ट न होने पावे ॥ १०२ ।।।
ननु पद्यात्मा शरीरात्सर्वथा भिन्नस्तदा कथमात्मनि चलति नियमेन तल्चालेत तिष्ठति नियमेन तत् तिष्ठेदिति वदन्तं प्रत्याह
प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रतितात् ।
बायोः दणि नाते सहेतु कर्मसु ॥१०॥ टीका-आल: सम्बन्धिनः प्रपत्लावायुः शरीरे समुच्चक्षति कथम्भूतात् प्रयत्नात् ? इच्छावप्रतितात् रागद्वेषाभ्यां जनितात् । सत्र समुच्चलिताश्च पायो: शरीरयंत्राणि शरीराण्येव यंत्राणि शरीरयंत्राणि । किं पुनः शरीराणा यंत्रः -साघम्यं यस्तानि यन्त्राणीत्युच्यन्ते ? इति चेत् उच्यते--यया यंत्राणि काष्ठादिविनिर्मितसिंहव्याघ्रादीनि स्वसाध्यविविधक्रियानां परप्रेरतानि प्रवर्तन्ते तथा पारीराण्ययीत्युभयोस्तुल्यता। तानि शरीरयंत्राणि वायोः सकाशाद्वर्तन्ते । के ? कर्मसु क्रियासु कथम्भूतेषु ? स्वे स्वसाध्यैषु ॥ १०३ ॥
यदि आत्मा शरोरसे सर्वथा भिन्न है तो फिर आत्माके ठहरने पर शरीर कैसे ठहरता है ? ऐसा पूछनेवालेके प्रति कहते हैं
अदायर्य---( आत्मनः ) आत्माके ( इच्छाद्वेषप्रवर्तितात् प्रयत्नात् ) और द्वेषकी प्रवृत्तिसे होनेवाले प्रयत्नसे ( वायुः ) वायु उत्पन्न होती है. वायुका संचार होता है ( बायोः) वायुके संचारसे ( शरीरयंत्राणि ) शरीररूपी यंत्र ( स्वेषु कर्मसु ) अपने-अपने कार्य करनेमें ( वर्तन्ते) प्रवृत्त होते हैं।
भावार्थ-पूर्वबद्ध कर्मोंके उदयसे आस्मामें राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, राग-द्वेषकी उत्पत्तिसे मन-वचन-कायको क्रियारूप जो प्रयल उत्पन्न होता है, उससे आत्माके प्रदेश चंचल होते हैं, आत्म-प्रदेशोंकी चंचलतासे शरीरके भीतरको वायु चलती है और उस वायुके चलनेसे शरीररूपी यंत्र अपना अपना कार्य करनेमें प्रवृत्त होते हैं । यदि कोई कहे कि शरीरोंको यंत्रों के साथ क्या कोई समान-धर्मता है जिसके कारण उन्हें यंत्र कहा जाता है तो इसके उत्तरमें इतना ही जान लेना चाहिये कि काष्ठादिके बनाये हुए हाथी, घोड़े आदिरूप कलदार खिलौने जिस प्रकार इसरोंकी प्रेरणाको पाकर हिलने-चलने लग जाते हैं अर्थात् अपनेसे किये जाने योग्य नाना प्रकारकी क्रियाओंमें प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार शरीरके अंग-उपांग भो वायुको प्रेरणासे अपने योग्य कमौके करनेमें प्रवृत्त होते हैं। दोनों ही इस विषयमें समान हैं ॥ १०३ ॥