Book Title: Samadhitantram
Author(s): Devnandi Maharaj, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्सल्यरत्नाकर आचार्यश्री विमलसागरजी की पंचम पुण्यतिथि के पावन अवसर पर श्रीमद् देवनन्द्यपरनाम-पूज्यपादाचार्य विरचितम् समाधितंत्रम [ आचार्य प्रभाचन्द्र कृत-संस्कृत-टीका सहितम्] सम्पादक पं० जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अनुवादक पं० परमानन्द शास्त्री भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि : एक परिचय • डॉ० कमलेश कुमार जैन 'चोधरी* निनन्थ परम्परामें ही नहीं, अपितु भारतीय परम्परामें जो लब्धप्रतिष्ठ शास्त्रकार हुए हैं, उनमें आचार्य पूज्यपाद देवनंदिका नाम प्रमुख रूपसे लिया जाता है | वस्तुतः 'पूज्यपाद' यह एक आदर और बहुमानको दर्शाने वाला शब्द है। क्योंकि अनेक शास्त्रकारों ने किसी अपने पूर्वाचार्यका नाम स्मरण करते समय या उनके वाफ्योंको उद्धत करते समय 'पूज्यपाद' शब्दका प्रयोग किया है। अतएव 'पूज्यपाद' यह एक उपाधि है, जो कि विद्वरजगत्में देवनंदि पूज्यपाद स्वामीके लिए रूढ़ हो गया है। इनका मूल नाम देवनंदि ही है । __ आचार्य देवनंदिके साहित्य सृजनको देखकर निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि वे एक प्रतिभाशाली विद्वान हैं, एक महान् कवि हैं, प्रसिद्ध वैयाकरण है, प्रखर दार्शनिक हैं और गहन अध्यात्मवेता है । इनके द्वारा रचिरा साहित्यका निधन्य परम्परर दिनाबर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समान रूपसे प्रभाव दिखाई देता है। उनके उत्तरवर्ती लगभग सभी साहित्यकारों एवं इतिहास मर्मज्ञों ने इनकी महत्ता, विद्वत्ता और बहुमताको स्वीकार किया है। और अपनी श्रद्धा के पुष्प उनके चरणों में समर्पित किये हैं। जिस प्रकार इन्होंने अपनी अनुपम रचनाओं द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाशन किया है, उसी प्रकार शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) पर भी अपनी कृतियां साहित्य जगत्को दी हैं। यह भी माना जाता है कि उन्होंने शरीरशास्त्र जैसे विषय पर भी अपनी लेखनी चलायी थी, दूसरे शब्दोंमें, वैद्यकशास्त्रका प्रणयन किया था। जिससे उनके लोकोपयोगी साहित्य निर्माण एवं लोक कल्याणकी भावनाका स्पष्ट संकेत मिलता है। कविके रूपमें उन्होंने अध्यात्म, आधार एवं नीतिका प्रतिपादन किया है। आजके संघर्षमय एवं तनावपूर्ण जीवनमें उनके द्वारा लिने गये 'समाधितंत्रम्' ( समाधितन्त्र) और इष्टोपदेशम् (इष्टोपदेश ) जैसे अध्यात्म-प्रधान अनुपम शास्त्र मानव मात्रको पथ प्रदर्शनका कार्य करते हैं विशेषतः समाधितंत्र में देवनंदि पूज्यपादके योगीस्वरूपके दर्शन होते हैं। उनका यह यौगिक स्वरूप तीर्थंकर महावीरकी परम्परासे सीधा जुड़ता है। + शोष-अध्येता--पी० एल• इंस्टीट्धट बाफ इकोलाजी, दिल्ली Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिक जीवन परिचय पूज्यपाद देवनन्दि का जीवन परिचय चन्द्रय्य कविके 'पूज्यपादचरिते' और देवचन्द्र के 'राजावलिक' नामक प्रन्योंमें मिलता है। श्रवणबेहगोलाके शिलालेखोंमें भी इनके नामोंके सम्बन्धमें उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनका मूल नाम देवनंदि था, किन्तु बुद्धिकी महत्ताके कारण इन्हें जिमेन्द्रबुद्धि कहा गया और देवों द्वारा पूजित होनेसे 'पूज्यपाद' कहलाये । इनके पिताका नाम माधवभट्र था और माताका नाम श्रीदेवी बतलाया गया है। ये कर्नाटक के 'कोले' नामक ग्रामके निवासी थे और ब्राह्मण कुलमें जन्मे थे । बादमें उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी । पूज्यपादके देवनन्दि समयके सम्बन्ध विशेष विवाद नहीं है । इनके नामका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे प्राप्त होने लगता है। इन्होंने प्राचार्य उमास्वामी कृत 'तत्वार्यसूत्रम्' पर 'सर्वार्थसिद्धिः' नामक टीका लिखी है जो स्वतंत्र व्याख्या ग्रन्थ-सी प्रतीत होती है। और दिगम्बर परम्पराको सम्भवतः प्रथम दीका है। भट्ट अकलंकदेवने अपने तत्वार्यवात्तिक' ( राजवातिक ) में सर्वार्थसिद्धिके अनेकों वाक्योंको वार्तिकका रूप दिया है । और शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टि के लिए इनके जैनेन्द्र-व्याकरणके सूत्रोंको प्रमाण रूपमें उपस्थित किया है । अतः पूज्यपाद देवनन्दि अकलंकदेवके पूर्ववर्ती हैं । अनेक ऊहापोहोंके पश्चात् विद्वानों ने देवनन्दि पूज्यपादका समय ई. सन् की छठी शताब्दी सिद्ध किया है। साहित्य पूज्यपादकी देवनन्दि निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है-- १. जन्माभिषेक, २. दशक्ति , ३. तत्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि), ४. समाधिसत्रम्, ५. इष्टोपदेश, ६. जैनेन्द्र-व्याकरणम्, ७. सिविधियस्तोत्रम् । १. जन्माभिवेक श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें पूज्यपादकी कृतियोंमें जन्माभिषेकका भी निर्देश आया है' । वर्तमानमें एक अन्माभिषेक छपा हुआ है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है। इसे पूज्यपाद देवनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४०, ५० ५५, पब-११ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभाषितम २. बशभक्ति___कान्यकी दृष्टिसे सभी भक्तियां बहुत ही सरस और गम्भीर हैं । इन भक्तियोंके सम्बन्धमें टीकाकार पण्डित प्रभाचन्द्रने प्राकृत सिद्धिभक्तिके अन्तमें सूचना दी है कि संस्कृतिको सारी भक्तियाँ पूज्यपादकृत हैं और प्राकृत भाषाकी भक्तियाँ आचार्य कुन्दकुन्दकी बनायी हुई हैं। ३. तत्वार्थवृत्ति-(सामिति) यह पूज्यपादकी महनीय कृति है। इस तत्वार्थवृत्तिको सर्वार्थसिद्धि भी कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि उमास्वामीकृत तस्वार्थ सूत्र पर लिखी गयी गामय रचना है। यह मध्यम परिमाणकी विशद वृत्ति है। इसमें सूत्रानुसारो सिद्धान्तके प्रतिपादनके साथ-साथ दार्शनिक विवेचन भी है। तत्त्वार्थसूत्रकी वृत्ति होते हुए भी इस प्रन्थमें अनेक मौलिक विशेषताएं दिखाई देती हैं। ४. समाधिसंत्र इसमें कुल १०५ श्लोक हैं । इसका दूसरा नाम समाधिशतक भी है। इसका विषय अध्यात्म है। ग्रन्थका मूल नाम समाधिसंत्रम् है, इसको सूचना स्वयं लेखकने इसके अन्तिम श्लोकमें दी है। वस्तुतः यह अन्य पूज्यपादको स्वतंत्र रचना है। ५. इष्टोपदेशे इसमें कुल ५१ श्लोक हैं | इसका विषय स्वरूप सम्बोधन है । इसकी शैली सरल और प्रवाहमय है । अन्यका नाम इष्टोपदेश है जो आपाय पूज्यपादने स्वयं अन्यके अन्तिम पद्यमें बताया है। इस पथके अनेक पच कुन्दकुन्द कृत समयपाहुद्धके रूपान्तर या भावान्तर प्रतीत होते हैं । इस अन्यके अध्ययनसे आस्म-शक्तिका विकास होता है। साधकके लिए आत्म-साधनामें इससे बहुत सहायता मिलती है। ६. जमिन्द्रव्याकरणम्-- यह आचार्य पूज्यपादको अन्यतम मौलिक कृति है। प्राचीन कालसे यह ग्रंथ इसी नामसे जाना जाता रहा है। जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठ उपलब्ध हैं-एकमें तीन हजार सूत्र हैं और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ। स्व. श्रद्धेय पंडित नाथूरामजी प्रेमीने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ यही है जिस पर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखी है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिसत्र यह पाँच अध्यायों में विभक्त है। सूत्रसंख्या लगभग ३००० है। इस व्याकरणकी विशेषता है--संज्ञा लाघव । पाणिनीय व्याकरणमें जिन संज्ञाओंके लिए कई अक्षरोंके संकेत कल्पित किये गये हैं उनके लिए इसमें लापवसे काम लिया गया है। ७. सिद्धप्रियस्तोत्रम् इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं। जिनमें चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है । रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है। ८. जेनेन्द्र और शमावतार न्यास--- ___ एक शिलालेखमें इस बातका उल्लेख है कि पूज्यपादने एक तो अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र नामक न्यास लिखा था और दूसरा पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक न्यास लिखा था। ये दोनों ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। ९. शान्त्यष्टकम् इनके एक 'शान्त्यष्टक' ग्रन्थका उल्लेख मिलता है। एक शान्त्यष्टक क्रियाकलापमें भी संग्रहीत है। इस पर पं० प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका है। परन्तु यह निर्णय करना कठिन है कि प्राप्त शान्त्यष्टक किस आचार्यका है। १०. सारसंग्रह धवला टोकाके एक उल्लेखसे ज्ञात होता है कि पूज्यपादने एक 'सारसंग्रह' नामक ग्रन्थका प्रणयन किया था। वहाँ लिखा है 'सारसंग्रहेभ्युक्तं पूज्यपादे:-अनन्सपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति ।' किसी चिकित्सा शास्त्रको भी उन्होंने रचना की थी जो वैद्यक विषय पर अनुपम प्रत्थ था । ज्ञानार्णवके एक श्लोक में आचार्य शुभचन्द्रने इसका उल्लेख किया है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि हैं पूज्यपाद देवनंदि एक महान विद्वान् हो नहीं है, अपितु एक उत्कृष्ट संयमी साधक और योगी भी हैं। उनके द्वारा रचा गया साहित्य उनकी अमरगाथा गाता रहेगा। भारतीय वाङ्मयमें उनका यह महत्त्वपूर्ण अवदान है । उनका यह योगदान साहि स्थिक दृष्टि से ही नहीं है, आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय पशोक पृष्ठ सिवात्मा और सकलात्माको नमस्काररूप मंगलाचरण १.२ ३ विषय तथा आघारको स्पष्ट करते हुए ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा ३ मात्माके बहिराल्मा, अन्तरात्मा और परमारमा ऐसे तीन भेद और सनकी हेयोपादेयता बहिरात्मादिका जुदा-जुदा लक्षण परमात्माके वाचक कुछ नाम बहिरात्माके शरीरमें कारमय नटि होने का कारण पतुर्गति-सम्बन्धी शरीरभेदसे जीवभेद की मान्यता बहिरात्माकी अन्य शरीर-विषयक मान्यता शरीरमें आत्मत्व-बुद्धिका परिणाम बहिरात्मा और अन्तराल्माका कर्तम्यमेव शरीरमें धात्मस्वबुद्धिपर खेद शरीरसे धात्मत्वबुशि छोड़ने और अन्तरात्मा होने की प्रेरणा १५ मन्तरात्माका अपनी पूर्व अवस्थापर खेवप्रकाश मात्मज्ञानका उपाय अन्तरंग और बाह्यवचन-प्रवृत्तिके त्यागका उपाय अन्तर्विकल्पोंके त्यागका प्रकार मात्माका निर्विकल्प स्वरूप बात्मज्ञानसे पूर्वकी और बादको पेन्टाका विचार २१.२२ लिंग-संख्यादि विषयक भ्रमनिवारणात्मक विचार २५ आत्मस्वरूप-विचार मात्मानुभवीका शत्रु-मित्र विधार ५.२६ २७-२८ परमात्मपरकी प्राप्तिका उपाय २७ २९ परमात्मपरकी भावनाका फल २८ भय और भयके समान ३१ खात्माकी प्राप्तिका उपाय ३०,३१,३२ ३१-३३ आत्मज्ञानके बिना तपश्चरण व्यर्थ-मुक्ति नहीं हो सकती मात्मशानको तपश्चरणसे खेद नहीं होता ३४ ३५ खेद करनेवाला आत्मज्ञानी नहीं-निश्चल प्राणी ही आत्मदर्शी होता है आत्मतत्व और आत्मत्रान्ति स्वरूप और उसमें त्याग-प्राण ३६ ३३ ३४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापित ३७० भनके विक्षिप्त तथा विक्षिप्त होने का कारण पितके विक्षिप्त-मविक्षिप्त होमेका वास्तविक फल अपमानादि तवा रागद्वेषाविको दूर करणेका उपाय राग बार देष विषय तथा विपक्ष का प्रवर्धन भ्रमात्मक प्रेमके नष्ट होनेका फल तपसे गहिरास्मा क्या चाहता है और सन्तरात्मा क्या बहिरात्मा और पन्तरात्मा कर्म बंधन का कत्र्ता कौन अहिरामा बोर अन्तरारमाका विचारमेष अन्तरात्माकी देहादिमें अभेदरूपकी भांति क्यों होती है अन्तरास्मा उस प्रान्तिको कैसे पोहे बहिरात्मा मौर अन्तरात्माके त्याग ग्रहण का स्पष्ट विवेपन ४७ अन्तरास्माके अन्तरंग त्याग-प्रहम का प्रकार स्त्री-पुत्रादिक साप पनादि-व्यवहारमें किमको सुन प्रतीत होता है और किनको नहीं मन्तरात्माकी भोजनादिके ग्रहपमें प्रवृति हो सकती है ५० बनासक्त मन्तरारमा आरमकाम को बुद्धिमें से धारण करे ५१ बियोंको रोककर बारमानुभव करने वाले को दुःख सुख से होता है नामस्वरूप की मापना किस सहकरनी चाहिये ५३ बचन बार शरीरमें ब्रांत सथा मनात मनुष्यका पबहार ५४ बाह विषयकी अनुपकारता और बबानीकी आसक्ति। मिथ्यावफे दश बहिरात्माको कसी पशा होती है स्वशरीर मौर परशरीरको कोसे अवलोकन करना चाहिये। मानीणीप मालमत्वका स्वयं अनुभव कर महात्मामोंको क्यों नहीं बताते, जिससे वे भी पात्मज्ञानी र ५८,५९ ५४-५५ महात्मामो मामगोप न होनेका कारण बान्तरात्माके धारीराषिके अलंकृत करने में सदासीमता ६१ ५७ संसार कब तक रहता है और मुक्ति की प्राप्ति कब होती है ६२ मन्तरात्माके शरीरके धनादिरूप होने पर बात्माको धनाषिरूप मानना ६३,६४,६५,६६ ५८-५९ बारात्माकी मुक्ति-योग्यता Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापन विषय शरीराषिसे भिन्न बास्माको अनुभव करनेका फल भूजन किसको बारमा मानते है मात्मस्वरूपके जाननेके इलाकोंको पारीरसे भिन्न मारमभावना करनेका उपदेश छात्माकी एकाग्र भावना का फल पित्तकी स्थिरताके लिए कोकसंसर्गका त्याग क्या मनुष्योंका संसर्ग छोड़कर जंगलमें निवास करना चाहिए ७३ बात्मवर्षी और अनात्मवी होनेका फल पास्तवमें भारला ही वात्माका गुरु है। बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा मरणके सन्निकट थाने पर क्या करता है ध्यवारमें अमादरवात से नानाजोगतो आजोबा मन्य नहीं जो मात्माके विषयमें जामता है वही मुक्तिको प्राप्त करता है ५९ मेक-विज्ञानी अन्तरात्माको यह जगत योगको प्रारम और निष्पन्न अस्पायोंमें कैसा प्रतीत होता है मात्माकी भिन्न भावनाके बिमा भरपेट उपवेश सुमने-सुनानेसे __मुक्ति नहीं होती भेष-शामकी भावनामें प्रवृत्त हुए मन्तरास्माका कर्तव्य तोकी तह प्रतोंका विकल्प भी त्याज्य है वयोंके विकल्पको छोड़नेका क्रम अन्सर्जल्पसे युक्त उत्प्रेक्षा-जाल दुःखका मूल कारण है, उसके माणसे परम पदकी प्राप्ति और नाश करने का क्रम प्रतविकल्पकी तरह हिंगका विकल्प भी मुक्ति का कारण नहीं जातिका आग्रह भी मुक्तिका कारण नहीं है माझग बादि जाति-विशिष्ट मामय ही बीमित होकर मुक्ति पा सकता है ऐसा जिनके बागमानुबन्धी छ है ये भी परमपवको प्राप्त नहीं हो सकते ८९७७ मोही जीवोंक दृष्टि-विकारका परिणाम और दान-व्यापारका विपर्यास Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समाजितंत्र विषय संयोगकी ऐसी अवस्था में अन्तरात्मा क्या करता है बहिरात्मा और अन्तरात्माकी कौनसी दशा भ्रमरूप और कौन भ्रमरहित होती हूँ देहात्मदृष्टिका सकलशास्त्रपरिशान और जाग्रत रहता भो मुक्ति लिए निष्फल है सातात्माके सुप्तादि अवस्थाओं में भी स्वरूप संवेदन क्योंकर बना रहता हूँ चित्त कहाँ पर अनासक्त होता है मिन्नात्मस्वरूप ध्येयमें कीनताका फल अभिन्नात्माकी उपासनाका फल मिन्नाभिन्नस्वरूप आत्मभावनाका उपसंहार आत्मतत्त्वके विषयमें चार्वाक और सांख्यमतकी मान्यताओंका निरसन मरणरूप विनाशके हो जानेपर उतरकालमें आत्माका अस्तित्व कैसे बन सकता हूँ अनादि निधन आत्माको मुक्तिके लिए दुर्बर तपश्चरण द्वारा कष्ट उठाना व्यर्थ नहीं, नावश्यक है शरीरमात्मा सर्वथा भिन्न होने पर आत्माकी गति स्थितिसे शरीर को गतिस्थिति कैसे होती है शरीर-यंत्रोंकी आत्मामें आरोपना अनारोपना करके जड़fast जीव किस फलको प्राप्त होते हैं। ग्रन्थ का उपसंहार अन्तिम मंगलकामना श्लोक १२ १३ ९४ ९५ ९६ ९७ ९८ १९ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ पृष्ठ Co s ૮૨ ረ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८९ ९० ९१ ९२ ९२ ९४ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदेवनन्यपरनामपूज्यपादस्वामिविरचित समाधितंत्रम् श्रीप्रभाचन्द्र विनिर्मितसंस्कृतटीका सहितम् [भंगलाचरण] सिद्ध जिनेन्द्रममलाऽप्रतिमप्रबोधम् निर्वाणमार्गममल विबुधेन्द्रवन्धम् । संसारसागरसमुत्तरणप्रपोतं वक्ष्ये समाधिशतकं प्रणिपत्य वीरम् ।। १ ।। श्रीपूज्यपादस्वामी मुमुक्षुणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूप बोपदर्शयितुकामो मिर्षिमतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वन्नाह येनात्माऽयतात्मैव परत्वेनैव चापरम् । अक्षयानन्स बोषाय तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥ १ ॥ टीका-अत्र पूर्वार्द्धन मोक्षोपाय उत्तरार्बेन च मोलस्वरूपमुपदर्शितम् । सिवात्मने सिद्धपरमेष्ठिने सिद्धः सकलकर्मविप्रमुक्तः स चासावारमा प तस्मै नमः । येन किं कृतं ?। अबुद्ध यत ज्ञातः । कोऽसौ ? मात्मा कथं ? जानेव । असमर्थः येन सिखात्मनाश्त्रात्मैवाध्यात्मस्वेनाबुद्धयत न शरीरादिक कर्मापावितसुरनरनारकतिर्यगाविजीवपर्यायादिक वा। तथा परत्वे वापर अपर च शरीरादिकं कमजनितमनुष्यादिजीवपर्यापादिकं वा परत्वेनैवात्मनोमेदवानुषत् । तस्मै कथंभूताय ? मभयानन्तशेषाप अक्षयोऽविनवरोनन्तो देशकाशानवछिन्नसमस्तार्थपरिच्छेदको वा दोषी यस्य तस्मै । एवंविधभीषस्य चानन्तदर्शनसुखवीरविनाभावित्वसामयविनंतचतुष्टयरूपायेति गम्यते । लनु पेष्टदेवता विशेषस्य पञ्चपरमेष्ठिरूपत्वासदन सिवात्मा एवं कस्माद् अन्यकृता नमस्कारः कृत इति चेत् ग्रन्थस्य कर्तुयास्यातुः श्रोतुरमुष्ठातुरुप शिवस्वरूपप्राप्स्पर्धत्वात् । यो हि यत्प्राप्त्यर्षी स तं नमस्करोति या धनुर्वेवप्राप्त्यर्थी धनुर्वेद विदं नमस्करोति । सिद्धस्वरूप प्राप्त्यर्थी च समाधिशतकशास्त्रस्य कर्ता व्याख्याता श्रोता तदर्यानुष्ठाता चात्मविशेषस्तस्मासितारमानं नमस्करोतीति । सिझशन्वेनैव चाहंदादीनामपि ग्रहणम् । तेवामपि देवतः सिकस्वरूपोपेतत्वात् ॥ १ ।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिसंत्र [ मंगलाचरण! सकल विभाव अभावकर, किया आत्म कल्यान । परमानन्द-सुबोषमय, नम सिद्ध भगवान ॥१॥ आत्म सिद्धि के मार्गका, जिसमें सुभग विधान । उस समाषियुत तंत्रका, कह सुगम व्याख्यान ॥२॥ श्रीपूज्यपाद स्वामी मोक्षके इच्छुक भन्यजीवोंको मोक्षका उपाय और मोक्षके स्वरूपको दिखलानेकी इच्छासे शास्त्रको निर्विघ्न परिसमाप्ति आदि फलकी इच्छा करते हुए इष्टदेवता विशेष श्रीसिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करते हैं। अन्वयार्थ ( येन ) जिसके द्वारा ( आल्मा ) आत्मा (आत्मा एव) आत्मा रूपसे ही ( अबद्धयत ) जाना गया है (च) और ( अपरं) अन्यको-कर्मजनित मनुष्यादिपर्यायरूप पुद्गलको-(परत्वेन एव } पररूपसे ही ( अबुद्धयत ) जाना गया है ( तस्मै ) उस ( अक्षयानन्तबोधाय ) अविनाशी अनन्त ज्ञानस्वरूप ( सिद्धात्मने ) सिखात्माको ( नमः ) नमस्कार हो। भावार्थ-श्रीपूज्यपादस्वामीने इलोकके पूर्वार्द्ध में मोक्षका उपाय और उत्तरार्द्ध में मीक्षका स्वरूप बताया है तथा सिद्ध परमात्मारूप इष्टदेवताको नमस्कार किया है । यह जीव अनादिकालसे मोह-मदिराका पान कर आत्माके निज चैतन्य स्वरूपको भूल रहा है, अचेतन बिनाशीक परपदाथों में आत्मबुद्धि कर रहा है, तथा चिरकालीन मिथ्यात्वरूप विपरीताभिनिवेशके सम्बन्धसे उन परपदार्थोंको अपना हितकारक समझता है और वह आत्माके उपकारी ज्ञान देराम्यादिक पदार्थोको, जो कम. बंधनके छुड़ानेमें निर्मिसभूत हैं, दुःखदायी समझता है। जैसे पित्तज्वर वाले रोगीको मीठा दूध कड़वा मालम होता है, ठीक उसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीवको आत्माका उपकारक मोक्षका उपाय भी विपरीत जान पड़ता है । संसारके समस्त जीव सुख चाहते हैं, और दुःखसे डरते हैं तथा उससे टूटनेका उपाय भी करते हैं, परंतु उस उपायके विपरीत होनेसे चतुर्गतिरूप संसारके दुःखसे उन्मुक्त नहीं हो पाते हैं। वास्तवमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयकी एकता ही मोक्षकी प्राप्तिका परम उपाय है। इस रत्नत्रयकी परमप्रकर्षतासे हो कर्मोका दृढ़ बन्धन आत्मासे छूट जाता है और आत्मा अपने स्वरूपको प्राप्त कर लेता है । ग्रन्थकारने ऐसा हो आशप प्रकट किया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र जब यह आस्मा सुगुरुके उपदेशसे या तत्त्वनिर्णयरूप संस्कारसे आत्माके स्वरूपको विपरीत बनाने वाले दर्शनमोहनोयकमका उपशमादि कर सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उस समय आत्मा मेंसे विपरीताभिनिवेशके सम्बन्धसे होने वाली अचेतनपरपदों में आत्मकल्पनारूप बुद्धि दूर हो जाती है। तभी माक्षापयोगी प्रयोजनभूत जावादि सप्ततत्त्वोका यथार्थ श्रद्धान व परिज्ञान होता है, और परद्रव्योंस उदासीन भावरूप चारित्र हो जाता है। इसलिये कर्मबन्धन छटनेका अमोघ उपाय आत्माको आत्मरूप हो, तथा आत्मासे भिन्न कर्मजनित शरीरादि पर पदार्थीको पररूप हो जाननी या अनुनय करना है। पदामा यथार्थ प्रदान, शान और आचरणसे आत्मा कौके बन्धनसे छूट जाता है, यहो मोक्षकी प्राप्तिका उपाय है। झानावरणादिक अष्ट कर्मोसे रहित आत्माकी आत्यंतिक अन्तमें होने वाली-अवस्थाका नाम मोक्ष है। आत्माको यह अवस्था अत्यन्त शुद्ध और स्वाभाविक होती है-रागादिक औपाधिक भावोंसे रहित है । अथवा यों कहिये कि जीवकी यह अवस्था नित्य, निरंजन, निर्विकार, निराकुल एवं अबाधित सुखको लिये हुए शुद्ध चिद्रूपमय अवस्था है, जो कि सम्यक्त्वादि अनंत गुणोंका समुदाय है। इस अवस्थाको लिये हुए श्रीसिद्धपरमात्मा चरम शरीरसे किंचित् ऊन लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं। ___ग्रन्थकर्ता श्रीपूज्यपाद स्वामोने अविनाशो अनन्तज्ञानवाले सिद्धपरमात्माको नमस्कार किया है। इससे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताको शुद्धाल्माके प्राप्त करनेको उत्कट अभिलाषा थी। जो जिस गुणकी प्राप्तिका इच्छुक होता है वह उस गुणसे युक्त पुरुषको नमस्कार करता है । जैसे धनुर्विद्याके सीखनेका अभिलाषो धनुर्वेदीको नमस्कार करता है। वास्तवमें पूर्णता और कृतकृत्यताको दृष्टिसे परमदेवपना सिद्धोंमें ही है। इसीसे उक्त श्लोकमें अक्षय-अनन्त-ज्ञानादि-स्वरूप सिद्ध परमात्माको सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है। ___ अथोक्तप्रकारसिद्धस्वरूपस्य तस्त्राप्त्युपायस्य चोपदेष्टारं सकलात्मानमिष्टदेवताविशेष स्तोतुमाहअयन्ति यस्यावरतोऽपि भारती विभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः । शिवाय पाने सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ॥२॥ टीका-पाय भगक्तो जपति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते । काः ? भारती Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिसंग विभूतयः भारत्याः बाण्याः विभूतयो बोधितसर्वात्महितत्वाविसम्पदः । कथं भूतस्यापि जयन्नि ? अधरसोऽपि लाल्बोला पुग्यापारेण नमन मनुनारयतोऽपि । उक्तं च "यत्सत्महितं न वर्णसहितं न स्पषितोष्ठतयं, नो वांछाकलिप्तं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शान्तामर्ष विषः सम पशुगणराकणितं कर्णािभः. सन्तः सर्वविदः प्रणष्टदिपमः पायादपूर्व वचः ।। १ ।। अथवा भारतो च विभूतयश्च छपत्रमादय । पुनरपि कयम्भूतस्य ? तीतोऽप्यनीहितु हा वाञ्छा मोहनीसकर्मकार्य, भगवति च तत्कर्मणः प्रक्षयात्तस्या सद्भावानुपपत्तिरतोऽनीहितुरपि तत्करणेच्छारहितस्यापि, तीर्थकृतः संसारोत्तरणहेतुभतस्त्रात्तीर्घ भिव तीर्थमागमः तत्कृतवतः । किं नाम्ने तस्म? सकलात्मने शिवाय शिवं परमसौख्यं परमकल्याणं निर्वाणं बोच्यते तत्प्राप्ताय । पाने असिमषिकष्यादिभि सन्मार्गोपदेशकत्वेन च सकललोकाम्युचारकाय । सुगताम शोभनं गतं ज्ञानं यस्यासी सुगता, सुष्छु वा अपुनरावत्यं गतिं गतः सम्पूर्ण वा अनन्तचतुष्टयं गत. प्राप्त सुगतस्तस्मै । मिमवे केवलज्ञानेनाशेषवस्तुव्यायकाय । बिनाय अनेकभवगहनप्रापणहेतून् कर्मारातीन जयतीति जिनस्सस्मै । सकलात्मने सह कलया शरीरेण वतंत इति सकलः मचासावात्मा च तस्मै नमः ।। २ ।। ___ अब उक्त मोक्षस्वरूप और उसकी प्राप्तिके उपायका उपदेश करने वाले सकल परमात्माकी-घातिकम रहित जीवन्मुक्त आस्माकीस्तुति करते हुए आचार्य कहते हैं वावयार्थ- ( यस्य ) जिस ( अनीहितु अपि ) इच्छासे भी रहित ( ती कृतः) तीर्थकरकी ( अवदतः अपि) न बोलते हुए भी तालु ओष्ठ-आदिके द्वारा शब्दोंका उच्चारण न करते हए भी ( भारतीविभूतयः ) वाणीरूपी विभूतियाँ अथवा वाणी और छत्र यादिक विभूतिया ( जयन्ति ) जयको प्राप्त होती हैं ( तस्मै ) उस ( शिवाय) "शिवरूप परम कल्याण अथवा परम सौख्यमय ( धात्रे) विधाता अथवा ब्रह्मरूप-सम्मानके उपदेश द्वारा लोकके उद्धारक ( सुगताय ) सुगतरूप सद्बुद्धि एवं सद्गतिको प्राप्त ( विष्णवे ) विष्णुरूप केवलज्ञानके द्वारा १. शिथं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमझम । प्राप्तं मुक्तिमद येन स शिवः परिकीर्तितः ॥ -आप्तस्वरूप Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामित समस्त चराचर पदार्थों में व्याप्त होनेवाले' (जिनाय ) जिनरूप-संसारपरिभ्रमणके कारणभूत कर्मशत्रुओंको जीतने वाले (सकलात्मने) सकलात्माको सशरीर शुद्धारमा अर्थात् जीवन्मुक्त अरहंत परमात्माको ( नमः ) नमस्कार हो। भावार्थ-इस इलोकमें आचार्य महोदयने जैनधर्मके अनुसार सकल परमात्मा श्रीअरस्त भगवान्का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया है। अरहंत परमात्माका शरीर परमोदारिक है, दिव्य है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार धातियाकर्मोंके विनाशसे उन्हें अनन्त चतुष्टयरूप अंतरंग विभूतियाँ प्राप्त है, तथा समवसरणादि बाह्य विभूतियां भी प्राप्त हैं, परन्तु वे उन बाह्य विभूतियोंसे अलिप्त रहते हैं। मोहनीयकर्मका अभाव हो जानेसे इच्छाएँ अवशिष्ट नहीं रहती और इसलिए समवसरणमें बिना किसी इच्छाके तालु-ओष्ठ-आदिके व्यापारसे रहित अरहंत भगवान्की भव्य जीवोंका हित करनेवाली धर्मदेशना हवा करती है । समवसरण स्तोत्रमें भी कहा है कि___ 'दुःखरहित सर्वज्ञको वह अपूर्ववाणी हमारी रक्षा करे जो सबके लिये हित रूप है, वर्णरहित ( निरक्षरो) है-होठोंका हलन-चलन व्यापार जिसमें नहीं होता, जो किसी प्रकारकी वांछाको लिये हुए नहीं है, न किसी दोषसे मलिन है, जिसके उच्चारणमें स्वासका रुकना नहीं होता और जिसे क्रोधादिविनिर्मुक्तों-साधुसन्तोंके साथ सकर्ण पशुओंने भी सुना है।' इस इलोककी टीकामें सकलपरमात्मा श्रीअरहतके विशेषणोंका खुलासा किया गया है। और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि पातिया कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले, रागादि अष्टादश दोषोंसे रहित, परमवीतराग, सर्वश और हितोपदेशो अरहंत ही सच्चे शिव हैं, महादेव हैं, विषाता है, विष्णु हैं, सुगत हैं--अन्यमतावलम्बियोंने शिवादिका जैसा स्वरूप बताया है उससे वे वास्तविक शिव था अरहंत नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उस स्वरूपानुसार उनके राग, द्वेष और मोहादिक दोषोंका सदभाव पाया जाता है ॥२॥ १. शिवं हि प्रव्य पर्याय विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् । प्याप्त मानविषा येन स विष्णुव्यापको अगत् ॥ ३ ॥ २. रागवाक्यो पेन जिताः कर्म महाभटाः ।। कालपविनिमुक्त व निमः परिकीरितः ॥ २१ ॥ पाल Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र ननु-निकलेतररूपमात्मानं नत्वा भवान् कि करिष्यतीत्याहश्रुतेन लिगेन यथात्मशक्ति समाहितान्तः करणेन सम्यक् । समीक्ष्य केवल्पसुखस्पृहाणां विविक्तमारमानमयाभिषास्ये ॥३॥ दीका-अप हाटदेवतानमस्कारकरणानन्तरं । अभिषास्ये फर्शयस्यै । क ? विविक्तमात्माम कर्ममल रहित जीवस्वरूपं । कथमभिधास्ये ? ययात्मशक्ति आत्मशक्तेरनतिक्रमण । कि कृत्वा ? समीक्य तथाभूतमात्मानं सम्पग्ज्ञात्वा । केन ? भुतम--- "एगो मे सासओ आदा णाणदसणलालगो। सेसा में बाहिरा भाषा सर्व संजोगलक्षणा" ॥१॥ 'इत्याचागमेन । सभा लिन हेतुना । तथाहि-शरीरादिरात्मभिग्नोभिन्नलक्षणलक्षितत्त्वात् । यबोभिन्नलक्षणलक्षितत्त्वं तयो दो पथा जहानलयोः, भिन्नलक्षणलक्षितत्त्वं चात्मशरीरयोरिति । न घानयोभिन्नलक्षणलक्षितत्वमप्रसिद्धम् । आत्मनः उपयोगस्वरूपोपलक्षितस्थात्-शरीरादेस्तद्विपरीतत्त्वात् । समाहिलात फरकन समाहितमेकाग्रीभृतं तव तदन्तः करणं च मनस्तेन । सम्यक-समीक्य सम्यग्ज्ञात्वा अनुभू येत्यर्थः । केषां तथाभूतमात्मानमभिधास्ये? कैवल्पतुसत्यहाना कैवल्ये सकलकर्मरहितस्वे सति सुख तत्र स्पहा अभिलाषो येषां वस्ये विषयाप्रभवे या मुझे; कंवल्यसुखयोः स्पष्ठा येषाम् ॥३॥ अब ग्रंथकार ग्रन्थके प्रतिपाय विषयको बतलाते हुए कहते हैं--- भन्दया--( अथ ) परमात्माको नमस्कार करनेके अनंतर [ अहं ] मैं पूज्यपाद आचार्य ( विविक्तं मात्मान ) कर्ममल रहित आत्माके शुद्धस्वरूपको ( श्रुतेन ) शास्त्रके द्वारा (लिगेन ) अनुमान व हेतुके द्वारा { समाहितन्तःकरणेन ) एकाग्र मनके द्वारा ( सम्यक्समीक्ष्य ) अच्छी तरह अनुभव करके (केवल्य-सुखस्पहाणां) कैवल्यपद-विषयक अथवा निर्मल अतीन्द्रयसुखकी इच्छा रखने वालोंके लिये ( यथास्मशक्ति ) अपनी शक्तिके अनुसार ( अभिधास्ये) कहूँगा 1 भावार्थ-यहाँ पर उस शुद्धात्मस्वरूपके प्रतिपादनकी प्रतिज्ञा की गई है जिसे ग्रंथकारने शास्त्रज्ञानसे, अनुमानसे और अपने चित्तको एकाप्रतासे भले प्रकार जाना तथा अनुभव किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि यह ग्रन्थ उन भव्य पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा जाता है जिन्हें कोंके क्षयसे उत्पन्न होने वाले बाधा-रहित, निर्मल, अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त करनेको इच्छा है । वास्वखे-समयसारादि जेनागम ग्रन्थों Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभाषितंत्र से मालूम होता है कि आत्मा एक है, नित्य है, ज्ञानदर्शन-लक्षणवाला है (शाता-द्रष्टा है ) और शेष संयोग-लक्षण वाले समस्त पदार्थ मेरी आत्मासे बाह्य हैं-मैं उनका नहीं हूँ और न वे मेरे हैं । अनुमानसे जाना जाता है कि शरीर और आत्मा जुद-जुदे हैं। क्योंकि इन दोनोंका लक्षण भी भिन्न-भिन्न है। जिनका लक्षण भिन्न-भिन्न होता है वे सब भिन्न होते हैं, जैसे जल और आग । इस तरह आगम और अनुमानके सहयोगके साथ चित्तकी एकाग्रतापूर्वक आत्माका जो साक्षात् अनुभव होता है वह तीसरी चीज है। तीनों लापः रस: है. इस प्रथक रचनको प्रतिज्ञा की गई है ।। ३ ।। कतिभेदः पुनरात्मा भवति? येन विविक्तमाल्मानमिति वियोष उच्यते । तत्र कुतः कस्योपावानं कस्य वा त्यागः कर्तव्य इस्पाशक्याह 'बहिरन्तः परश्चेति निधारमा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाबहिस्त्यजेत् ।।४।। ___ौका-बहिर्बहिरात्मा, अन्तः अन्तरात्मा, परराच परमात्मा इति विषा आत्मा त्रिप्रकार मात्मा । क्व ? सविहिषु सकलप्राणिषु । ननु अभन्मेषु यहिरात्मन एव सम्भवात् कथं सर्वदेहिषु त्रिधात्मा स्यात् ? इत्यप्यनुपपन्न तत्रापि व्यरूपतया त्रिधात्मसद्भावोपपत्तेः कयं पुनस्तत्र पंचज्ञानावरणान्युपपद्यन्ते? केवलज्ञानाचाविर्भावसामग्री हि तर कदापि न भविष्यतीत्यभम्पत्वं, न पुनः तद्योगजव्यस्परभावादिति । भव्यराश्यपेमया वा सर्वदेहिग्रहणं । आसन्नदूरदूरतरभन्येषु अभव्यसमान भन्येषु च सर्वेषु त्रिपाऽरमा विद्यत इति । तहि सर्वशे परमात्मन एव सद भावाद् बहिरन्तरात्मनोरभावास्त्रिधात्मनो बिरोध इत्यप्ययुक्तम् । मृत्तपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया तत्र सहिरोधासिद्धेः घृतपटवत् । यो हि सर्वज्ञावस्थायां परमात्मासम्पन्नः स पूर्व वहिरामा अन्तरात्मा चासीदिति । घृतपटवपन्तरात्मनोऽपि अहिरस्त्मत्वं परमात्मत्वं च भूतभाविप्रज्ञापननयापेक्ष या द्रष्टव्यम् । तब कुतः कस्योपावानं कस्य का त्यागः कर्तव्य इत्याइ--उपेमाविति । तेषु त्रिधात्मसु मध्ये उपेयात् स्वीकुर्यात् परमं परमात्मानं । कस्मात् ? मम्योपाचात् मम्मोत्तरात्मा स एवोपायस्तस्मात् तथा बहिः बहिरात्मानं मध्योपायादेव स्यवेत ॥४॥ बास्मा कितने तरहका होता है, जिससे शुद्धात्मा ऐसा विशेष कहा १. तिपयारो सो अप्पा परमतरमाहिरो( देहीणं । तत्व परो भाज्जा अंतोवाएण पयहि बहिरपा ।। -मोक्षप्रामृते, कुन्धन्दः । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिष जाता है, और उन आत्माके भेदों में किमका ग्रहण और किसका त्याग करना चाहिये ? ऐसी आशंका दूर करनेके लिये आत्माके भेदोंका कथन करते हैं मन्वयार्थ-( मर्वदेहिषु ) सर्वप्राणियोंमें (बहिः) बहिरात्मा ( अन्तः) अन्तरास्मा ( च पर:) और परमात्मा ( इति ) इस तरह ( त्रिधा ) तीन प्रकारका (आत्मा) माया ! अस्ति है। तत्र ) आत्माके उन तीन भेदोंमेंसे ( मध्योपायात ) अन्तरात्माके उपायद्वारा ( परमं ) पर. मास्माको ( उपेयात् ) अंगीकार करे-अपनावे और (बहिः ) बहिरास्माको ( यजेत् ) छोड़े। भावार्थ-आत्माकी तीन अवस्थाएं होती हैं बहिरात्मा, मन्तरात्मा और परमात्मा । उनमेंसे जब तक प्रत्येक संसारी जोवकी अन्धेतन पूदगल-पिंडरूप शरोरादि विनाशीक पदार्थों में मारम बुद्धि रहती है, या आरमा जबतक मिथ्याल्व-अवस्थामें रहता है । तब तक वह 'बहिरास्मा' कहलाता है। शरोरादिमें आत्मबद्धिका त्याग एवं मिथ्यात्वका विनाश होनेपर जब आत्मा सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब उसे 'अन्तरात्मा' कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरास्मा और जघन्य अन्तरात्मा । अन्तरंग-बहिरंग-परिग्रहका त्याग करने वाले, विषयकषायोंको जीतनेवाले और शुद्ध उपयोगमें लोन होने वाले तत्वज्ञामी योगीश्वर 'उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशवतका पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छठे गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं मोर तस्वश्रद्धाके साथ व्रतोंको न रखने वाले अविरतसम्यादष्टि जीव 'जनन्य अन्तरात्मा' रूपसे निद्दिष्ट हैं। ___ आत्मगुणोंके घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार धातियाकर्मोका नाश करके आल्माकी अनन्त चतुष्टयरूप शक्तियोंको पूर्ण विकसित करनेवाले 'परमात्मा' कहलाते हैं। अथवा आस्माकी परम विशुद्ध अवस्थाको 'परमात्मा' कहते हैं। यदि कोई कहे कि अभव्योंमें तो एक बहिरामावस्था ही संभव है, फिर सर्व प्राणियों में आत्माके तीन भेद केसे बन सकते हैं ? यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभव्य जीवोंमें भो अन्तरात्मावस्था और परमात्मावस्था शक्तिरूपसे जरूर है, परन्तु उक्त दोनों अवस्थाओंके व्यक्त होनेकी उनमें योग्यता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो अभव्यों में केवल कानावरणीय कर्मका बन्य व्यर्थ ठहरेगा । इसलिये पाहे निकट भव्य हो, दूरान्दुर भव्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... ... .etrJA N .. समापितत्र हो अथवा अभव्य हो, सबमें तीन प्रकारका आत्मा मौजूद है। सर्वझमें भी भूतप्रज्ञापननयकी अपेक्षा घृत-घटके समान बहिसरमावस्था और मन्तरात्मावस्था सिद्ध है। आत्माकी इन तोन अदस्थाओंमेंसे जिनकी परद्रव्यमें आत्मबुद्धिरूप बहिरात्मावस्था हो रही है उनको प्रथम हो सम्यक्त्व प्राप्त कर उस विपरीताभिनिवेशमय बहिरात्मावस्थाको छोड़ना चाहिये और मोक्षमार्गकी साषक अन्तरात्मावस्थामें स्थिर होकर आत्माकी स्वाभाविक वीतरागमयी परमात्मावस्थाको व्यक्त करनेका उपाय करना चाहिये ।। ४॥ तत्र पहिरन्तः परमात्ममा प्रत्येक लक्षणमाह-- बहिरास्मा शरीरावी जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । पित्तदोषारमविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः ॥५।। टोका-शरीरावी शारीरे आषिशब्दाद्वाङ्मनसोरेव ग्रहणं सत्र जाता मामेतिप्रान्तियस्य स पहिरामा भवति । आन्तर: अम्सर्भवः । 'तत्र भव इत्पणष्टेभमाने टिलोपमित्यस्यानित्यत्वं येषां च विरोधः शाश्वतिक इति नियात्, "मन्तरे वा भव बान्सरोऽन्तरात्मा । समयं भसो भवति ? सिलवोपालविभान्तिः पित्तं न विकल्पो दोषाश्च रागादयः, आत्मा च शुद्ध चेतयारण्यं तेषु विगता विष्य प्रान्तियस्म । मितं चित्तत्वेन बुध्यते दोषाश्च दोषत्वेन बात्मा आत्मत्वेनेस्पः । पित्तपोषेषु षा विगता आत्मेति प्रान्तियंस्य । परमात्मा भवति, कि विशिष्ट ? प्रतिनिर्मल प्रक्षोणाशेषकर्म मछः ॥५॥ __ अब बहिराल्मा, अन्तरास्मा और परमात्मामें प्रत्येकका लक्षण कहते हैं बबयार्ष-(शरीरादी जस्तात्मप्रान्तिः बहिराल्मा) शरीराविकमें बाल्ममान्तिको धरनेवाला- उन्हें प्रमसे बास्मा समझने वाला-बहिरामा है। (चित्तदोषास्मविश्वान्तिः आन्तरः) चित्तके, रागद्वेषादिक दोषोंके और आरमाके विषय में अभ्रान्त रहनेवाला उनका ठोक विवेक रखनेवाला अर्थात् चित्तको चिसरूपसे, दोषोंको दोषस्पसे और बास्माको प्रारमरूपसे अनुभव करनेवाला-अन्तरात्मा कहलाता है। (अप्ति १. बालागि बाहिरप्पा तरण्या है अप्प-संकप्पो । कम्म-कलंक-विमुक्को परमप्पा भन्पए देवो ।।५।। मोसमामृते, कुन्दकुन्दः Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - समाचित्र निर्मल: परमात्मा.) सर्व कर्ममलसे रहित जो अत्यन्त निर्मल है वह परमात्मा है। भावार्य-मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत तत्त्वोंका जैसा स्वरूप जिनेन्द्र देवने बताया है उसको वैमा न मानने वाला बहिरात्मा अथवा मिथ्यादष्टि कहलाता है । दर्शनमोहके उदयमे जीवमें अजीवकी कल्पना और अजोवमें जीवकी कल्पना होती है, दुखदाई रागद्वेषादिक विभाव भावोंको सुखदाई समझ लिया जाता है, आत्माके हितकारी ज्ञान वैराग्यादि पदार्थोंको अहितकारी जानकर उनमें अरुचि अथवा द्वेषरूप प्रवृत्ति होती है और कर्मबंधके शुभाशुभ फलोंमें राग, द्वेष होनेसे उन्हें अच्छे बरे मान लिया जाता है । साथ ही, इच्छाएं बलवती होती जाती हैं, विषयोंकी चाहरूप दावानलमें जीव दिन-रात जलता रहता है। इसीलिये आत्मशक्तिको खो देता है और आफूलना रहित मोक्ष सुखके खोजने अथवा प्राप्त करनेका कोई प्रयत्न नहीं करता। इस प्रकार जातितत्त्व और पर्यायतत्त्वौंका यथार्थ परिज्ञान न रखनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। चैतन्य लक्षणवाला जोव है, इससे विपरीत लक्षणवाला अजीव है, आत्माका स्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा है, अमतिक है और ये शरीरादिक परद्रव्य हैं, पुद्गलके पिंड है, विनाशोक हैं, जड़ है, मेरे नहीं है और न में इनका हूँ, ऐसा भेदविज्ञान करनेवाला सम्यग्दृष्टि 'अन्तरात्मा' कहलाता है । अत्यन्त विशुद्ध आत्माको 'परमात्मा' कहते हैं, परमात्माके दो भेद हैं-एक सकलपरमारमा दूसरा निष्कलपरमात्मा। जो चार धातिया कर्ममलसे रहित होकर अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी और समवसरणादिरूप बाह्यलक्ष्मीको प्राप्त हुए हैं उन सर्वज्ञवीतराग परमहितोपदेशी आत्माओंको 'सकलपरमात्मा' या 'अरहन्त' कहते हैं। और जिन्होंने सम्पूर्ण कर्ममलोंका नाश कर दिया है, जो लोकके अग्रभागमें स्थित हैं, निजानन्द निर्भर-निजरसका पान किया करते हैं तथा अनन्तकाल तक आत्मोत्थ स्वाधीन निराकुल सुखका अनुभव करते हैं उन कृतकृत्योंको 'निष्कलपरमात्मा' या 'सिद्ध' कहते हैं ॥ ५ ॥ सदाचिका नाममाला दर्शयन्ना--- निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परास्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ टोका–मिर्मल: कर्ममलरहितः । केवलः शरीरादीनां सम्बन्धरहितः । मुखः सम्पभावकर्मणामभावात् परमविविसमन्वितः । विदितः शरीरकर्मादिभिर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T समाधितंत्र संस्पृष्टः । प्रभुरिन्द्रादिना स्वामी । अव्ययरे लक्ष्यानं चतुष्टयस्वरूपादप्रच्युतः । परमेष्ठी - परमे इन्द्रादिद्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी स्थानशीलः । परात्मा संसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा इति शब्दः प्रकारार्थे एवं प्रकारा ये राम्यास्ते परमात्मनो वाचकाः परमात्मेत्यादिना तानेव दर्शयति । परमात्मा सकल प्राणिभ्य उत्तम आत्मा ईश्वरः इन्द्राद्यसम्भविना अन्तर बहिरङ्गेण परमेश्वर्येण सदैव सम्पन्नः जिनः सकलकर्मोन्मेलकः ॥६॥ अब परमात्मा के वाचक अन्य प्रसिद्ध नाम बतलाते हैं अम्वयार्थ - ( निर्मल: ) निर्मल - कर्मरूपीमल से रहित ( केवल: ) केवलशरीरादिपरद्रव्यके सम्बन्धसे रहित ( शुद्धः ) शुद्ध द्रव्य और भावकर्मसे रहित होकर परमविशुद्धिको प्राप्त ( विविक्तः) विविक्त-शरीर और कर्मादिके स्पर्शसे रहित ( प्रभुः ) प्रभु — इन्द्रादिकों का स्वामी ( अव्ययः ) अव्यय - अपने अनन्त चतुष्टयरूप स्वभावसे च्युत न होते वाला (परमेष्ठी ) परमपद में स्थिर ( परात्मा ) परमात्मा - संसारी जीवोंसे उत्कृष्ट आत्मा ( ईश्वर: ) ईश्वर - अन्य जोवोंमें असम्भव ऐसी विभूतिका धारक और (जिनः ) जिन - ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतनेवाला ( इति परमात्मा ) ये परमात्माक नाम हैं । भावार्थ - आत्मा अनंत गुणोंका पिण्ड है। परमात्मामें उन सब गुणोंके पूर्ण विकसित होनेसे परमात्माके उन गुणोंकी अपेक्षा अनन्त नाम हैं । इसीसे परमात्माको अजर, अमर, अक्षय, अरोग, अभय, अविकार, अज, अकलंक, अशंक, निरंजन, सर्वज्ञ, वीतराग परमज्योति, बुद्ध, आनन्दकन्द शास्ता और विधाता जैसे नामींसे भी उल्लेखित किया जाता है ॥ ६ ॥ , इदानीं मतिरात्मनो देह्रस्यात्मत्वेनाध्यवसाये कारणमुपदर्शयन्नाह-'वहिरात्मे प्रियद्वारेरात्मज्ञान परामुखः स्फुरितः स्वात्मनो 'देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥७॥ टीका-इन्द्रियद्वारेरन्द्रियमुखः कृत्वा स्फुरितो बहिरग्रहणे व्यापूतः सन् बहिराणा मूढात्मा । आत्मज्ञानपराङ्मुखो जीवस्वरूपज्ञानाद्वहिर्भूतो भवति । १. बहिरत्य फुरियमणी इटियारेण जियसवओो । पियदेहं अप्पानं अमसदि मूढविट्ठीमो | ११ मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः । २. "स्फुरितरात्मनोह" इत्यपि पाठान्तरम् | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ स्टिंग तथाभूतश्च सन्नसौ किं करोति ? स्वात्मनो देहमात्मत्वेन व्यवस्यति मात्मीय शरीरमेवामिति प्रतिपद्यते ||७|| अब यह दिखलाते हैं कि बहिरात्मा के देहमें आत्मतत्त्व बुद्धि होनेका क्या कारण है अन्वयार्थ - मतः ] चूँकि ( बहिरात्मा ) बहिरात्मा (इन्द्रियद्वारे) इन्द्रियद्वारोंसे ( स्फुरितः ) बाह्य पदार्थों के ग्रहण करने में प्रवृत्त हुआ (आत्मज्ञानपराङ्मुखः ) आत्मज्ञानसे पराङ्मुख [ भवति, ततः ] होता है इसलिये (स्वात्मनः दह) अपने शरीरको ( आत्मस्वेन अध्ययस्पति ) आत्मरूप से निश्चय करता है—अपना आत्मा समझता है ? भावार्थ- मोहके उदयसे बुद्धिका विपरीत परिणमन होता है। इसी कारण बहिरात्मा इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण में आने वाले बाह्य मूर्तिक पदार्थों को ही अपने माना है। उसे अभ्यन्तर आत्मतत्वका कुछ भी ज्ञान या प्रतिभास नहीं होता है । जिस प्रकार धतूरेका पान करने वाले पुरुषको सब पदार्थ पीले मालूम पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार मोहके उदयसे उन्मत्त हुए जीवोंको अचेतन शरीरादि पर पदार्थ भी चेतन और स्वकीय जान पड़ते हैं। इसी दृष्टिविकारसे आत्माको अपने वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान नहीं हो पाता और इसलिये यह जीवात्मा शरीरको उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति और शरीर के विनाशसे अपना विनाश समझता है ॥ ७ ॥ तच्च प्रतिपद्यमानो मनुष्यादि चतुर्गौतसम्बन्धिशरीराभेदेन प्रतिपद्यते तत्र -- 'रहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यश्च तिर्यगग्रस्थं सुरांगस्यं सुरं तथा ॥८॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तस्वतस्तथा । अनंतानंतधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचल स्थितिः ॥९॥ टोका-नरस्य देहो नरदेहः तत्र तिष्ठतीति नरदेहस्थस्तमात्मानं सपते 1 कोऽसौ ? अविद्धान् बहिरात्मा । तियंत्रमात्मानं मन्यते । कथंभूर्त ? पिङ्ग १. "सुरं त्रिवचपर्मायन पर्यायस्तथा नरम् । तिचं च तदङ्गे स्वं नारकाङ्ग च नारकम् ।। ३२-१३ ।। देयविद्या परिश्रान्तो महस्वन्न पुनस्तया । किन्त्वमूर्तं स्वसंवेश्वंतत्रयं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ —शनार्थमचंद्रः । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचितंत्र १३ तिरश्चामङ्ग तिर्यगङ्ग तत्र तिष्ठतीति तिर्यगङ्गस्थस्तं । सुराङ्गवं आत्मानं सुरें तथा मन्यते ||८|| नारकमात्मानं मन्यते । किविशिष्टं ? मारकाङ्गस्थं । न स्वयं तथा नरादिरूप आत्मा स्वयं कर्मोपाधितरेण न भवति । कथं तस्वतः परमातो न भवति । व्यवहारेण तु यदा भवति तदा भवतु । कर्मोपात्रिकृता हि जीवस्य मनुष्यादिपर्यायास्तन्निवृत्तौ निवर्तमानत्वात् न पुनर्वास्तवा इत्यर्थः । परमार्थतस्तहि कीदृशोऽसावित्याह- अनन्तानन्तधीशक्ति: धीरच दाक्सिश्च घीशक्ती अनन्तानन्ते ची शक्ती यस्य । तथाभूतोऽसी कुतः परिच्छेद्य इत्याह स्वसंवेद्यो "निरुपाधिक हि रूपं वस्तुनः स्वभावोऽभिधीयते । कर्माद्यपाये चानन्तानन्तत्रीशक्तिपरिणत आत्मा स्वसंवेदनेन वेद्यः । तद्विपरीतरित्यनुभवस्य संसारावस्थायां कर्मोपाषिनिर्मितत्वात् । अस्तु नाम तथा स्वसंवेद्यः कियत्कालमसौ न तु सर्वदा पश्चात् तद्रूपविनाशादित्याह – अचल स्थिति: अनंतानंतधीशक्तिस्वभावनांचला स्थितिर्यस्व सः | यः पुनर्योगसांख्यैर्मुक्तो तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे चार दिसाः प्रत्याख्याशः ॥ 31 इसी बात को स्पष्ट करते हुए मनुष्यादि चतुर्गतिसम्बन्धी शरीर भेदसे जीवमंदकी मान्यताको बतलाते हैं- अन्वयार्थ - ( अविद्वान् ) मूढ बहिरात्मा ( नरदेहस्थं ) मनुष्य देहमें स्थित ( आत्मा ) आत्माको ( नरम् ) मनुष्य, ( तिर्यगजस्यं ) तियंच शरीरमें स्थित आत्माको ( तिथेचं ) तिथेच ( सुराङ्गस्थ ) देवशरीरमें स्थित आत्माको ( सुरं) देव ( तथा ) और ( नारकाङ्गस्थ ) नारकशरीरमें स्थित आत्माको ( नारक ) नारकी ( मन्यते ) मानता है । किन्तु ( तस्वतः ) वास्तव में - शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे ( स्वयं ) कर्मोंपाधिसे रहित खुद आत्मा ( तथा न ) मनुष्य, तिच देव और नारकीयरूप नहीं है ( त्वत्तस्तु ) निश्चयनयसे तो यह आत्मा (अनंतानंतधीशक्तिः ) अनन्तानन्त ज्ञान और अनन्तानन्तशक्तिरूप वीर्यका धारक है | ( स्वसंवेद्यः ) स्वानुभवगम्य है-- अपने द्वारा आप अनुभव किये जाते योग्य है और (अचलस्थिति: ) अपने उक्त स्वभावसे कभी च्युत न होने वाला - उसमें सदा स्थिर रहने वाला है । भावार्थ - यह अज्ञानी आत्मा कर्मोदयसे होने वाली नरनारकादिपर्यायोंको ही अपनी सच्ची अवस्था मानता है । उसे ऐसा भेदविज्ञान नहीं होता कि मेरा स्वरूप इन दृश्यमान पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न है। मले ही इन पर्यायोंमें यह मनुष्य है, यह पशु है इत्यादि व्यवहार होता है, परन्तु ये सब अवस्थाएं कर्मोदयजन्य हैं, जड़ है और आत्माका वास्तविक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समाषितंत्र स्वरूप इनो भिन्न कामागिसे रहित मुहू चैतन्यमय टंकोत्कीर्ण एक ज्ञाता द्रष्टा है, अभेद्य है, अनन्तानन्तशक्तिको लिये हुए है, ऐसा विवेक ज्ञान उसको नहीं होता । इसी कारण संसारके परपदार्थों में व मनुष्यादि पर्यायोंमें अहबुद्धि करता है, उनको आत्मा मानता है और सांसारिक विषय सामग्रियोंके संचय करने एवं उनके उपभोग करने में ही लगा रहता है । साथ ही, उनके संयोग-बियोगमें हर्ष-विषाद करता रहता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव भेद-विज्ञानी होता है, वह इन पर्यायोंको कर्मोदयजन्य मानता है और आत्माके चैतन्यस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता रहता है तथा परपदार्थोंको अपनी आत्मासे भिन्न जड़ल्प ही निश्चय करता है। इसी कारण पंचेन्द्रियोंके विषयों में उसे मृद्धता नहीं होती और न वह इष्टवियोग -अनिष्टसंयोगादिमें दुखी हो होता है इसलिये आस्महितैषियोंको चाहिये कि बहिरामावस्थाको अत्यन्त हेय समशकर छोड़ें और सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा होकर समीचीन मोक्षमार्गका साधन करें।। ८-९॥ स्वदेहे एवमध्यवसायं कुर्वाणो बहिरात्मा परदेहे कथंभूतं करोतीत्याह स्थवेहसदृशं दृष्ट्वा परवेहम चेतनम्। परात्माधिष्ठित मूहः परत्वेनाध्यवस्थति ॥१०॥ टीका-व्यापारध्याहाराकारादिना स्वदेहसा परवहं दृष्ट्वा । कथम्भूतं ? परात्मनाऽधिष्ठितं कर्मवशात्स्वीकृतं अचेतन चेतनेनसंगत मूढो बहिरामा परचन परात्मत्वेन अध्ययस्यति ॥१०॥ ___ अपने शरीरमें ऐसी मान्यता रखनेवाला बहिरात्मा दसरेके शरीरमें फैसो बुद्धि रखता है, इसे आगे बतलाते हैं-- अन्वयार्थ-( मूतः ) अज्ञानी बहिरात्मा (परात्माधिष्ठित ) अन्यकी आल्मासहित ( अचेतन ) चेतनारहित ( परदेहं ) दूसरेके शरीरको (स्वदेहसदृशं ) अपने शरीरके समान इन्द्रियव्यापार तथा वचनादि १. णियड्सरित्यं पिच्छिकण परविमह पयत्तेण । क्षच्चेपणं पि गहिय माइजह परमभाएण ।। ९॥ -मोक्षप्राभूते, कुन्दकुन्दः । स्वशरीरमिवान्विष्य परामं व्युतश्चेतनम् । परमात्मानमझानी परबुद्ध धाऽध्यवस्पति ।। ३२-१५ ॥ जानागंधे, शुभमः। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र १५ व्यवहार करता हुआ ( दृष्ट्वा ) देखकर ( परत्वेन ) परका आत्मा ( अध्यवस्यति ) मान लता है। भावार्थ - अज्ञानी बहिरात्मा जैसे अपने शरीरंको अपना आत्मा समझता है उसी प्रकार स्त्री-पुत्र मित्रादिके अचेतन शरीरको स्त्री-पुत्रमित्रादिका आत्मा समझता है और अपने शरीर के विनाश से जैसे अपना विनाश समझता है ठीक उसी प्रकार उनके शरीरके बिनाशसे उनका विनाश मानता है, अपने लिये जैसे सांसारिक वैषयिक सुखोंको हितकारी समझता है; दूसरोंके लिये भी उन्हें हितकारी मानता है; सांसारिक सम्पत्तियों के समागम में सुखकी कल्पना करता है और उनको अप्राप्तिमें दुःखका अनुभव, अपने स्वार्थ के साधकों पर प्रेम करता है और जिनसे अपना कुछ भी लौकिक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता उसे द्वेषबुद्धि रखता है । इस प्रकार बहिरात्माकी शरीर में आत्मबुद्धि रहती है ॥ १० ॥ एवं विधाध्यवसायात्किं भवतीत्याहू स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविवितात्मनाम्' । वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्याविगोश्वरः ॥ ११ ॥ टोका - विभ्रमो विपर्यासः पुंसां धर्त से कि विशिष्टानां ? अमिवितात्मनां अपरिज्ञातात्मस्वरूपाणां । केन कृत्वाऽसौ वर्तते ? स्वपराभ्यवसायेन । क्य ? बेहेषु । कथम्भूतो विभ्रमः ? पुत्रभार्यादिगोचरः । परमार्थतोऽनात्मीयमनुपकारकमपि पुत्रभावनधान्यादिकमात्मीयमुपकारकं च मन्यते । तत्सम्पत्तौ संतोष तद्वियोगे च महासन्तापमात्मबधादिकं च करोति ॥ ११॥ इस प्रकारकी मान्यता से बहिरात्माको परिणति किस रूप होती है। उसे दिखाते हैं मन्वयार्थ - ( अविदितात्मनां पु'सां ) आत्मा के स्वरूपको नहीं जानने वाले पुरुषोंके ( देहेषु ) शरीरोंमें ( स्वपराध्यवसायेन ) अपनी और परकी आत्ममान्यता से ( पुत्रभार्यादिगोचरः ) स्त्री-पुत्रादिविषयक (विभ्रमः वर्तते ) विभ्रम होता है । भावार्थ - - यह अज्ञानी बहिरात्मा अपनी आत्माके चैतन्यस्वरूपको न जानकर अपने शरीर के साथ स्त्री-पुत्र मित्रादिकके शरीर-सम्बन्धको १. सपरज्भबसाएणं देहेसु व अवि दिवस्थमप्पार्ण सुमदाराई विसाए मणयाणं बहुए मोहो ॥ १० ॥ - मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ समाधितंत्र ही अपनी आत्माका सम्बन्ध समझता है और इसी कारण उनको अपना उपकारक मानता है, उनकी रक्षाका यत्न करता है, उनके संयोग तथा वृद्धिमें सुखी होता है, उनके वियोग में अत्यन्त व्याकुल हो उठता है । और यदि कदाचित् उनका बर्ताव अपने प्रतिकूल देखता है तो अत्यन्त शोक भी करता है तथा भारी दुःख मानता है। वस्तुतः जिस प्रकार पक्षीगण नाना दिग्देशोंसे आकर रात्रिमें एक वृक्ष पर बसेरा लेते हैं और प्रातःकाल होते ही सबके सब अपने-अपने अभीष्ट ( इच्छित ) स्थानों को चले जाते हैं। उसी प्रकार ये संसारके समस्त जीव नाना गतियोंसे लाकर कर्मोदयानुसार एक कुटुम्बमें जन्म लेते हैं व रहते हैं । यह मूढात्मा व्यर्थ ही उनमें निजत्वकी बुद्धि धारणकर आकुलित होता है की ऐसी गुणिन नहीं होता, और इसी से स्त्री-पुत्रादि विषयक विभ्रम से बचा रहता है ॥ ११ ॥ + एवंविध विभ्रमाच्च किं भवतीत्याह अविश्वासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते वृढः" । पैन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥ १२ ॥ ठीका तस्माद्विभ्रमाद् बहिरात्मनि संस्कारो वासना बुढोऽविचलो बत्यते । किन्नामा ? अविधासहितः अविधाः संज्ञाऽस्य संजातेति "तारकाविस्य इतम्" । येत संस्कारेण कृस्वा लोकोऽविवेकिजिनः । अंगमेव शरीरमेव । एवं आत्मानं । पुनरपि जन्मान्तरेऽपि । अभिमन्यते ॥ १२ ॥ स्त्री-पुत्रादिमें ममत्वबुद्धि-धारणरूप विभ्रमका क्या परिणाम होता है, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( तस्मात् ) उस विभ्रमसे ( अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामका ( संस्कारः ) संस्कार ( दृढः ) दृढ़-मजबूत ( जायते ) हो जाता है (येन ) जिसके कारण ( लोक: ) अज्ञानी जीव (पुनरपि ) जन्मान्तरमें भी ( अंगमेव ) शरीरको ही ( स्वं अभिमन्यते ) आत्मा मानता है । भावार्थ - यह जीव अनादिकालीन अविद्याके कारण कर्मोदयजन्य पर्यायोंमें आत्मबुद्धि धारण करता है— कर्मके उदयसे जो भी पर्याय मिलती है, उसीको अपना आत्मा समझ लेता है, और इस तरह १. मिच्छामासु रको मिच्छाभावेण भाविओो संतो । मोहोदयेण पुणरवि अंगं सम्मण्णए ममुबो ॥ ११ ॥ - मोकप्राभूते, कुन्दकुन्दः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र उसका यह अज्ञानात्मक संस्कार जन्मजन्मान्तरोंमें भी बना रहनेसे बराबर दृढ़ होता चला जाता है । जिस प्रकार पत्थरमें रस्सी आदिकी नित्यकी रगड़से उत्पन्न हुए चिह्न बड़ी कठिनतासे दूर करनेमें आते हैं । उसी प्रकार आत्मामें उत्पन्न हुए इन अविद्याके संस्कारोंका दूर करना भी बड़ा ही कठिन हो जाता है ॥ १२॥ एवमभिमन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याह हे स्वद्धिरास्मान युनवत्येतेन निश्चयात् । स्वात्मन्येवारमधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं ॥१३॥ गोका हे स्वविरामबुद्धिहिरात्मा किं करोति ? आत्मानं पुनक्ति सम्बर करोति देहिनं दीर्घसंसारिणं करोतीत्यर्थः केन ? एतेन देहेन । निश्चयात् परमार्थेन | स्वरमपेण जीवस्वरूपे एव आत्मघौरन्तरात्मा। निश्चयावियोजयति असम्बवं करोति ॥१३॥ अब बहिरारमा और अन्तरात्माका स्पष्ट कप्तव्य-भेद बतलाते हैं अन्वयार्थ-ई सक्षिरी में भापबुद्धि कसनेकला पहि रात्मा ( निश्चयात् ) निश्चयसे ( आत्मानं ) अपनी आत्माको ( एतेन ) शरीरके साथ ( युनक्ति ) जोड़ता-आंधता है। किन्तु (स्वात्मनि एव मात्मधीः ) अपनी आत्मामें ही आत्मबुद्धि रखने वाला अन्तराल्मा ( देहिन ) अपनी आत्माको ( तस्मात् ) शरीरके सम्बन्धसे ( वियोजयति) पृथक् करता है। ___ भावार्थ-मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा शरीरको ही आस्मा मानता है और इस प्रकारको मान्यतासे ही आत्माके साथ नये-नये शरीरोंका संबंध होता रहता है, जिससे यह अज्ञानी-जीव अनन्तकाल तक इस गहनसंसार-वनसे भटकता फिरता है और कर्मोके तीव्रतापसे सदा पीड़ित रहता है। जब शरीरसे ममत्व छूट जाता है अर्थात् परीरको अपने चैतन्य स्वरूपसे भिन्न पुद्गलका पिंड समझ लिया जाता है और आत्माके निज शानदर्शन स्वरूपमें ही आत्मबुद्धि हो जाती है तब यह जीव सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा होकर तपश्चरण अथवा ध्यानादिकके द्वारा अपने आत्माको शरीरादिकके बन्धनसे सर्वथा पृथक् कर लेता है और सदाके लिए मुक्त हो जाता है । अतएव बहिरात्मबुद्धिको छोड़कर अन्तरात्मा होना चाहिए और परमात्मपदको प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।। १३ ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समाषितंत्र देहेष्वात्मानं योजयतश्च बहिरात्मनो दुर्विलसितोपदर्शनपूर्वकमाचार्योऽनुशय कुर्वन्नाह बेहेष्वात्मधिया जाताः पुत्रभार्याविकल्पनाः । सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते हा हतं ! जगत् ॥१४॥ टीका--जाताः प्रवृत्ताः । काः ? पुत्रभार्याधिकल्पनाः । क्य ? बेहेषु । कया? आत्मषिया | स्व? देहेष्येव । अयमर्थः-पुत्रादिदेहूं जीबल्वन प्रतिपद्यमानस्य मत्यो भार्येत्यादिकल्पना विकल्पा जायन्ते । ताभिश्चानात्मनीयाभिरनुपकारिणीभिश्च । सम्पत्ति पुत्रभार्यादिविभूत्यतिशम आत्मनो मापते जगत्कर्तृस्वस्वरूपाद् बहिर्भूतं जगत् बहिरात्मा प्राणिगणः हा हत नष्ट स्वस्वरूपरिमानात् ।।१४।। शरीरोंमें आत्माके सम्बन्धको जोड़नेवाले बहिरात्माके निन्दनीय व्यापारको दिखाते हुए आचार्य महोदय अपना खेद प्रकट करते हैं-- अन्वयार्थ-( देहेषु ) शरीरोंमें (आत्मधिया) आत्मबुद्धि होनेसे (पुत्रमार्यादिकल्पनाः ) मेरा पुत्र, मेरी स्त्री इत्यादि कल्पनाएँ ( जाताः) उत्पन्न होती हैं ( हा ) खेद है कि ( जगत् ) बहिरात्मस्वरूप प्राणिगण (ताभिः) उन कल्पनाओंके कारण ( सम्पत्ति ) स्त्री-पुत्रादिकी समृद्धिको ( आत्मनः) अपनी समृद्धि ( मन्यते) मानता है और इस प्रकार यह जगत् (हत ) नष्ट हो रहा है। भावार्य-जब तक इस जीवकी देहमें आल्म बुद्धि रहती है तब तक इसे अपने निराकुल निजानन्द रसका स्वाद नहीं आता, न अपनी अनन्तचतुष्टयरूप सम्पत्तिका भान (ज्ञान) होता है और तभी यह संसारी जीव स्त्री-पुत्र-मित्र-धन-धान्यादि सम्पत्तियोंको अपनी मानता हुआ उनके संयोग-वियोगमें हर्ष-विषाद करता है तथा फलस्वरूप अपने संसार परिभ्रमणको बढ़ाता जाता है। इसीसे आचार्य महोदय ऐसे जीवोंकी इस विपरीत बुद्धि पर खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'हाय ! यह जगत् मारा गया !' ठगा गया, इसे अपना कुछ भी चेत नहीं रहा ॥ १४ ॥ इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मत्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं पर्शयन्नाह० मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः । त्यात्वना प्रविशेषन्तर्बहिरव्यापतेन्द्रियः ॥१५॥ टीका--पूर्व कारणं । कस्य ? संसारपुःनत्य । काऽसौ ? देह एवाममोः देहः कायः स एषात्मधीः । यत एवं ततस्तस्मात्कारणार । एलो देह एवात्मसि । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र त्यक्त्वा मन्तःप्रषिशेत आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्यात् अन्तरात्मा भवेदित्यर्थः । कथंभूतः सन् ? पहिरण्यापतेनिायः बहिर्बाह्यविषयेषु अव्यापूतान्यप्रवृत्तानीन्द्रियाणि यस्य ॥१५॥ ___ अब बहिरात्माके स्वरूपादिका उपसंहार करके देहमें आत्मबुद्धिको छोड़नेकी प्रेरणाके साथ अन्तरारमा होनेका उपदेश देते हुए कहते हैं अन्वयार्थ—( देहे) इस जड़ शरीरमें ( आत्मधीः एव ) आरमबुद्धिका होना ही ( मंसारदुःखस्य ) संसारके दुःखोंका ( मूलं) कारण है । (ततः) इसलिए ( एनां ) शरीर में आत्मत्वको मिथ्या कल्पनाको ( त्यक्त्वा) छोड़कर (बहिरव्यापतेन्द्रियः) बाह्य विषयोंमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको रोकता हुआ ( अन्तः ) अन्तरंगमें अर्थात् आस्मामें ही (प्रविशेत् ) प्रवेश करे। भावार्थ-संसारके जितने भी दुःख और प्रपंच हैं वे सब शरीरके साथ ही होते हैं। जब तक इस जीवको बाह्यपदार्थों में आत्मधुद्धि रहती है तब तक हो आत्मासे शरीरका सम्बन्ध होता रहता है और घोर दुःखोंको भोगना पड़ता है । जब इस जीवका शरीरादि परद्रव्योंसे सर्वथा ममस्वभाव छूट जाता है तब किसी भी वाहपदार्थ में लाना रमजार रूप बुद्धि नहीं होती तथा तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान होनेसे आत्मा परम सन्तुष्ट होता है। और साधकभावकी पूर्णता होनेपर स्वयमेव साध्यरूप बन जाता है। इसी कारण इस ग्रंथमें ग्रंथकारने समस्त दुःखोंकी जड़ शरीरमें आत्मबुद्धिका होना बताया है और उसके छड़ाने की प्रेरणा की है। अतः संसारके समस्त दुःखोंका मूल कारण देहमें आत्मकल्पनारूप बद्धिका परित्याग कर अन्तरात्मा होना चाहिये, जिससे घोर दुःखोसे छुटकारा मिले और सच्चे निराकुल सुखकी प्राप्ति होवे ॥ १५ ॥ ___अंतरात्मा आत्मन्यात्मबुसि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां वहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषावं कुर्वनाह-- मत्तश्यपुत्वेन्द्रियाः पतितो ( पतितो ) विषयवहम् । सान प्रपद्याऽहमिति मा पुरा देव न सस्वतः ॥ १६ ॥ टीका-मतः आत्मस्वरुपात । स्वा यावत्य । अहं पतितः ( पतितः) अस्यासन्तया प्रवृत्तः । क्य ? विषयेत् । कः कृत्वा ? इप्रियद्वार: इन्द्रियमुखः । ततस्तान् विषयान् प्रपा ममोपकारका एते इरमसिणगानुसस्य । म बास्मान । बरन शाप्तवान् । कथं ? अहमित्युल्लेखेन अहमेवाहं न शरीराषिकमित्येवं तत्वतो न ज्ञातवानित्यर्थः । कथा ? पुरा पूर्व अनादिकाले ॥ १६ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समामिलन अपनी आत्मामें आत्मबुद्धि धारण करता हुआ अन्तरात्मा जब अलब्ध लाभसे सन्तुष्ट होता है तब अपनी पहली बहिरामावस्थाका गारग कर विषाद मारता हु विचारता है अम्बयार्य-( अहं ) में ( पुरा) अनादिकालसे ( मत्तः) आत्मस्वरूपसे ( च्युत्वा ) च्युत होकर ( इन्द्रि यद्वारैः ) इन्द्रियोंके द्वारा ( विषयेषु ) विषयों में (पतितः ) पतित हुआ है-अत्यासक्तिसे प्रवृत्त हुआ हूँ [ ततः । इसी कारण ( तान् ) उन विषयोंको ( प्रपद्य ) अपने उपकारक समझ कर मैंने ( तत्त्वतः ) वास्तव में ( मां) आत्मा को [ महइति ] मैं हो आल्मा हूँ इस रूपसे ( न वेद ) नहीं जाना—अर्थात् उस समय शरीरको ही आत्मा समझनेके कारण मुझे आत्माके यथार्थ स्थरूपका परिज्ञान नहीं हुआ। भावार्थ-जब तक इस जीवको अपने चैतन्य स्वरूपका यथार्थ परिशान नहीं होता तभी तक इसे बाह्य इन्द्रियोंके विषय सुन्दर और सुखदाई मालूम पड़ते हैं । अब चैतन्य और जड़का भेद-विज्ञान हो जाता है और अपने निराकुल चिदानन्दमयी सुधारसका स्याद आने लगता है तब ये बाह्य इन्द्रियोंके विषय बड़े ही असुन्दर और काले विषधरके समान मालम पड़ते हैं। कहा भी हैएवमभिमन्यमानाचासौ किं करोतिस्याह "जायन्ते विरसा रस विघटते गोष्ठी कथा कौतुक, शीर्यन्ते विषयास्तथा विरममति प्रीतिः शरीरेऽपि च । जीवं वापि धारयंत्यविरतानंदास्मनः स्वात्मन श्चितायामपि यातुमिच्छतिमनो दोषैः समं पंचताम् ।" अर्थात्-आत्माका अनुभव होने पर रस विरस हो जाता है, गोष्ठी, कथा और कौतुकादि सब नष्ट हो जाते हैं, विषयोंसे सम्बन्ध छूट जाता है, शरीरसे भी ममत्व नहीं रहता, वाणी भी मौन धारण कर लेती है और आत्मा सदा अपने शांत रसमें लीन हो जाता है तथा मनके दोषोंके साथ-साथ चिंता भी दूर हो जाती है। इसी कारण यह जीव जिन भोगोंको पहले मिथ्यात्व दशामें सुखका कारण समझकर भोगा करता था उन्हींके लिए सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा होने पर पश्चात्ताप करने लगता है। यह सब भेदविज्ञानको महिमा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापित अमात्मनो सप्ताकुपाय वरन्नाह एवं त्यक्त्वा बहिर्वावं त्यजेवन्तरशेषतः । एव योगः समासेन प्रवीपः परमात्मनः ॥ १७ ॥ टीका-एवं वक्ष्यमाणन्यायेन । पहिर्वाचं पुत्रभार्याधनधान्यादि लक्षणानुबहिरवाचकराम्दान् । त्यक्त्वा । अशेषत. साकल्येन | पदयात् अन्तर्वाचं "महं प्रतिपादकः, प्रतिपाधः, सुखी, दुःखो, चेतनावस्यादिलक्षणमन्तर्जल्प स्वदशेषतः । एष रहिरन्तर्षल्पत्पागलक्षणः । योग: स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणः समाधिः । प्रवीप: स्वरूपप्रकाशकः । कस्य ? परमात्मनः । कथं ? समासेन संझोपेण सटिति परमात्मा स्वरूपप्रकाशक हत्यर्थः ।। १७ ॥ अन आचार्य आत्माको जाननेका उपाय प्रकट करते हुए कहते हैं--- सम्बयार्ष-(एवं ) आगे कहे जानेवालो रोतिके अनुसार (बहिवाय) बाह्यार्थवाचक वचन प्रवृत्तिको ( त्यक्त्वा ) त्यागकर ( अन्तः) अन्तरंग वचनप्रवृत्तको भी ( अशेषतः) पूर्णतया ( स्यजेत् ) छोड़ देना चाहिये। ( एषः) यह बाह्याभ्यन्तररूपसे जल्पस्यागलक्षणवाला ( योगः ) योगस्वरूपमें चित्तनिरोधलक्षणात्मक समाधि हो (समासेन ) संक्षेपसे (पर मात्मनः) परमात्मा रुपमा प्राय है। भावार्थ-स्त्री-पुत्र-धन-धान्यादि-विषयक बाह्य वचनव्यापारको और मैं सुखो हूँ, दुखो हूँ, शिष्य हूँ इत्यादि अन्तरंगजल्पको हटाकर चित्तकी एकाग्रताका जो सम्पादन करना है वही योग अथवा समाधि है बीर वही परमात्मस्वरूपका प्रकाशक है। जिस समय आत्मा इन बाह्म और आभ्यन्तर मिथ्या विकल्पोंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिसे हटकर निज स्वरूप में लीन हो जाता है और शुद्ध आरमस्वरूपको साक्षात्कार कर लेता है। वास्तव में यह समाधि ही जन्म-अरा-मरणरूप आतापको मिटानेवाली परम औषधि है और परमात्मपदकी प्राप्तिका अमोष उपाय है । ऐसी समाधिका निरन्तर अभ्यास करना चाहिए ।। १७ ।। करः पुनर्बहिरन्तर्वावस्त्यागः कर्तब्य इत्याह-- 'यम्मया वृश्यते रूपं सन्न जानाति सर्वया । भानम्न वृष्यते रूपं सतः केन नवीम्यहम् ॥१८॥ १. वं मया दिस्सदे स तं ण जाणादि सध्या । जापनं विस्सदे त सम्झा अपेमि केगह ॥ २९ ॥ मोकप्रमो, कुपन्दः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र टीका- रूपं शरीरादिरूपं य दृश्यते इन्द्रियैः परिच्छेद्यते मया तवचेतनत्वात् उक्तमपि वचनं सर्वथा न जानाति । जानता च समं वचनव्यवहारो युक्तो नान्येनातिप्रसङ्गात् । यच्च जान रूपं वेतनमात्मस्वरूपं सम्न दृश्यते इन्द्रियैनं परिच्छिद्यते । यत एवं तत केन सह ब्रवीम्यहम् ।। १८ ।। २२ अब अन्तरंग और बहिरंग वचनको प्रवृत्तिके छोड़ने का उपाय बताते हैं अन्वयार्थ - ( मया ) इन्द्रियों के द्वारा मुझे ( यत् ) जो ( रूप ) शरीरादिकरूपी पदार्थ ( दृश्यते ) दिखाई दे रहा है (तत्) वह अचेतन होनेसे (था ) बिल्कुल भी ( न जानाति ) नहीं जानता और ( जानत रूपं ) जो पदार्थोंको जानने वाला चैतन्यरूप है वह ( नदृश्यते ) मुझे इन्द्रियोंके द्वारा दिखाई नहीं दे मैं न ) किसके साथ ( ब्रवीमि ) बात करूँ । सतः भावार्थ- जो अपनेको दिखाई पड़े और अपने अभिप्रायको समझे उसीके साथ बातचीत करना या बोलना उचित है । इसी आशयको लेकर अन्तरात्मा द्रव्यार्थिकनयको प्रधानकर अपने मनको समझाता है। कि- जो जाननेवाला चैतन्य द्रव्य है वह तो मुझे दिखाई नहीं देता और जो इन्द्रियोंके द्वारा रूपी शरीरादिक जड़ पदार्थ दिखाई दे रहे हैं वे चेतनारहित होने से कुछ भी नहीं जानते हैं, तब मैं किससे बात करूँ ? किसी से भी वार्तालाप करना नहीं बनता। इसलिए मुझे अब चुपचाप [ मौनयुक्त ] रहना ही मुनासिब है । ग्रन्थकार श्री पूज्यपाद स्वामीने विभाव-भाव रूप झंझटोंसे छूटने और वचनादिको वशमें करनेका यह अच्छा सरल एवं उत्तम उपाय बतलाया है ॥ १८ ॥ एवं बहिर्विकल्पं परित्याज्पान्सविकल्प परित्याजयन्नाहृ-यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यवहं निर्विकल्पकः ॥ १९ ॥ टीका — परे रुपाध्यादिभिरहं यत्प्रतिपाद्यः परान् शिष्याची प्रतिपादये तत्सर्वं मे उम्मतचेष्टितं मोहवशादुन्मत्तस्येवाखिलं विकल्पजालात्मकं विजृम्भितमित्यर्थः । कुत एतत् ? अहं निर्विकल्पको यश्वस्भावमात्मा निर्विकल्पक एवंचनविकल्पैरग्राह्यः ।। १९ ।। इस प्रकार बाह्य विकल्पोंके त्यागका प्रकार बतलाकर अब अभ्यतर विकल्पोंके छुड़ानेका यत्न करते हुए आचार्य कहते हैं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALLP. समापिसत्र २२ अन्धयार्य-( अहं ) में (परैः) उपाध्याय आदिकोंसे ( यत्प्रतिपाद्यः ) जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा ( परान् ) शिष्यादिकोंको ( यत् प्रतिपादये ) जो कुछ प्रतिपादन करता हूँ। तत् ] वह सब ( मे ) (मेरी उन्मत्तचेष्टितं ) पागलों जैसी चेष्टा है ( यदह ) क्योंकि मैं ( निर्विकल्पकः ) विकल्प रहित हूँ–वास्तवमें मैं इन सभी वचनविकल्पोंसे अग्राह्य हूँ। __भावार्थ-सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माके लिये उचित है कि वह अपने निज स्वरूपका अनुभव करे 1 मैं राजा हूँ, रंक हूँ, दोन हूँ, धनो हूँ, गुरु हूँ, शिष्य , इत्यादि अनेक विकल्प हैं जिनसे आत्माका वास्तविक स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता । अतएव ऐसे विकल्पोंका परित्याग करना चाहिये और यह समझना चाहिए कि आत्माका स्वरूप निर्विकल्पक चैतन्य ज्योतिर्मय है || १९ ॥ सदेव दिकल्पातीतं स्वरूपं निरूपयन्नाह--- गृहीत यामाह्य न गाति झोल नैव मुचति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २० ॥ टोका-पत् शुद्धात्मस्वरूपं । अप्राह्यं कर्मोदय निमित्तं क्रोधादिस्वरूप । म गृह नाति आत्मस्वरूपतया न स्वीकरोति । गृहीतमनन्तज्ञानादिस्वरूपं । नेव मुख्याति कदाचिन्न परित्यजति । तेन च स्वरूपेण सहितं शुद्धात्मस्वरूपं कि करोति ? जानाति । कि विशिष्ट तत् ? पर्व चेतनमचेतनं या वस्तु | कर्थ जानाति ? सपा ध्यपर्यायादिसर्वप्रकारेण । तबिथम्भूतं स्वरूप स्वसंदेच स्वसंवेवनग्रामम् व्हमामा मस्मि भवामि ॥ २० ॥ उसो निर्विकल्पक स्वरूपका निरूपण करते हुए कहते हैं मन्बया-( यत् ) जो शुखात्मा ( अग्राह्य ) ग्रहण न करने योग्यको ( न गृह्णाति ) ग्रहण नहीं करता है और ( गृहोस अपि ) ग्रहण किये गये अनन्तमानादि गुणोंको ( न मुञ्चति ) नहीं छोड़ता है तथा ( सर्व) सम्पूर्ण पदार्थोको ( सर्वथा) सर्व प्रकारसे ( जानाति ) जानता है (तत्) यही ( स्वसंवेद्यं ) अपने द्वारा ही अनुभवमे आने योग्य चेतन्यद्रव्य ( अहअस्मि ) में है। भावार्थ-जबतक आत्मामें अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य अथवा क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंका विकास नहीं होता तबतक ही बाल्मा विभाव-भावोंसे मलिन होकर अंपासका गाहक होता Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - समापितष है अथवा कर्माका कर्ता और भोक्ता कहलाता है, किन्तु जब समस्त विभाव-भावोंका अभावकर आत्मा सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञाता-द्रष्टा हुआ आत्मद्रव्यमें स्थिर हो जाता है तब वह अपने गृहीत स्वरूपसे' च्युत नहीं होता और तभी उसे परमब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। जीवकी यह स्थिति ही उसकी वास्तविक स्थिति है ॥ २० ॥ इत्यंभूतात्मपरिज्ञानात्पूर्व कीदृशं मम चेष्टितमित्याह उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः स्थाणो यद्विचेष्टितम् । सन्म चेष्टितं पूर्व बेहाविष्वास्मविभ्रमात् । ॥ २१ टीका-उत्पन्नपुरुषभान्त: पुरुषोऽयमित्युत्पन्मा भ्रान्तियंस्य प्रतिपत्तुस्तस्य । स्मानौ स्थाणुविषये । यद्यत्प्रकारेण । विवेष्टितं विविधमुपकारापकाराविरूप बेष्टित विपरीत या पेष्टित । तत् तत्प्रकारेण । ये वेष्टितं । क्व ? बेहावित। कस्मात् ? आत्मविश्नमात् आत्मविपर्यासात् । का? पूर्वम् उक्तप्रकारात्मस्वरूपपरिज्ञानात् ।। २१ ॥ 'इस प्रकारके आत्मज्ञानके पूर्व मेरी कैसी चेष्टा थी', अन्तरात्माके इस विचारका उल्लेख करते हैं___ अन्वयार्थ--( स्थाणो) स्थाणुमें ( उत्पन्नपुरुषभ्रान्तेः ) उत्पन्न हो गई है पुरुषपनेकी भ्रान्ति जिसको ऐसे मनुष्यकी (यवत् ) जिस प्रकार (विचेष्टितम् ) विकृत अथवा विपरोत चेष्टा होती है ( तहत् ) उसी प्रकारको ( देहादिषु ) शरीरादिक परपदार्थों में (आत्मविभ्रात् ) आत्माका भ्रम होनेसे (पूर्व) आत्मज्ञानसे पहले (मे) मेरी (चेष्टितम्) पेष्टा थी। भावार्य-अन्तरात्मा विचारता है कि जैसे कोई पुरुष घ्रमसे वृक्षक हँठको पुरुष समझकर उसके अपने उपकार-अपकाराविकी कल्पना करके सुखी-दुखो होता है उसी तरह में भी आस्मशानसे पूर्वको मिष्याल अवस्थामें प्रमसे शरीरादिकको आत्मा समझकर उससे अपने उपकार अपकारादिकी कल्पना करके सुखी-दुखी हुआ है ॥ २१ ।। साम्प्रतं तु तत्परिज्ञाने सति कीदृशं मे बेष्टितमित्याहयथाऽसौ चेष्टते स्थाणी निवृते पुरुषाग्रहे। तथाचेष्टोऽस्मि बेहादौ विनिवृसारमविभ्रमः॥ २२ ॥ टीकाधा उत्पन्नपुरुषभ्रान्तिः पुरुषाग्रहे पुरुषाभिनिवेशे निवृत्तं पिगटे पतित पायेन पुरुषाभिनिवेषण नितोपकारापकाराएवमकरणभूतेनपरित्यागका Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .- -. . . . समातिम रेण । वेष्टते प्रवर्तते । तथाष्टोऽस्मि तथा तदुधमपरित्यागप्रकारण चेष्टा यस्यासी तयाचेष्टोऽस्मि भवाम्यहम् । क्व ? देहावी । किविशिष्टः ? विनिदातरम विम: विशेषण निवृत्त आत्मबिभ्रमो यस्म । क्व महाबौ ।। २२ ॥ अब आत्मज्ञान हो जानेसे मेरी किस प्रकारकी चेष्टा हो गई है उसे बतलाते हैं.... चम्बयार्थ-(असौ ) जिसको वृक्षके टूठमें पुरुषका भ्रम हो गया था वह मनुष्य (स्याणी) ट्रॅठमें ( पुरुषाग्रहे निवृत्त) यह पुरुष है ऐसे मिथ्याभिनिवेशके नष्ट हो जाने पर ( यथा) जिस प्रकार उससे अपने उपकारादिकी कल्पना त्यागने की ( चेष्टते ) चेष्टा करता है उसी प्रकार (देहादी) शरीरादिकमें (विनिवृत्तात्मविभ्रमः) आएमपनेके भ्रमसे रहिस हुआ में भी ( तथा चेष्टः अस्मि) देहादिकमें अपने उपकारादिको बुद्धिको छोड़नेमें प्रवृत्त हुआ हूँ। भावार्य-जब वृक्षके दूँठको दृक्षका दूँठको जान लिया जाता है तब उससे होने वाला पुरुष-विषयक भ्रम भी दूर हो जाता है और फिर उस कल्पित पुरुषसे अपने उपकार, अपकारकी कोई कल्पना भी अवशिष्ट नहीं रहती। इसी दृष्टिसे सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा विचार करता है कि पूर्व मिथ्यात्व-दशामें जब मैं मोहोदयसे शरीरको ही आत्मा समझता या तब में इस्त्रियोंका दास था, उनकी साता परिणति में सुख और असाता परिमप्तिमें ही दुःख मानता था, किन्तु अब विवेक-ज्योति का विकास हुनामारमा वेतन्यस्वरूप है, बाकी सब पदार्थ अधेतन हैं-जड़ हैं; आल्मासे भिन्न है, इस प्रकारके जड़ और चेतन्यके भेव विधानसे मुझे तत्वार्यअवानरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुई और शरीरादिकके विषयमें होने वाला आस्म-विषयक मेरा भ्रम दूर हो गया है। इसीसे शरीरके संस्कारादि विषयमें मेरी अब उपेक्षा हो गई है में समझने लगा है कि शरीरादिकके बनने अपवा बिगड़नेसे मेरे आत्माका कुछ भी बनता जपचा बिगड़ता नहीं है और इसीसे शरीरादिकी अनावश्यक चिताको कर अब मैं सविशेषरूपसे आत्म-चिन्तनमें प्रवृत्त हुआ हूँ ॥ २२ ॥ अथवानीमात्मनि स्यादिलिसकत्वादिसंख्याविभ्रमनिस्पयं तद्विविक्तासाधारणस्वरूप दर्शयन्नाह-- येनात्मनाउनुभूयेऽहमारमनैवात्मनाश्मनि । सोहन तम्न सामासो नैको नमोबाबा ॥२६॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र टोका-नना चैतन्यस्वरूपेण " इत्यंभावे तृतीया" । महमनुभूये केन कर्त्रा ? आत्मनैव अनन्येन । केन कारणभूतेन ? खात्मना स्वसंवेदनस्वभावेन । क्व ? आत्मनि स्वस्वरूपे । सोऽहं इत्यंभूतस्वरूपोऽहं तत् न नपुंसकं साम स्त्री । नासो न पुमान् अहं । तथा नैको न रहे। स्त्रीत्वादिधर्माणां कर्मोत्पादित देहस्वरूपत्वात् ॥२३॥ २६ अब आत्मामें स्त्री आदि लिङ्गोंके तथा एकत्वादि संख्याके भ्रमको दूर करनेके लिये और इन विकल्पोंसे रहित आत्माका असाधारणस्वरूप दिखलाने के लिये कहते हैं अन्वयार्थ - ( येन ) जिस (आत्मना ) चैतन्यस्वरूपसे ( अहम् ) मैं ( आत्मनि ) अपनी आत्मामें ही ( आत्मना ) अपने स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा ( आत्मनैव ) अपनी आत्माको आप ही ( अनुभूये ) अनुभव करता हूँ ( स ) वही शुद्धात्मस्वरूप (अहं) में ( न तत् ) न तो नपुंसक हूँ (नसा) न स्त्री है ( न असो) न पुरुष हूँ ( न एको ) न एक हैं ( न द्वौ ) न दो हूँ (वा) और ( न बहुः ) न बहुत हूँ । भावार्थ - अन्तरात्मा विचार करता है कि जीबमें स्त्री-पुरुष आदिका व्यवहार केवल शरीरको लेकर होता है; इसी प्रकार एक दो और बहुवचनका व्यवहार भी शरीराश्रित है अथवा गुणगुणीकी भेदकल्पनाके कारण होता है; जब शरीर मेरा रूप ही नहीं है और मेरा शुद्धस्वरूप निर्विकल्प है तब मुझमें लिंगभेद और वचनमेद कैसे बन सकता है ? ये स्त्रीत्वादिधर्म तो कर्मजनित अवस्थाएं है। मेरा निजरूप नहीं है--मेरा शुद्ध चैतन्य स्वरूप इन सबसे परे है ।। २३ ।। येनात्मता त्वमनुभूयते स कीदृशः इत्याह यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तरम्य संवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४॥ टीका - यस्य शुद्धस्य स्वसंवेद्यस्य रूपस्य प्रभावे अनुपलम्भे । सुप्तो यथावत्पदार्थपरिज्ञानाभावलक्षणमिद्रया गाढाक्रान्तः । माये यस्य तत्स्वरूपस्य भावे उपलम्भे । पुनभ्युत्थितः विशेषेोत्थितो जागरितोऽहं यथावरस्वरूपपरिछिपरिणत इत्यर्थः । किविशिष्टं तत्स्वरूपं ? मतीनिियं इन्द्रियं रजन्यमंत्र च। मनिषयं शब्दविकल्पागोचरस्यादिदंतयाऽनिवन्तया वा निर्देष्टुमशक्यम् । तदेवंविधं स्वरूपं कुतः सिद्धमित्या तत्स्वयं तदुक्तप्रकारकस्वरूपं स्वसंवेदनप्रा नीति ||२४|| Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजितंत्र २७ यदि कोई पूछे कि जिस आत्मस्वरूपसे तुम अपनेको अनुभव करते हो वह कैसा है, उसे बतलाते हैं — अग्वयार्थ - ( यत् अभावे ) जिस शुद्धात्मस्वरूपके प्राप्त न होनेसे ( अ ) मैं ( सुषुप्तः ) अब तक गाढ़ निद्रा में पड़ा रहा हूं- मुझे पदार्थोंका यथार्थं परिज्ञान न हो सका - ( पुनः ) और ( यत् भावे ) जिस शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धि होने पर में (ब्युत्थितः ) जागरित हुआ हूँयथावत् वस्तुस्वरूपको जानने लगा है ( तत् ) वह शुद्धात्मास्वरूप ( अतीन्द्रियं ) इन्द्रियोंके द्वारा ग्राह्य नहीं है ( अनिर्देश्य ) वचनोंके भी अगोचर है कहा नहीं जाता। वह तो ( स्वसंवेद्यं ) अपने द्वारा आपही अनुभव करने योग्य है । उसी रूप ( अहं अस्मि ) मैं हूँ । भावार्थ - जब तक इस जोवको शुद्ध चैतन्यरूप अपने निजस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती तब तक ही यह जीव मोहरूपी गाढ़निद्रानें पड़ा हुआ सोता रहता है; किन्तु जब अज्ञानभावरूप निद्राका विनाश हो जाता है और शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है उसी समयसे यह जागरित कह लाता है । संसारके रागी जीव व्यवहारमें जागते हैं किन्तु अपने आत्मस्वरूपमें सोते हैं; परन्तु मात्मज्ञानी संयमी पुरुष व्यवहारमें सोते हैं और आत्मस्वरूपमें सदा सावधान एवं जाग्रत रहते हैं' ।। २४ ।। तत्स्वरूपं स्वसंवेदयतो रागादिप्रक्षयान्न क्वचिच्छत्रु मित्रव्यवस्था भवतीति दर्शयन्नाह - क्षीयन्तेऽत्रैव रामाद्यास्तस्वतो मां प्रपश्यतः । दोधारमानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः ॥२५॥ ठीका — अब न केवलम किन्तु अत्रैव जर्मन सी के ते ? रामाखाः आदी भवः कायः राग आयो येषां देशदीनां ते तथोक्ताः किं कुर्वन्तस्ते श्रीयसे ? सरमतो मां प्रपश्यतः । कपम्भूतं मां ? बोषात्मानं शानस्वरूपं । १. जो सुतो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जन्मधि बवहारे सो सुतो मध्य कज्जे ॥ या निशा सर्व भूतानां तस्यां जगति संयमी । यस्यां धाप्रति भूतानि सा निशा एस्तो मुनेः ॥ - मोक्ष प्राभूते, कुन्दकुन्दः २६९ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ इत्यादिन्यतो यथावदात्मानं पश्यतो रागादयः प्रक्षीणास्ततस्तस्मात् कारणात् म मेरिन व नैव प्रिय मित्रम् ||२५|| आत्मस्वरूपका अनुभव करने वालेकी आत्मामें रागादि दोषोंका अभाव हो जानेसे शत्रु-मित्रकी कल्पना हो नहीं होतो, ऐसा दिखाते हैं अभ्ययार्थ - [ यतः ] क्योंकि ( बोधात्मानं ) शुद्ध ज्ञानस्वरूप ( मां ) मुझ आत्माका ( तत्त्वतः प्रपश्यतः ) वास्तव में अनुभव करने वाले के ( अत्र एवं ) इस जन्म में ही ( रागाद्यः ) राग, द्वेष, क्रोध, मान, मायादिक दोष ( क्षीयन्ते ) नष्ट हो जाते हैं ( ततः ) इसलिये ( मे ) मेरा ( न कश्चित् ) न कोई ( शत्रुः ) शत्रु है ( न च ) और न कोई ( प्रियः ) मिश्र है । भावार्थ- जब तक यह जीव अपने निजानन्दमयो स्वाभाविक निराला सुधाभूतका काम नहीं करता तब तक ही वह बाह्य पदार्थीको भ्रमसे इष्ट-अनिष्ट मानकर उनके संयोग-वियोगके लिये सदा चिन्तित रहता है और जो उस संयोग-वियोगमें साधक होते हैं उन्हें अपना शत्रु-मित्र मान लेता है, किन्तु जब आत्मा प्रबुद्ध होकर यथार्थ वस्तुस्थितिका अनुभव करने लगता है तब उसकी रागद्वेषादिरूप विभागपरिणति मिट जाती है और इसलिये बाह्य सामग्री के साधक-बाधक कारणों में उसके शत्रु-मित्रताका भाव नहीं रहता। वह तो उस समय अपने ज्ञानानन्दस्वरूपमें मग्न रहना ही सर्वोपरि समझता है ।। २५ ।। विश्वमन्यस्य कस्यचिन्न शत्रुभित्र वा तचापि तवाश्यः कश्चिद्भविष्यतीत्याशंक्याह- मामपश्यन्नयं लोको न मे मां प्रपश्यन्नर्य लोको न मे टीका-किमात्मस्वरूपे प्रतिपन्नेऽप्रतिपन्ने वाऽयं कोको मभि शत्रु मित्रभावप्रतिपद्यते ? न सावप्रतिपन्ने । मामपश्यन्नर्य लोकोम मे शत्रु प्रमः । प्रतिपन्ने हि वस्तुस्वरूपे रागानुत्पतामतिप्रसङ्गः । नापि प्रतिपन्ने । यतः म प्रपन्न कोको न मे शत्रुगं च प्रियः । कात्मस्वरूपप्रतीती रागाविकप्रक्षमा कर्म क्वचिदपि शत्रुमिवमात्रः स्यात् ? ।। २६॥ यदि कोई कहे कि भले ही तुम किसी दूसरेके शत्रु मा मित्र न हो परन्तु तुम्हारा तो कोई अन्य शत्रु वा मित्र अवश्य होगा, इस शंकाका समाधान करते हुए कहते हैं शत्रुनं च प्रियः । शत्रुमं च प्रियः ॥२६॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचितंत्र २९ अन्वयार्थ - ( मां ) मेरे आत्मस्वरूपको ( अपश्यन् ) नहीं देखता हुआ ( अयं लोकः ) यह अज्ञ प्राणिवृन्द ( न मे शत्रुः ) न मेरा शत्रु है ( न च प्रियः } और न मित्र है तथा ( मां ) मेरे आत्म स्वरूपको ( प्रपश्यन् ) देखता हुआ (अयं लोकः ) यह प्रबुद्ध प्राणिगण ( न मे शत्रुः ) न मेरा शत्रु है ( न च प्रियः ) और न मित्र है । भावार्थ - आत्मज्ञानी विचारता है कि शत्रु-मित्रको कल्पना परिचित व्यक्ति में ही होती है - अपरिचित व्यक्ति में नहीं । ये संसारके बेचारे अशप्राणी जो मुझे देखते जानते हो नहीं- मेरा आत्मस्वरूप जिनके चर्मचक्षुओंके अगोचर है- वे मेरे विषय में शत्रु-मित्रकी कल्पना कैसे कर सकते हैं ? और जो मेरे स्वरूपको जानते हैं---मेरे शुद्धात्मस्वरूप साक्षात् अनुभव करते हैं-उनके रागद्वेषका अभाव हो जानेसे शत्रु-मित्रताके भावकी उत्पत्ति नहीं बनतो, फिर वे मेरे शत्रु वा मित्र कैसे बन सकते हैं ? इस तरह अज्ञ और विज्ञ दोनों ही प्रकारके जीव मेरे शत्रु या मित्र नहीं हैं ॥ २६ ॥ अन्तरात्मनो बहिरात्मत्वत्यागे परमात्यप्राप्ती चोपायत्वं दर्शयन्नाह— महिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः । भावयेत्परमात्मानं सर्वसंकल्पवजितम् (तः) ॥२७॥ टीका - एवमुक्तप्रकारेणान्तरात्मव्यवस्थितः सन् बहिरात्मा व्यवस्था परनातं भावयेत् । कथंभूतं ? सर्व संकर पर्वाजिस विकल्पजालरहित अथवा ससंकल्पवजितः सन् भावयेत् ||२७|| बहिरात्मनेका त्याग होने पर अन्तरात्मा के परमात्मपदको प्राप्तिका उपाय बतलाते हुए कहते हैं अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार ( बहिरात्मानं ) बहिरात्मपनेको ( त्यक्त्वा ) छोड़कर (अंतरात्मव्यवस्थितः ) अंतरात्मामें स्थित होते हुए ( सर्वसंकल्पवर्जित ) सर्वसंकल्प - विकल्पोंसे रहित ( परमात्मानं ) परमास्माको ( भावयेत् ) ध्याना चाहिए । भावार्थ- बहिरात्मावस्थाको अत्यंत हेय ( त्यागने योग्य ) समझकर छोड़ देना चाहिये और आत्मस्वरूपका हायक अन्तरात्मा होकर जगत्के द- फंद चिंता आदि से मुक्त हुआ आत्मोत्थ स्वाधीन सुखकी प्राप्ति के लिये परमात्मा के चितन आराधन पूर्वक सद्रूप बननेकी भावना करनी चाहिये ॥ २७ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितक तद्भावनायाः फलं दर्शयन्नाह सोऽहमित्याससंस्कारस्तस्मन् माधनया चुनः । तत्रैध दृढ़संस्कारारुलभते यात्मनि' स्थितिम् ॥२८॥ धोका-योऽनन्तशानात्मकः प्रसिद्धः परमात्मा सोऽहमित्येवमातसंस्कारः आप्तो गृहीतः संस्कारो वासना येन । कया कस्मिन् ? भावनया तस्मिन् परमात्मनि भावनया सोझमित्मभेदाम्यासेन । पुनरिस्यन्तर्गभिंतवीप्सार्थः । पुनः पुनस्तस्मिन् मावनया। तब परमात्मन्येष वृहसंस्कारात् अविचलवासनावशात् । लभते प्राप्नोति ध्याता। हि स्फुटम् । आत्ममि स्पिति आत्मन्यचलता अनन्तज्ञानादिचतुष्टयरूपतां वा ॥२८॥ बम्बयाणं--( तस्मिन् ) उस परमात्मपदमें ( भावनया) भावना करते रहने से ( सः अहं ) 'वह अनन्तज्ञानस्वरूप परमात्मा मैं हूँ' (इति) इस प्रकारके ( आत्तसंस्कारः) संस्कारको प्राप्त हुआ ज्ञानी पुरुष (पुनः) फिर फिर उस परमात्मपदमें आत्मस्वरूपकी भावना करता हुआ (तत्रैव) उसी परमात्मस्वरूपमें ( दहसंस्कारात् ) संस्कारकी दृढ़ताके हो जानेसे (हि) निश्चयसे ( आत्मनि ) अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूपमें ( स्थिति लभते) स्थिरताको प्राप्त होता है। भावार्थ-जब 'सोऽहम्'को दुढ़ भावना द्वारा परमात्मपदके साय जीवात्माकी एकत्व बुद्धि हो जाती है तभी इस जीवको अपनी अनन्तचतुष्टयरूप निधिका परिज्ञान हो जाता है और वह अपनेको वीतरागी परमआनन्दस्वरूप मानने लगता है । उस समय काल्पनिक क्षणिक सांसारिक सुखके कारण बाह्यपदार्थों में उसका ममत्व छूट जाता है, रागद्वेष की मंदता हो जाती है और अभेदबुद्धिसे परमात्मस्वरूपका चितवन करते-करते आत्मा अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर हो जाता है। इसीको यात्मलाभ कहते हैं, जिसके फलस्वरूप आत्मा अनन्तकाल तक निराकुल अनुपम स्वाधीन सुखका भोक्ता होता है। अतः 'सोऽहम्' की यह भावना बड़ी ही उपयोगी है, उसके द्वारा अपने आत्मामें परमारमपदके संस्कार डालने चाहिये ॥ २८ ॥ नन्वात्मभावनाविषये कष्टपरम्परासदभावेन भयोत्पत्तः कथं कस्यचितत्र प्रवृत्तिरित्याशङ्का निराकुर्वनाह १. हात्मनः इति पाठान्तर 'ग' प्रती । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- समानितंत्र मढ़ात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम् । यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः ॥२९॥ टोका-मूढारमा बहिरात्मा । पत्र शरीरपुषकलादिषु । विश्वस्सोऽव. चकाभिप्रायेण विश्वास प्रतिपन्नः-मदीया येते अहमेतेषामिति बुद्धि गत इत्यर्थः । ततो नान्यदयास्पदं ततः शरीरादेन्यिद्भयास्पदं संसारदुःखवासस्थास्पद स्थानम् । यसो भीतः परमात्मस्वरूपसंवेदनाभीतः त्रस्तः । ततो मान्यवभवस्थान सतः स्वसंवेदनात नान्यत् अभयस्म संसारदुःखत्रासाभावस्य स्थानमास्पदम् । सुखास्पदं ततो नान्यदित्यर्थः ॥२९॥ यदि कोई आशंका करे कि परमात्माकी भावना करना तो बड़ा कठिन कार्य है, उसमें तो कष्ट परम्पराके सद्भावके कारण भय बना रहता है, फिर जीवोंकी प्रवृत्ति उसमें कैसे हो सकती है ? ऐसो आशंका. का निराकरण करते हुए कहते हैं____ अन्वयार्थ--( मूढात्मा ) अज्ञानी बहिरात्मा ( यत्र ) जिन शरीरपुत्रमित्रादि बाह्यपदार्थोंमें ( विश्वस्तः) 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' ऐसा विश्वास करता है (ततः) उन शरीर-स्त्री-पुत्रादि बाद्यपदार्थोस { अन्यत् ) और कोई ( भयास्पद न ) भयका स्थान नहीं है और ( यतः) जिस परमात्मस्वरूपके अनुभवसे ( भीतः ) डरा रहता है ( ततः अन्यत्) उसके सिवाय दूसरा ( आस्मनः) आत्माके लिये ( अभयस्थान न) निर्भयताका स्थान नहीं है। भावार्थ-जैसे सर्पसे बसा हुआ मनुष्य कडुवा नीम भी रुचिसे चबाता है उसी प्रकार विषय-कषायों में संलग्न हुए जीवको दुःखदाई शरीरादिक बाह्यपदार्थ भो मनोहर एवं सुखदाई मालूम होते हैं और पित्तज्वर वाले रोगोको जिस प्रकार मधुर दुग्ध कडूवा मालम होता है उसी प्रकार बहिरात्मा अशानो जीवको सुखदाई परमात्मस्वरूपकी भावना भो कष्टप्रद मालूम पड़ती है और इसी विपरीत बुद्धिके कारण यह जीव अनादिकालसे दुखी हो रहा है। वास्तवमें इस जीवके लिए परमात्मस्वरूपके अनुभवके समान और कोई भी सुखदाई पदार्थ संसारमें नहीं है और न शरीरके समान दुखदाई कोई दूसरा पदार्थ ही है ॥ २९ ॥ तस्यात्मनः कीदृशः प्रतिपत्त्युपाय हत्याह सन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेमान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तसत्वं परमात्मनः ॥३०॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L - . - - - २२ समापिर्तन टीका-संयम्य स्वविषये गच्छन्ति निरुध्य | कानि ? सनियाणि पञ्चापीन्द्रियाणि । तदनन्तरं स्तिमितेन स्थिरीभूतेन । अस्तरास्ममा मनसा । यत्स्वरूप भाति । कि कुर्वतः ? क्षार्म पश्यतः क्षणमात्रमनुभवतः बहुतरकालं मनसा स्थिरीफर्तुमशक्यत्वात् स्तोककालं मनो निरोघ फल्ला पश्यतो यचिदानन्दस्वरूप प्रतिमाति ततत्वं तदपं तत्त्वं स्वरूपं परमात्मनः ।। ३० ॥ अब उस आत्माकी प्राप्ति किस उपायसे होती है उसे बतलाते हैं-- अन्यया-(सर्वेन्द्रियाणि ) सम्पूर्ण पादों इन्द्रियोंको ( संपम्य ) अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करनेसे रोककर ( स्तिमितेन ) स्थिर हुए ( अन्तरात्मना ) अन्तःकरणके द्वारा (क्षणे पश्यतः ) क्षणमात्रके लिए अनुभव करने वाले जीवके ( यत् ) जो चिदानन्दस्वरूप ( भाति ) प्रतिभासित होता है । ( सत् ) वही ( परमात्मनः) परमात्माका (तत्व) स्वरूप है। भावार्थ-परमात्माका अनुभव प्राप्त करनेके लिए स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पांचों इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करनेसे रोककर मनको स्थिर करना चाहिये । अर्थात उसे अस्तजंल्पादिरूप संकल्प-विकल्पसे मुक्त करना चाहिये। ऐसा होनेपर जो अन्तरंगावलोकन किया जायेगा उसीसे शुद्ध चैतन्यमय परमात्मस्वरूपका अनुभव हो सकेगा । इन्द्रियों द्वारा शेयपदार्थों में भ्रमती हुई चित्तवृत्तिको रोके बिना कुछ भी नहीं बनता । अतः आत्मानुभवके लिए उसे रोकनेका सबसे पहले प्रयत्न होना चाहिये || ३०॥ कस्मिन्माराधिते सत्स्वल्पंप्राप्तिभविष्यतीत्यागयाइयः परास्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः' कविचविति स्थितिः ॥३१॥ टोका-या प्रसिद्धः पर उत्कष्ट आरम स एवाई। यो यः स्वसंवेदनेन प्रसिद्धोमन्तरात्मा स परमः परमात्मा । ततो यतो मया सह परमात्मनोऽभेद स्ततोशमेव मया उपास्य आराध्यः । नान्यः कश्चिन्मयोपास्य इति स्पितिः । एवं स्वरूप एवाराध्याराधकभाषव्यवस्था ॥ ३१ ॥ अब यह बतलाते हैं कि परमात्मस्वरूपको प्राप्ति किसकी आराधना करने पर होगी-- अन्वयार्थ (यः ) जो ( परात्मा) परमात्मा है ( स एष ) वह हो ( अहं ) में हूँ तथा (यः) जो स्वानुभवगम्य { मह ) मैं हूँ (सः ) वही १. 'नामः इति पाठान्तर 'ग' प्रती । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाषितंत्र ३३ ( परमः ) परमात्मा है ( ततः ) इसलिये- -जब कि परमात्मा और आत्मामें अभेद है ( अहं एव ) में ही ( मया ) मेरे द्वारा ( उपास्यः ) उपासना किये जानेके योग्य है ( कश्चित् अन्यः न ) दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं, ( इति स्थितिः ) इस प्रकार ही आराध्य आराधक - भावकी व्यवस्था है । भावार्थ - जब यह अन्तरात्मा अपनेको सिद्ध समान शुद्ध, बुद्ध, ज्ञाता, दृष्टा, अनुभव करता हुआ अभेद-भावनाके बल पर शुद्ध आत्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है तभी वह कर्मबन्धनको नष्ट करके परमात्मा बन जाता है। अतएव सांसारिक दुःखोंसे छूटने अथवा दृढ़-बंधन से मुक्त होने के लिए अपना शुद्धात्मस्वरूप ही उपासना किये जानेके योग्य है || ३१ || एतदेव दर्शयन्नाह - प्राव्य विषयेभ्योऽहं मां मथैव मयि स्थितम् । बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्थं तम् ||३२|| टीका-मामात्मानम् प्रपन्नः प्राप्तोऽस्मि भवामि । किं कृत्वा ? प्रच्या व्यावत्य केभ्यः ? विषयेभ्यः । केन कृत्वा ? मयेवात्मस्वरूपेणैव करणात्मना । पव स्थित मां प्रपन्नोऽहं ? मयि स्थितं आत्मस्वरूप एक स्थितम् । कथम्भूतं मां ? tered ज्ञानस्वरूपम् । पुनरपि कथम्भूतम् ? परमानन्यनिवृतं परमश्चामावानन्दश्च सुखं तेन निर्वृतं सुखीभूतम् । अथवा परमानन्दमिव सोऽहम् ।। ३२ ।। आगे इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं अन्वयार्थ - (अहं) मैं ( मयि स्थितम् ) अपनेही में स्थित ज्ञानस्वरूप ( परमानन्दनिर्वृतम् ) परम आनन्दसे परिपूर्ण ( मां ) अपनी आत्माको ( विषयेभ्यः ) पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे ( प्रच्याव्य ) छुड़ाकर ( मया एव ) अपने ही द्वारा ( प्रपन्नोऽस्मि ) आत्मस्वरूपको प्राप्त हुआ हूँ । भावार्थ - जिस परमात्मपदके प्राप्त करनेको अभिलाषा है वह शक्तिरूपसे इस आत्मामें ही मौजूद है; किन्तु उसकी व्यक्ति अथवा प्राप्ति इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्त होकर ज्ञान और वैराग्यका सुदृढ़ अभ्यास करनेसे होती है । इसलिए हमें चाहिए कि हम जोवन्मुक्त परमात्मा के दिव्य उपदेशका मनन करके उसके नक्शेकदम पर चलें और उन जैसी वीतरागध्यानमयी शक्ति - मुद्रा बनकर चैतन्य जिनप्रतिमा बननेको कोशिश करें तथा उनकी सौम्याकृतिरूप प्रतिबिम्बका चित्र अपने हृदय पटल पर ३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ समाधितंत्र अंकित करें। इस तरह आत्मस्वरूपके साधक कारणोंको उपयोगमें लाकर स्वयं ही परमात्मपद प्राप्त करें और निजानन्द-रसफा पान करते हुए अनन्तकाल तक अनन्त सुखमैं मग्न रहें ॥ ३२ ॥ एवमात्मान शरीरादीनं यो म जानाति तं प्रत्याह--- यो न वेत्ति परं , देहादेवमात्मानमव्ययम् । सभी सन सिस्वापि परमं तपः ॥३३॥ टीका-यः प्रतिपन्नाद् व्हात्सरं भिग्नमारमानवमुक्तप्रकारेण न वेति । कि विशिष्टम् ? अमय अपरित्यक्तानन्तचतुष्टयस्वरूपम् । स प्रतिपन्नामा निर्वाण लभते । किं कृत्वा ? सम्स्वाऽपि । किं तत् ? परमं तमः ।। ३३ ।। ___ इस प्रकार जो शरीरसे आत्माको भिन्न नहीं जानता है उसके प्रति कहते हैं : अन्वयार्थ-( एवं ) उक्त प्रकारसे ( यः ) जो ( अव्यर्य ) अविनाशी ( आत्मानं ) आत्माको ( देहात ) शरीरसे ( परं न वेत्ति ) भिन्न नहीं जानता है। सः) वह ( परमं तपः तप्त्वापि घोर तपश्चरण करके भी (निर्वाणं ) मोक्षको ( न लभते ) प्राप्त नहीं करता है । भावार्थ-संसारमें दुःखका मूल कारण आत्मज्ञानका अभाव है। जब तक यह अज्ञान बना रहता है तब तक दुःखोंसे छुटकारा नहीं मिलता। इसी कारण जो पुरुष आत्माके वास्तविक स्वरूपको नहीं पहचानता-विनश्वर पुद्गल पिण्डमय शरीरको ही आत्मा जानता हैवह कितना ही घोर तपश्चरण क्यों न करे, मुक्तिको नहीं पा सकता है। क्योंकि मुक्ति के लिए जिससे मुक्त होना है और जिसको मुक्त होना है दोनोंका मेदज्ञान आवश्यक है। जब मूलमें हो भूल हो तब तपश्चरण क्या सहायता पहुंचा सकता है। ऐसे ही लोगोंको मुक्ति-उपासना बहुधा अन्य बाह्य पदार्थों की तरह सांसारिक विषय सुखका हो साधन बन जाती है और इसीलिए घोरातिघोर तपश्चरण द्वारा शरीरको अनेक प्रकारसे कष्ट देते और सुखाते हुए भी वे कर्मबन्धनसे छूट नहीं पाते, प्रत्युत अपने उस बाल तपश्चरणके कारण संसारमें ही परिभ्रमण करते रहते हैं । अतः आत्मज्ञानपूर्वक तपश्चरण करना हो सार्थक और सिद्धिका कारण है। किसी कविने ठीक कहा वेतन चित परिचय बिना, जप तप सबै निरत्य । कण बिन तुष जिम फटकते, कछु न मावे कृत्य ।। ३३ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र मनु परमतपोऽनुष्ठामिना महादुःखोत्पत्तितो मनः क्षेवसद्भावात्कयं निर्वाणप्राप्तिरिति वदन्तं प्रत्याह आस्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हावनिर्वृतः। सपसा तुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ॥३४॥ दोका-आत्मा च देहश्च तयोरनरजानं भेदशानं नेन जनितश्यासावा हायश्च परमप्रसत्तिस्तेन नितः सुखीभूतः सन् तपसा द्वादशविधेन कृत्वा । दुनातं घोरं भुन्यानोऽपि दुष्कर्मणो रौद्रस्य विपाकमनुभवन्नपि में सिखते न खेद गच्छति ॥३४॥ __ यदि कोई आशंका करे कि मुक्ति के लिए घोर तपश्चरण करने वालोंके महादुःखोंको उत्पत्ति होती है और उस दुःखोल्पत्तिसे चित्तमें बराबर खेद बना रहता है सब उनको मुक्तिको प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उत्तरमें कहते हैं अन्वयार्थ ( आत्मदेहांतरज्ञानजनिताल्हानिर्वृतः ) आत्मा और शरीरके भेद-विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह (तपसा) तपक रादिस प्रकारका सदा उसमें गये हुए ( घोरं दुष्कृत) भयानक दुष्कर्मो के फलको (भुजानः अपि) भोगता हुआ भी (न खिद्यते) खेदको प्राप्त नहीं होता है। भावार्थ:-जिस समय इस जीवके अनुभव में शरीर और आत्मा भिन्नभिन्न दिखाई देने लगते हैं, उस समय शारीरिक विषय-सुखोंके लिये परपदार्थकी सारी चिन्ता मिट जाती हैं, उसके फलस्वरूप आत्मा परमा। नन्दमें लीन हो जाता है-उसे दुखका अनुभव ही नहीं होता। क्योंकि संसारमें इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, रोग और भूख-प्यासादिजन्य जितने भी दुःख हैं वे सब शरीरके आश्रित हैं-शरीरको आत्मा माननेसे उन सब दुखोंमें भाग लेना पड़ता है । जब भेद विज्ञानके द्वारा शरीरसे ममस्व छूटकर आत्मा स्वरूपमें स्थिर हुआ आनन्दमान हो जाता है तब वह तपश्चरणके कष्टोंको महसूस नहीं करता और न तपश्चरणके अवसर पर आए हुए उपसर्गादिकोंसे खेदखिन्न ही होता है । उसका आनन्द अवाषित रहता है ।। ३४ ॥ खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपसम्भाभाव दर्शयन्ताह रागद्वेषा विकारलोलेरलोलं यन्मनो जलम् । स पश्याश्यात्मनस्तस्य स तस्वं नेतरो जनः ॥३५॥ १. तसत्त्वं, इति पाठशन्तर 'क' पुस्तके ! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र ___टी-रागद्वेषादम एव कल्लोलास्तरलोलमचञ्चलमफलुष का। यमनोजल मन एव जलं मनोजलं पस्य मनोजलम् यन्मनोजलम् । स प्रात्मा । पश्यति । आत्मनस्तरषमात्मनः स्वरूपम् । स तत्वम् । स आरमदी तस्वं परमात्मस्वरूपम् । नेतरो जामः रागादि परिणतः [ अन्यः अनात्मदर्शी जनः ] तस्वं न भवति ।।३५।। जिन्हें तपश्चरण करते हुए खेद होता है उन्हें आस्मस्वरूपकी उपलब्धि नहीं हुई ऐसा दशति हुए कहते हैं अन्वयार्थ-( यन्मनोजलम् ) जिसका मनरूपी जल ( राग-द्वेषादिकल्लोलेः) राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया-लोभादि तरंगोसे ( अलोल) चंचल नहीं होता ( सः) वही पुरुष ( आत्मनः तत्वम् ) आत्माके यथार्थ स्वरूपको ( पश्यति । ससा है. -अनुभव करता है- तत् तत्पम् । उस आत्मतस्थको ( इतरो जन ) दूसरा राग द्वेषादि कल्लोलोंसे आकुलितचित्त मनुष्य ( न पश्यति ) नहीं देख सकता है। भावार्थ-जिस प्रकार तरंगित जलमें जलस्थित वस्तुका ठीक प्रतिभास नहीं होता-वह दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार राग-द्वेषादिकल्लोलोंसे आकुलित हुए सविकल्प मनद्वारा आत्माका दर्शन नहीं होता! आत्मदर्शनके लिए मनको निर्विकल्प बनाना होगा । वास्तवमें निर्विकल्प मन ही आत्मतत्त्व है--सविकल्प मन नहीं ॥ ३५ ॥ कि पुनस्तत्वशग्दैनोच्यत इत्याह अविक्षिप्तं मनस्तत्वं, विक्षिप्त भ्रान्तिरात्मनः । ५ikta धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्त नाश्रयेत्ततः ॥३६॥ टीका-अविक्षिप्तं रागाद्यपरिगत. देहादिनाऽऽस्मनोऽभेदाध्यवसायपरिहारेण स्वस्वरूप एव निश्चलतां गतम् । इत्थंभूतं मनः सत्वं वास्तई रूपमात्मनः । विक्षिप्त उक्तविपरीतं मनो आम्तिरात्मस्वरूपं न भवति । यत एवं तस्मात धारयेत् किं तत् ? मनः । कथम्भूतम् ? अविक्षिप्त । विक्षिप्तं पुनस्सत् नामयेल धारयेस्' ।।३६।। .आगे इसी आत्मतत्वके वाच्यको स्पष्ट करते हुए कहते हैं अन्वया--( अविक्षिप्तं ) रागादिपरिणतिसे रहित तथा शरीर और आत्माको एक माननेरूप मिथ्या अभिप्रायसे रहित जो स्वरूपमें स्थिर है ( मनः ) यही मन है ( आत्मनः तत्वं ) आत्माका वास्तविक रूप है और ( विक्षिप्तं) रागादिरूप परिणत हुमा एवं शरीर तथा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाचितंत्र आत्माके भेदज्ञानसे शून्यमन है वह ( आत्मनः भ्रान्तिः ) आल्माका विभ्रम है--आत्माका निजरूप नहीं है ( ततः ) इसलिये ( तत्त अविक्षिप्त ) उस रागद्वषादिसे रहित मारको । धाररोदभार, कर साहिने और ( विक्षिप्त ) रागद्वेषादिसे क्षुब्ध हुए मनको { न आश्रयेत् ) आश्रय नहीं देना चाहिये। भावार्थ-जिस समय ज्ञानस्वरूप शुद्ध मन, रागादिक विभावभावोसे रहित होकर शरीरादिक बाह्य पदार्थोसे आत्माको भिन्न चैतन्यमय एक टॅकोल्कीर्ण ज्ञायक स्वभावरूप अनुभव करने लगता है तथा उसमें तन्मय हो जाता है, उस समय उस अविक्षिप्त एवं निर्विकल्प मनको 'आत्मतत्व' समझना चाहिये । परन्तु जब उसमें विकल्प उठने लगते हैं तब उमे आत्मतत्व न कहकर 'आत्मभ्रान्ति' कहना चाहिये । अतः आत्म लाभके इच्छुकोंको चाहिये कि वे अपने मनको डांवाडोल न रखकर स्वरूपमें स्थिर करनेका दुइ प्रयत्न करें, क्योंकि मनको अस्थिरता ही रागादि परिणतिका कारण है ॥ ३६ ।। कुत्तः पुनर्मनसो विक्षेपो भवति कुतश्चाविक्षेप इत्याह--- अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं लिप्यते मनः । तदेव मानसंस्कारैः स्वतस्तस्ऽवतिष्ठते ॥३७॥ टीका-शरीराणी शुधिस्थिरास्मीयादिज्ञानान्यविद्यास्तासामम्यासः पुनः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जमिताः संस्कारा वासनास्त्रः कृत्वा । अपक्ष विषयेन्द्रियाधीनममात्मायसमित्यर्षः । शिप्यते विक्षिप्तं भवसि मनः। तबेक मनः शामसंस्काररात्मनः शरीरापियो भेवज्ञानाम्पासैः । स्वतः स्वयमेव । तत्त्वे आत्मस्वरूपे सबतिष्ठते ॥३॥ किस कारणसे मन विक्षिप्त होता है और किस कारणसे अविक्षिप्त, आगे इसी बातको बतलाते हैं अन्वयार्ष--( अविद्याभ्याससंस्कारैः) शरीरादिकको शुचि, स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्तिरूम अभ्याससे उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा मनः) मन (अवश) स्वाधीन न रहकर ( क्षिप्यते)विक्षिप्त हो जाता है-रागी द्वेषी बन जाता है और ( तदेव ) यही मन ( ज्ञानसंस्कारः ) आत्म-देहके भेद विज्ञानरूप संस्कारों द्वारा ( स्वतः ) स्वयं हो ( तत्वे ) आत्मस्वरूपमें (अवतिष्ठते) स्थिर हो जाता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचितंत्र भावार्थ - मनके विक्षिप्त होनेका वास्तविक कारण अज्ञान है और उसके अविक्षिप्त रहनेका कारण है ज्ञानाभ्यास अतः परद्रव्यमें आत्मबुद्धि आदिरूप अज्ञानके संस्कारोंको हटाना चाहिये और स्व-पर-भेदविज्ञानके अभ्यासरूप ज्ञानके संस्कारोंको बढ़ाना चाहिये जिससे स्वरूपकी उपलब्धि एवं आत्मस्वरूपमें स्थिति हो सके ॥ ३७ ॥ ३८ वित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपेव फलं दर्शयन्नाह अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः । मापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः ॥३८॥ टीका - अपमानो महत्त्व अवज्ञा च स आदियेषां मदेयमात्सर्यादीनां ते अपमानादयो भवन्ति । यस्य चेतसो थियो रागादिपरिणतिर्भवति । यस्य पुनश्वेतसो न क्षपोविक्षेपो नास्ति । तस्य नापमानादयो भवन्ति ||३८|| चित्तके विक्षिप्त और अविक्षिप्त होने पर फल विशेषको दर्शाते हुए पाते हैं- अन्वयार्थ -- ( यस्य चेतसः ) जिसके चित्तका ( विक्षेपः ) रागादिरूप परिणमन होता है ( तस्य ) उसीके ( अपमानादय: ) अपमानादिक होते हैं । (यस्य चेतसः ) जिसके चित्तका (क्षेपः न ) राग-द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता ( तस्य ) उसके ( अपमानादयः न ) अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते हैं । भावार्थ -- जब तक चित्तमें रागद्वेषादिक विभावरूप कुत्सित संस्कारोंका सम्बन्ध रहता है तभी तक मन साधारणसे भी बाह्य निमित्तोंको पाकर क्षुभित हो जाता है और अमुक पुरुषने मेरा मान भंग किया, अमुकने मेरा तिरस्कार किया, मुझे नीचा दिखाया इत्यादि कल्पनाएँ करके दुःखित होता है । परन्तु जब विशॆषका मूलकारण राग-द्वेष-मोहभाव दूर हो जाता है तब वह अपने अपमानादिकको महसूस नहीं करता और न उस प्रकारकी कल्पनाएँ ही उसे सताती हैं ।। ३८ ।। क्षणात् ॥ ३९ ॥ अपमानादीनां चापगमे उपायमाह्यवा मोहात्प्रमयेते रागद्वेषौ तदेव भावयेत्स्वस्वमात्मानं शाम्यतः टोका— मोहान्मोहनीय कर्मोदयात् । या प्रजायेते कल्य ? तपस्थिमः । तवेव रागद्वेषोदयकाल एव । विषयादुव्यावृत्तस्वरूपस्थं भावयेत् । शाम्यत उपशमं गच्छतः । रागद्वेषौ । शणात् वनमात्रेण ||३९|| चत्पद्येते । को ? राम आत्मानं स्वल्प बाह्य तपस्विनः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाभित्र अब अपमानादिकके दूर करनेका उपाय बतलाते हैं बन्धयार्य-( यदा ) जिस समय ( तपस्विनः) किसी तपस्वी अन्तरात्माके ( मोहात् ) मोहनीय कर्मके उदयसे ( रागद्वेषौ ) राग और द्वेष (प्रजायते) उत्पन्न हो जावें ( तदा एव ) उसी समय वह तपस्वी ( स्वस्थं आल्मान ) अपने शुद्ध आत्मस्वरूपकी ( भावयेत् ) भावना करे। इससे ३ रागद्वेषादिक (क्षणात् ) क्षणभरमें ( शाम्यतः ) शांत हो जाते हैं। भावार्थ-इन राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया और लोभादिरूप कुभावोंकी उत्पत्ति का मूल कारण अज्ञान है । शरीर और आत्माका भेद-विज्ञान न होनेसे ही ये मनोविकार चित्तकी निश्चल वृत्तिको चलाय. मान कर देते हैं। कुभावोंके विनाशका एकमात्र उपाय आत्मस्वरूपका चिंतन करना है। जैसे ग्रीष्मकालीन सूर्यको प्रचण्ड किरणोंके तापसे संतप्त हुए मानव के लिए शीतल जलका पान, स्नान, नन्दनादिकका लेप और वृक्षको सघन छायाका आश्रय उसके उस तापको दूर करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार मोहरूपी सूर्यको प्रचण्ड कषायरूपी किरणोंसे संतप्त हुए अन्तरालमाके लिये अपने शुद्ध स्वरूपका चिंतन हो उस तापसे छुडानेका एकमात्र उपाय है ।। ३९ ।। तत्र रागद्वेषयोंविषयं विपक्षं च वर्शयन्नाह या काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् । पर या तदुत्तमे कार्य योजयेत्प्रेम नश्यति ॥४०॥ टीनायनात्मीये परकीये या काये वा शरीर इन्द्रियविषयससंघाते । मुनेः प्रेम स्नेहः । ततः तामात् प्रच्याय घ्यावत्यं । यहिन आत्मानम् । कया? पुखपा विवेकमानेन । पश्चासतमे काये तस्मात् प्रामुक्तकायादुत्तमें शिवानन्दमये । काये बामस्वल्पे । योजयेत् । कया कृत्वा ? बुद्धपा मन्तदृष्टया । ततः किं भवति ? प्रेम मायति कामस्नेहो । भवति ।।४॥ अब उन राग और द्वेषके विषय तथा विपक्षको दिखाते हुए कहते हैं--- अन्वयार्प-( यत्र काये ) जिस शरीरमें ( मुनेः ) मुनिका-अन्तराल्माका (प्रेम ) प्रेम-स्नेह है (ततः) उससे ( बुख्या) भेद विज्ञानके आधार पर ( देहिनम् ) आत्माको ( प्रच्याव्य ) पृथक् करके ( तदुत्तमेकाये) उस उत्तम चिदानन्दमय कायमें- आरमस्वरूपों ( योजयेद) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितंच लगावे । ऐसा करनेसे ( प्रेम नश्यति ) बाह्य शरीर और इन्द्रियविषयोंमें होने वाला प्रेम नष्ट हो जाता है। ___ भावार्थ-जब तक इस जीवको अपने निजानन्दमय निराकुल शांत उपवनमें कीड़ा करनेका अवसर नहीं मिलता, तब तक ही यह जीव अस्थि, मांस और मल-मूत्रसे भरे हुए अपावन णित स्त्री आदिके शरीरमें और पांच इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त रहता है। किन्तु जब दर्शनमोहादिके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे इसके चित्तमें विवेकज्ञान जागृत हो जाता है तब स्वपर स्वरूपका ज्ञायक होकर अपने ही प्रशान्त एवं निजानन्दमय सुधारसका पान करने लगता है और बाह्य इन्द्रियोंके पराधीन विषयोंको हेय समझकर उदासीन हो जाता है अथवा उनका सर्वथा त्यागकर निग्रंथ साधु बन जाता है और भोर समानरमानिने द्वारा आस्माकी वास्तविक शुद्धि करके सच्चे स्वाधीन एवं अविनाशी आत्मपदको प्राप्त कर लेता है ।। ४० ।। तस्मिन्नष्टे कि भवतीत्याहआत्मविभ्रमजं दुःखमारमतानारप्रशाम्यति । नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ टीमा आत्मविभ्रम मात्मनो विभ्रमोऽनात्मशारीराचावात्मेति भानं । तस्माज्जातं यत् फुःखं तत्पशाम्यति | कस्मात् ? आत्मज्ञानात् शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वल्पवेदनात् । ननु दुर्धरतपोऽनुष्ठानान्मुक्तिसिद्धरेतस्तदुःखोपशमो न भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याइ-नेत्यादि । तत्र आत्मस्वरूपे अयता: अयस्नपरः । म मिर्वान्ति न निर्वाणं गच्छति सुखिनो वा न भवन्ति । अत्यापि तप्याऽपिः। कि सत् ? परमं तपः दुखंरानुष्ठानम् ॥४१॥ उस भ्रमात्मक प्रेमके नष्ट होनेपर क्या होता है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ--( आत्मविभ्रज) शरीरादिकमें आत्मबुद्धिरूप विभ्रमसे उत्पन्न होने वाला ( दुःखं ) दुख-कष्ट (आत्मशानात् ) शरीरादिसे भिन्नरूप आत्मस्वरूपके अनुभव करनेसे (प्रशाम्यति ) शांत हो जाता है। अतएव जो पुरुष ( तत्र) भेदविज्ञानके द्वारा आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेमें ( अयताः) प्रयत्न नहीं करते वे (परमं ) उस्कृष्ट एवं दुर्द्धर (तपं) तपको ( कृत्वापि) करके भी (न निर्वान्ति ) निर्वाणको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं होते हैं। भावार्थ-कर्मबन्धनसे छूटनेके लिए आत्मज्ञानपूर्वक किया इमा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . -. - - . ... समाषितंत्र इच्छानिरोधरूप तपश्चरण ही कार्यकारी है । आत्मज्ञानसे शून्य केवल शरीरको कष्ट देने वाले तपश्चरण तपश्चरण नहीं है-संसारपरिभ्रमणके ही कारण हैं। उनसे आत्मा कभी भो कर्मोके बन्धनसे छूट नहीं सकता और न स्वरूप में स्थिर हो सकता है। उसको कष्ट-परम्परा बढ़ती ही चलो जाता है ।। ४१ ।। तब्ध फुर्वाणो वहिरात्मा अन्तराश्मा च किं करोतीत्याह शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति । उत्पन्नाऽऽत्मभतिदेहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥४२॥ टोका-हे उत्पन्नात्ममतिबहिरात्मा। अभिवाम्यसि अभिलपति । किन ? शुभं शरीरं । दिपश्चि उसमान् स्वर्गसम्बन्धिनो दा विषयान् अन्तरात्मा कि करोतीत्याष्ठ-तरवशानी सतप्पुतिम् । तत्त्वज्ञानी विवेकी अन्तरात्मा । ततः शरीरादेः । व्युति व्यावृत्ति मुक्तिरूपा अभिवाञ्छति ।।४।। तपको करके बहिरात्मा क्या चाहता है और अन्तरात्मामें क्या चाहता है, इसे दिखाते हैं बन्वयार्थ--( दहे उत्पन्नात्ममतिः । शरीरमें जिसको आत्मत्वबुद्धि उत्पन्न हो गई है ऐसा बहिरात्मा तप करके ( शुभं शरोरं च ( सुन्दर शरोर और ( दिव्यान् विषयान् ) उत्तमोत्तम अथवा स्वर्ग के विषय भोगोंको ( अभिवांच्छसि ) चाहता है और ( तत्त्वज्ञानी) ज्ञानी अन्तरात्मा ( ततः ) शरीर और तत्सम्बन्धी विषयोंसे ( च्युतिम् ) छूटना चाहता है। भावार्थ-प्रज्ञानी बहिरात्मा स्वर्गादिककी प्राप्तिको ही परमपक्की प्राप्ति समझता है और इसीलिए स्वर्गादिकके मिलनेकी लालसासे पंचाग्नि मादि शरीरको क्लेश देनेवाले तप करता है। प्रत्युत इसके, आत्मज्ञानी अन्तरात्माको ऐसी धारणा नहीं होती, वह सांसारिक विषय-भोगोंमें अपना स्वार्थ नहीं देखता- उन्हें दुखदाई और कष्टकर जानता है और इसलिए इन देहभोगोंसे ममत्व छोड़कर दुर्धर तपश्चरण करता हुआ शरीरादिकसे आत्माको भिन्न करनेका प:म यल करता है-तपश्चरणके द्वारा इन्द्रिय और कषायोंपर विजय पाकर अपने ध्येयको सिति कर लेता है ।। ४२ ।। तत्त्वज्ञानीतरयोजन्यकत्वावन्धकस्ले दर्शयन्नाहपरवाहम्मतिः स्वस्मासम्युतो बध्नास्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहम्मतिपयस्वा परस्माम्मुध्यते पुषः ॥४३॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ समाधितंत्र टीका — परत्र शरीरादी अहम्मतिरात्मवुद्धिर्वहिरात्मा स्वस्मादरिम स्वरूपात् । च्युतौ भ्रष्टः सन् । माति कर्मबन्धनबद्धं करोत्यात्मानं । असंशयं यथा भवति तथा नियमेन बनातीत्यर्थः । स्वस्मिन्नात्मस्वरूपे अहम्मतिः बुद्धोऽसरात्मा । परस्माच्छरीरादेः म्युत्वा पृथग्भूत्वा मुच्यते सकलकर्मबन्धरक्षितो भवति ॥४३॥ अब यह बतलाते हैं कि बहिरात्मा और अन्तरात्मामें कर्मबन्धनका कर्ता कौन है ? अन्वयार्थ - (परवाहम्मतिः) शरीरादिक परपदार्थोंमें जिसकी आत्मबुद्धि हो रही है ऐसा बहिरात्मा ( स्वस्मात् ) अपने आत्मस्वरूपसे ( च्युतः ) भ्रष्ट हुआ ( असंशयम् ) निःसन्देह ( बध्नाति ) अपनेको कर्म बन्धनसे बद्ध करता है और ( स्वस्मिन्नहम्मतिः ) अपने आत्मा के स्वरूपमें ही आत्मबुद्धि रखनेवाला ( बुधः ) अन्तरात्मा ( परस्मात् ) शरीरादिक परके सम्बन्धसे ( च्युत्वा ) च्युत होकर ( मुच्यते ) कर्म बन्धन से छूट जाता है । भावार्थ- बंघका कारण वास्तव में रागादिकभाव है और वह तभी बनता है जब आत्मा अपने स्वरूपका ठीक अनुभव नहीं करता - उसे भूल कर शरीरादिक पर-पदार्थों में आत्मबुद्धि धारण करता है । अन्तरात्मा चूंकि अपने आत्मस्वरूपका ज्ञाता होता है इससे वह अपने आत्मासे भिन्न दूसरे पदार्थों में आत्मबुद्धि धारण नहीं करता - फलतः उसकी परपदार्थोंमें कोई आसक्ति नहीं होती। इसीसे वह कर्मोके बंधनसे नहीं बँधता, किन्तु उससे छूट जाता है ।। ४३ ।। यत्राहम्मतिरात्मनो जाता तलेन कथमध्यवसोयते ? यत्र चान्तरात्मानस्वतेन कर्याभिस्माशंक्याह वृश्यमानमिवं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते । इवमित्यवयवस्तु निष्पन्नं शब्दवजितम् ॥४४॥ टीका- गुरुयमानं शरीरादिकं । किं विशिष्टं ? जिलिङ्गं श्रीणि स्त्रीपुंनपुंसामानि कङ्गानि यस्य तत् दृश्यमानं त्रिलिङ्गं सत् । मूढो महिमा । इदमात्मतत्वं त्रिलिङ्गं मन्यते दृष्यमानादभेदाध्यवसायेन । यः पुनरववृद्धोऽन्तरात्मा स इदमात्मतत्त्वमित्येवं मन्यते । न पुनस्त्रिङ्कितया । तस्था: शरीरवतया मात्मस्वरूपत्वाभावातु । रूपम्मूतमिवमात्मस्वरूपं ! निष्पन्नमना विसंसिद्धम् सचा विकल्पामियानागोचरम् ॥४४॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितष बहिरात्माको जिस पदार्थ में आत्मबुद्धि हो गई है उसे वह कैसा मानता है और अन्तरात्माको जिसमें आत्मबुद्धि उत्पन्न हो गई है उसे वह कैसा अनुभव करता है, आगे इसी आशंकाका निरसन करते हुए कहते हैं ___मन्बयाणं-(मूढः) अज्ञानी बहिराल्मा ( इदं दृश्यमानं ) इस दिखाई देनेवाले शरीरको ( त्रिलिंग अवबुध्यते ) स्त्री-पुरुष नपुसकके भेदसे यह आत्मतत्त्व त्रिलिक रूप है ऐसा मानता है; किन्तु ( अवबुद्धः) आत्मज्ञानी अन्तरात्मा ( इदं) यह आत्मतत्व है-विलिङ्गरूप आत्मतत्व नहीं है वह ( निष्पन्न ) अनादि संसिद्ध है तथा ( शब्दवजितम् ) नामादिक विकल्पोंसे रहित है ( इति ) ऐसा समझता है। भावार्थ-अज्ञानी जीवको शरीरसे भिन्न आत्माको प्रतीति नहीं होती, इसलिए ना तो-गुरु नामकरूपमा चिलिङ्गात्मक शरीरको ही आत्मा मानता है । सम्यग्दृष्टि वस्तुस्वरूपका ज्ञाता है और उसे शरीरसे भिन्न चेतन्यस्वरूप आत्मतत्त्वकी प्रतीति होतो है, इसलिये वह अपने आत्माको तद्रूप हो अनुभव करता-त्रिलिङ्गरूप नहीं-और उसे अनादिसिद्ध तथा-निर्विकल्प समझता है ।। ४४ ॥ मानु यचन्तरात्मैवात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमानह गौरोझ मिथ्यादिरूपं, तस्य कदाचिदभेदभांतिः स्यात् इति वदन्तं प्रत्याह जामनप्यात्मनस्तस्वं विधिवतं भावयन्नपि । पूर्वविभ्रमसंस्कारा भ्रांति भूयोऽपि गच्छति ॥४५॥ टीका–मात्मनस्तत्व स्वरूप बालमपि । तथा विक्षितं पारीरादिम्पोभिन्न भाल्यानपि उभयत्रापिशब्दः, परस्परसमुच्चये। भूयोऽपि पुनरपि । भात गच्छति । कस्मात ? पूर्वविधामसंस्कारात् पूर्व विधमो बहिरामावस्थाभावी शरीरादो स्वात्मविपर्यासस्तेन जनितः संस्कारो वासना तस्मात् ४५|| यदि कोई कहे कि जब अन्तरात्मा इस तरहसे आत्माका अनुभव करता है तो फिर में पुरुष हूँ, गौरा हूँ इत्यादि अभेदरूपको भ्रान्ति उसे कैसे हो जाती है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं... बन्वयार्थ अन्तरात्मा (आत्मनः तत्वं) अपने आस्माके शख चैतन्य स्वरूपको { जानन् अपि ) जानता हुआ भी (विविक्त भावयन् अपि ) और शरीरादिक अन्य पर-पदार्थोंसे भिन्न अनुभव करता हा भी (पूर्वविभ्रमसंस्कारात् ) पहली बहिरामावस्थामें होनेवाले प्रान्तिके संस्कारवश ( भूयोऽपि) पुनरपि (भ्रांतिं गच्छति ) भ्रान्तिको प्राप्त हो जाता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - भावार्थ-यद्यपि अन्तराल्मा अपने आत्माके यथार्थस्वरूपको जानता है और उसे शरीरादिक पर-द्रव्योंसे भिन्न अनुभव भी करता है। फिर भी बहिरामावस्थाके चिरकालीन संस्कासेंके जागृत हो उठनेके कारण कभीकी गारमा रहे पल्ला हो जाता है । इसीसे अन्तराल्मा सम्यग्दृष्टिके शान-चेतनाके साथ कदाचित् कर्म चेतना व कर्मफल-चेतनाका भी सद्भाव माना गया है ।। ४५ ।। भयो भ्रान्ति गतोऽसौ कथं मां त्यजेंदित्याहअचेतममिदं वृषयमवश्यं चेतनं ततः। क्व रुष्यामि क्व तुज्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥४६॥ टोका- पारीरादिक दृश्पमिन्द्रियः प्रतीयमानं । मचेतन जहं रोषतोषादिक कृतं न जानातीत्यर्थः यच्चेतनमात्मस्वरूप तवममिन्द्रियमाई न भवति । तत: यस्तो रोषतोषविषय दृश्यं शरीराविकमवेतनं चेतन स्वारमस्वरूपमदृश्यत्वात्तविषयमेव न भवति ततः पब सध्यामि लुष्याम्यहं । अतः यसो रोषतोषयोः कश्चिदपि विषयो न घटते भत: मध्यस्थ उदासीनोऽहं भवामि ॥४६॥ पुनः भ्रांतिको प्राप्त हुआ अन्तरारमा उस भ्रांतिको फिर से छोड़े? इसे बतलाते हैं अन्वयार्थ-अन्तरात्मा तब अपनी विचार परिणतिको इस रूप करे कि { इदं दृश्यं) यह जो दृष्टिगोचर होनेवाला पदार्थ समूह है वह सबका सब (अचेतनं ) चेतनारहित-जर है और जो (चेतन ) बैतन्यरूप आरमसम है है वह ( अदृश्य ) इन्द्रियों के द्वारा दिखाई नहीं पड़ता (ततः) इसलिए ( क्व रुष्यामि ) मैं किसपर तो क्रोध करू और (पत्र तुष्यामि ) किसपर सन्तोष व्यक्त करू ? ( अतः मह मध्यस्थः भवामि) ऐसी हालत में में तो अब रागद्वेषके परित्यागल्य मध्यस्थभावको धारण करता है। भाषाय-अन्तराल्माको अपने अनाबविचारूप भ्रान्त संस्कारों पर विजय प्राप्त करनेके लिए सदा हो यह विचार करते रहना चाहिए कि जिन पदार्थोको मैं इन्द्रियोंके द्वारा देख रहा हूँ वे सब तो जड़ हैं-पेतना रहित हैं उन पर रोष-तोष करना व्यच है-वे उसे कुछ समझ ही नहीं सकते और जो चैतन्य पदार्थ है वे मुझे दिखाई नहीं पड़ते, वे मेरे रोषतोषका विषय हो नहीं हो सकते । अतः मुझे किसीसे राग-द्वेष न रखकर मध्यस्थ भावका ही अवलम्बन लेना चाहिये ॥ ४६ ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितंत्र इदानीं मूडात्मनोऽन्तरात्मनश्च त्यागोपाषानविषयं प्रदर्शयन्नाहत्यागावाने बहिर्मूहः करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नारसहिरुपादान न स्यागो निष्ठितात्मनः ॥४७॥ टोका-मूहः बहिरात्मा त्यागादाने करोति । पव ? पहिबाहो हि वस्तुनि वेषोदयादभिलाषाभावान्मळाल्मा त्यागं करोति । रागोवयात्तत्राभिलाषोत्यसेरुपादानमिति । आत्मविस अन्तरात्मा पुनरध्यात्म स्वात्मरूप एव त्यागादाने करोति । तत्र हि त्यागो रागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा । स्वीकारश्चिदानन्दादेः । वस्तु निष्ठितात्मा कृत्यकृत्यात्मा तस्य अन्तर्बहिर्वा नोपावाम तथा म त्यागेऽन्तर्वहिर्वा ॥४७॥ अब बहिरात्मा और अन्तरास्माके ल्याग ग्रहण विषयको स्पष्ट करते हुए कहते हैं___ सम्वयार्थ-( मुहः) मूर्ख बहिरात्मा (बहिः ) बाह्य पदायाँका ( त्यागादाने करोति ) त्याग और ग्रहण करता है अर्थात् द्वेषके उदयसे जिनको अनिष्ट समझता है उनको छोड़ देता है और रागके उदयसे जिन्हें इष्ट समझता है उनको ग्रहण कर लेता है तथा ( आत्मवित् ) आरमाके स्वरूपका ज्ञाता अन्तरात्मा ( अध्यात्म त्यागादाने करोति) अन्तरंग राग-द्वेषका त्याग करता है और अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप निजभावोंका ग्रहण करता है। परन्तु (निष्ठतात्मनः) शुद्ध स्वरूपमें स्थित जो कृतकृत्य परमात्मा है उसके (अन्तः बहि) अंतरंग और बहिरंग किसी भी पदार्थका ( न त्यागः ) न तो त्याग होता है और ( न उपादानं ) न ग्रहण होता है। भावार्थ-बहिरात्मा जीव मोहोदयसे जिन बाह्य पदार्थोंमें इष्टअनिष्टको कल्पना करता है उन्हीमें त्याग और ग्रहणकी क्रिया किया करता है। अन्तरात्मा वस्तुस्थितिका जानने वाला होकर वैसा नहीं करता-वह बाह्य पदार्थोसे अपनी चित्तवृत्तिको हटाकर अन्तरंगमें हो त्याग-ग्रहणकी प्रवृत्ति किया करता है-रागादि कषाय भावोंको छोडता है और अपने शुद्ध चैतन्यरूपको अपनाता है। परन्तु परमात्माके कृतकल्य हो जानेके कारण, बाह्य हो या अंतरंग, किसी भी विषयमें स्थान और ग्रहणकी प्रवृत्ति नहीं होती। वे तो अपने सुख स्वरूपमें सदा पिर रहते हैं ।। ४७ ।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितंच अन्तस्त्यागोपादाने या कुर्वाणोऽन्तरात्मा कथं कुर्यादित्याहयुजीत मनसाऽस्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् । मनसा व्यवहारं तु स्यजेद्वापकाययोजितम् ॥४८॥ टीका-आत्मानं यजीस सम्बद्धं कुर्यात् । केन सह ? ममसा मानसन्मानेन चित्तमात्मेत्यभेदेनाध्यवसेदित्यर्थः । पाकामाभ्यां तु पुनर्वियोजयेत् पृथनकुर्यात् वाक्काययोरात्माभेदाभ्यवसायं न कुर्यादित्यर्थः । एतच्च कुर्वाणो व्यवहारं तु प्रतिपाद्य प्रतिपादकभावलक्षणं प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं बा । वामकापयोजित वाक्कायाभ्यो योजित सम्पादितं । केन सह ? मनसा सह मनस्यारोपित व्यवहार मनसा त्यजेत् चित्तेन न चिन्तयेत् ॥४॥ अन्तरात्मा अन्तरंगका त्याग और ग्रहण किस प्रकार करे, उसे बतलाते हैं-- अन्वयार्थ ( आत्मानं ) आत्माको (मनसा) मनके साथ (युजीत) संयोजित करे-चित्त और आत्माका अभेदरूपसे अध्यवसाय करे ( वाक्कायाभ्यां ) वचन और कायसे ( वियोजयेत् ) अलग करे-उन्हें आरमा न समझे ( तु ) और ( वाक्काययोजितम् ) वचन-कायसे किये हुए ( व्यवहारं ) व्यवहारको ( मनसा) मनसे ( त्यजेत् ) छोड़ देवे-उसमें चित्तको न लगावे । मावाई-अन्तरंग रागादिकका त्याग और आत्मगुणोंका ग्रहण करनेके लिये आत्माको चाहिये, कि वह आत्माको मानसज्ञानके साथ तन्मय करे और वचन तथा कायके सर्वकार्योको छोड़कर आत्मचिन्तनमें तल्लीन हो जावे। यदि प्रयोजनवश वचन और कायको क्रिया करनी भी पड़े तो उसे उदासीनभावके साथ अरुचि-पूर्वक कड़वी दवाई पीनेवाले रोगीकी तरह अनासक्तिसे करे ॥ ४८ ।। ननु पुत्रकलत्रादिना सह बाकायभ्यवहारे तु सुखोत्पत्तिः प्रतीयते कथ तस्थागो युक्त इत्याह जगदेहात्मवृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च। स्वात्मन्येवात्मदृष्टीना का विश्वासः क्या था रतिः ॥४९॥ दोका-हात्मवृष्टीना बहिरात्मनां जगत् पुत्रकलाविप्राणिगणो विश्वास्यमवन्चक । व रम्यमेव रमणीयमेव प्रतिभाति । स्वास्मन्येव स्वस्वरूप एवात्मवृष्टीना अन्तरात्मना व विश्वासः क्व वा रतिः ? न पवापि पुत्रकलबाथी तेषां विश्वासो रतिर्वा प्रतिभातीत्यर्थः ॥४९॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजितंत्र यदि कोई कहे कि पुत्र, स्त्री आदिके साथ वचनव्यवहार और शरीरव्यवहार करते हुए तो सुख प्रतीत होता है, फिर उस व्यवहारका त्याग करना कैसे युक्तियुक्त कहा जा सकता है ? उसका समाधान करते हुए कहते हैं--- अन्वयार्थ - ( देहात्मदृष्टीना) शरीरमें आक्रदृष्टि रखने वाले मिथ्यादृष्टि बहिरात्माओं को (जगत्) यह स्त्री-पुत्र मित्रादिका समूहरूप संसार ( विश्वास्य) विश्वास के योग्य (च) और ( रम्यं एव) रमणीय ही मालूम पड़ता है । परन्तु ( स्वात्मनि एव आत्मदृष्टीनां ) अपने आत्मामें ही आत्मदृष्टि रखने वाले सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माओंको ( क्व विश्वासः ) इन स्त्रीपुत्रादि परपदार्थों में कहाँ विश्वास हो सकता है (बा) और (क्व रतिः) कहाँ आसक्ति हो सकती है ? कहीं भी नहीं । भावार्थ - जब तक अपने परमानन्दमय चैतन्य स्वरूपका बोध न होकर इन संसारी जीवोंकी देहमें आत्मबुद्धि बनी रहती है तब तक इन्हें यह स्त्री-पुत्रादिका समूह अपनेको आत्मस्वरूपसे वंचित रखनेवालां ठग समूह प्रतीत नहीं होता, किन्तु विश्वसनीय, रमणीय और उपकारी जान पड़ता है । परन्तु जिन्हें आत्माका परिज्ञान होकर अपने आत्मामें ही आत्मबुद्धि उत्पन्न हो जाती है उनकी दशा इनसे विपरीत होती है-वे इन स्त्रीपुत्रादिको “आत्मरूपके चोर चपल अति दुर्गति-पत्य साई " समझने लगते हैं- किसीको भी अपना आत्मसमर्पण नहीं करते और न किसी में आसक्त ही होते हैं ॥ ४९ ॥ नत्येवमाद्दारादावप्यन्तरात्मनः कथं प्रवृत्तिः स्यादित्या आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेश्चिरम् । कुर्याववशा रिकचिह्नाक्कायाभ्यामंतरवरः ॥५०॥ टीका — चिरं बहुतरं कालं बुद्धौ स धारयेत् । किं तत् ? कम् । कथम्भूतम् ? परमन्यत् । कस्मात् ? आत्मज्ञानातू । आत्मज्ञानलक्षणमेव कार्य बुद्धी चिरं धारमेदित्यर्थः परमपि किचिद् भोजनव्याख्यानादिकं वाक्कायाम्यां कुर्यात् । कस्मात् ? अर्थात् स्वपरोपकारलक्षणत्र योजनवशात् । किविशिष्टः ? बतत्परसदनासक्तः ॥ ५०॥ यदि ऐसा है तो फिर अन्तरात्माकी भोजनादिके ग्रहण में प्रवृत्ति कैसे हो सकती हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं अन्वयार्थ —– अन्तरात्माको चाहिये कि वह (आत्मज्ञानात्परं) आत्मज्ञानसे भिन्न दूसरे ( कार्य ) कार्यको ( चिरं ) अधिक समय तक ( बुद्धी ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L . । । समाधितंत्र अपनी बुद्धिमें (न धारयेत्) धारण नहीं करे । मदि (अर्थवशात्) स्व-परके उपकारादिरूप प्रयोजनके वश ( वाक्कायाभ्यां ) वचन और कायसे (किंचित् कुर्यात्) कुछ करना ही पड़े तो उसे (अतत्परः) अनासक्त होकर (कुर्यात) करे। भावार्थ-आत्महितके इच्छुक अन्तरात्मा पुरुषों को चाहिये कि वे अपने उपयोगको इधर-उधर न भ्रमाकर अपना अधिक समय आत्मचिन्तनमें ही लगावें। यदि स्व-परके उपकारादिवश उन्हें वचन और कायसे कोई कार्य करना ही पड़े तो उसे अनासक्ति पूर्वक करें-उसमें अपने चित्तको अधिक न लगावें। ऐसा करने से वे अपने आत्मस्वरूपसे च्युत नहीं हो सकेंगे और न उनकी शान्ति ही भंग हो सकेगी ।। ५ ।। तदनासक्तः कुतः पुनरात्मशानमव बुद्धौ धारयेन्न शरीरादिकमित्याह--- यत्पश्यामोन्द्रिले नास्ति नलागतेनिहा: अतः पश्यामि सानन्वं तवस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥५१॥ टीका-यच्छरीरादिकमिन्द्रियः पश्यामि तन्मे नास्ति मदीयं रूपं सन्न भवति । तहि किं भम रूपम् ? सबस्तु ज्योतिरत्तमं ज्योतिर्शानमुत्तममतीन्द्रियम् । तथा सामन्वं परमप्रसत्तिसमुद्भतसुखसमन्वितम् । एवं विध ज्योतिरस्नः पक्ष्यामि स्वसंवेदनेनानुभवामि यत्तन्मे स्वरूपमस्तु भवतु किंविशिष्टः पश्यामि ? मियतेनियो नियन्वितेन्द्रियः ।।५१॥ अनासक्त हुआ अन्तरात्मा आत्मज्ञानको ही बुद्धि में धारण करेंशरीरादिकको नहीं, यह कैसे हो सकता है ? उसे बतलाते हैं अन्वयाय-अन्तरात्माको विचारना चाहिये कि (यत्) जो कुछ शरीरादि बाह्य पदार्थ (इन्द्रियः) इन्द्रियों के द्वारा ( पश्यामि ) मैं देखता है। (तत्) वह ( मे) मेरा स्वरूप ( नास्ति) नहीं है, किन्तु (नियतेन्द्रियः ) इन्द्रियों को बाह्य विषयोंसे रोककर स्वाधीन करता हुमा ( मत् ) जिस (उत्तम) उत्कृष्ट अतीन्द्रिय ( सानन्दं ज्योतिः ) आनन्दमय ज्ञान प्रकाशको (अन्तः) अंतरंग ( पश्यामि ) देखता हूँ-अनुभव करता हूँ ( तत् मे ) वहो मेरा वास्तविक स्वरूप (अस्तु) होना चाहिये । भावार्ष-जब अन्तरात्मा भेदज्ञानको दृष्टिसे इन्द्रियगोचर बाह्य शरीरादि पदार्थों को अपना रूप नहीं मानता किन्तु उस परमानन्दमय अतीन्द्रिय ज्ञानप्रकाशको ही अपना स्वरूप समझने लगता है जिसे वह इन्त्रिय व्यापारको रोककर अन्तरंगमें अवलोकन करता है, तब उसका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र मन सहज ही में शरीरादि बाह्य पदार्थोसे हट जाता है-वह उनको आराधना नहीं करता किंतु अपने उक्त स्वरूपका ही आराधन किया करता है-उसीको अधिकांशमें अपनी बुद्धिका विषय बनाये रखता है ।। ५१ ॥ ननु सानन्दं ज्योतियंद्यात्मनो रूपं स्यात्तदेन्द्रियनिरोधं कृत्वा तदनुभवतः कथं दुःखं स्यादित्याह-- सुखमारब्धयोगस्य बहि:खमथात्मनि । बहिरेवाऽसुखं सोल्यमध्यात्म भावितात्मनः ।। ५२ ।। टोका-बहिबाह्यविषये सुखं भवति । कस्य ? आरक्षयोगस्य प्रथममात्मस्वरूपभावनोद्यतस्य । अथ थाहो । मास्मनि आत्मस्वरूपे दुःखं तस्म भवति । भाविसास्ममो यथावद्विदितात्मस्वरूपे कृताभ्यासस्य । बहिरेव बाह्य विषयेष्ववाऽसुर्व भवति । अथ आहो । सौख्य अध्यात्मं तस्याध्यात्मस्वरूप एवं भवति ।। ५२ ॥ यदि आनन्दमय ज्ञान हो आत्माका स्वरूप है तो इन्द्रियोंको रोककर आत्मानुभव करने वालेको दुःख कैसे होता है, वह बतलाते हैं__ अन्वयार्य-( आरब्धयोगस्य ) जिसने आत्मभावनाका अभ्यास करना अभी शुरु किया है उस मनुष्यको-अपने पुराने संस्कारोंको वजहसे ( बहिः ) बाह्य विषयोंमें ( सुखं ) सुख मालूम होता है ( अथ ) प्रत्युत इसके ( आत्मनि ) आत्मस्वरूपकी भावनामें ( दुःखें ) दुःख प्रतीत होता है। किन्तु (भावितात्मनः) यथावत् आत्मस्वरूपको जानकर उसकी भावनाके अच्छे अभ्यासीको ( बहिः एव ) बाह्य विषयों में ही (असुखं) दुःख जान पड़ता है और ( अध्यात्म ) अपने आत्माके स्वरूपचिंतनमें ही ( सौख्यम् ) सुखका अनुभव होता है । ___ भावार्थ-वास्तवमें आत्मानुभव तो सुखका ही कारण है और इन्द्रिय-विषयानुभव दुःखका; परन्तु जिन्हें अपने आत्माका यथेष्ट ज्ञान नहीं हुआ, जो अपने वास्तविक सुखस्वरूपको पहचानते ही नहीं और जिन्होंने आत्मभावनाका अभ्यास अभी प्रारंभ ही किया है उन्हें अपने इन्द्रिय-विषयोंको निरोधकर आत्मानुभवन करने में कुछ कष्ट जरूर होता है और पूर्व संस्कारोंके वश विषय-सुख रुचता भी है, जो बहुत कुछ स्वाभाविक ही है । आत्माकी भावना करते-करते जब किसीका अभ्यास परिपक्व हो जाता है और यह सुदृढ़ निश्चय हो जाता है कि सुख मेरे आत्माकाही स्वरूप है-वह आत्मासे बाहर दूसरे पदार्थों में कहीं भी नहीं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - uo समाधितष है, तब उसकी हालत पलट जाती है वह अपने आत्मस्वरूपके चिन्तनमें ही परमसुखका अनुभव करने लगता है और उसे बाह्य इन्द्रिय-विषय दुःखकारी तथा आत्मविस्मृति के कारण जान पड़ते हैं, और इसलिए वह उनसे अलग अथवा लिप्त रहना चाहता है ॥५२॥ तद्भावनां चेत्य कृर्यादित्याह तद् ब्रूयात्तत्परान्पृच्छत्तविच्छेसत्परो भवेत् । येनावित्रामयं रूपं त्यस्ता विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३ ।। टीका-तत् आत्मस्वरूपं श्रूयात् परं प्रतिपादयेत् । तरात्मस्वरूप पराम विदितात्मस्वरूपान् पच्छेत् । तथा तदात्मस्वरूप इच्छेत् परमार्थतः सन् मन्यते । उत्सरो भवेत् आत्मस्वरूपभावनातत्परो भवेत् । पेनात्मस्वरूपेणेत्थं भाषितेन । अविद्यामय स्वरूपं बहिरात्मस्वरूपम् । त्यक्त्वा विधामयं रूप परमात्मस्वरूपं वजेत् ॥ ५३ ।। अब वह आत्मस्वरूपकी भावना किस तरह करनी चाहिये उसे बतलाते हैं--- अन्ययार्थ--(तस् न यात्) उस आत्मस्वरूपका कथन करे--उसे दुसरीको बतलावे (तत् परान पुच्छेत् ) उस आत्मस्वरूपको दूसरे आत्मानुभवी पुरुषोंसे-विशेष ज्ञानियोंसे-पूछे (तत् इच्छेत् ) उस आत्मस्वरूपकी इच्छा करे---उसकी प्राप्तिको अपना इष्ट बनाये और तत्परः भवेत् ) उस आत्मस्वरूपकी भावनामें सावधान हुआ आदर बढ़ावे ( येन) जिससे ( अविद्यामयं रूपं ) यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप ( त्यक्त्वा ) छुटकर ( विद्यामयं ब्रजेत् ) ज्ञानमय परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति होवे । भावार्थ-किसीका इकलौता प्रियपुत्र यदि खो जावे अथवा बिना कहे घरमे निकल जावे तो वह मनुष्य जिस प्रकार उसकी ढूंढ खोज करता है. दूसरोंपर उसके खोजानेकी बात प्रकट करता है, जानकारोंसे पूछता है कि कहीं उन्होंने उसे देखा है क्या ? उसे पा जानेकी तीव्र इच्छा रखता है और बड़ी उत्सुकताके साथ उसकी बाट देखता रहता है-एक मिनटके लिए भी उसका पुत्र उसके चित्तसे नहीं उतरता । जगी प्रकार आत्मस्वरूपके जिज्ञासुओं तथा उसकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको चाहिये कि वे बराबर आत्मस्वरूपकी खोजके लिए दूसरोसे आत्मस्वरूपकी ही बात किया करें, विशेष शानियोंसे आत्माको विशे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र षताओंको पुछा करें, आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी निरन्तर भावना भाएं और एक-मात्र उसीमें अपनी लौ लगाये रक्खें। ऐसा होनेपर उनकी अज्ञानदशा दूर हो जायगी-बहिरामावस्था मिट जायगो और वे परमात्मपदको प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे ।। ५३ ।। ननु बाक्कायव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽसम्भवात् 'तद्व्यादि'' 'त्याद्ययुक्तमिति वदन्त प्रत्याह शरीरे वाचि चारमान सन्धत्ते वाक्शरीरयोः । भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते ॥ ५४ ।। टोका-सम्धत आरोपयति । कं आत्मानम् । क्वं? शरीरे वाचि च । कोऽमो ? मूढः वाक्यरोरयोन्तिो वामात्मा शरीरमात्मेत्येवं विपर्यस्तो बहिरात्मा । तयोरभ्रान्तो यथावत्स्वरूपपरिच्छेदकोऽन्तरात्मा पुनः एषां वाकारीरात्मनां तत्त्वं स्वरूप पृथक परस्परभिन्न निबुद्धघत निश्चिनोति ।। ५४ ॥ यदि कोई कहे कि वाणी और शरीरसे भिन्न तो आत्माका कोई अलग अस्तित्व है नहीं, तब आत्माकी चर्चा करे-भावना करे इत्यादि कहना युक्त नहीं, ऐसी आशंका करने वालों के प्रति आचार्य कहते है-- अम्बयार्थ-वाक शरीरयोः भ्रान्तः) वचन और शरीरमें जिसको भ्रान्ति हो रही है जो उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं समझता ऐसा बहिरात्मा ( वाचि शरीरे च) वचन और शरीरमें ( आत्मानं सन्धत्ते ) आरमाका आरोपण करता है अर्थात् बचनको तथा शरीरको आत्मा मानता है ( पुनः ) किन्तु (अभ्रान्तः) वचन और शरोरसे आरमाकी भ्रान्ति न रखनेवाला ज्ञानी पुरुष ( एषां तत्वं ) इन शरीर और वचनके स्वरूपको ( पृथक् ) आत्मासे भिन्न ( निबुध्यते ) जानता है । ___ भावार्थ-वास्तवमें शरीर और वचन पुद्गलको रचना है, मूर्तिक हैं, जड हैं, आत्मस्वरूपसे विलक्षण हैं। इसमें आत्मबुद्धि रखना अज्ञान है। किन्तु बहिरात्मा चिर-मिथ्यात्वरूप कुस्संकारोंके वश होकर इन्हें आत्मा समझता है, जोकि उसका भ्रम है। अन्तरात्माको जड़ और चैतन्यके स्वरूपका यथार्थ बोध होता है, इसीसे शरीरादिकमें उसकी आत्मपनेको भ्रांति नहीं होती वह शरीरको शरीर, वचनको वधान और आत्माको आरमा समझता है, एकको दूसरेके साथ मिलाता नहीं ।। ५४ ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र एवमवधमानो महात्मा गेषु विषमेष्वासक्तचित्तो न तेषु मध्ये किश्चितस्योपकारकमस्तीत्याह न तबस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमकूरमात्मनः । तथापि रमते बालस्तवाशानभावनात् ॥ ५५ ॥ टीका-इनियार्थेषु पंचेन्द्रियविषयेषु मध्ये म तरिकग्विस्ति यत् शेमहरमुपकारकम् । कस्य ? आत्मनः । यद्यपि क्षेमङ्करं किञ्चिन्नास्ति। तथापि रमते रतिं करोसि । कोऽसौ ? पालो बहिरात्मा सव इन्द्रियार्येष्वेव । कस्मात् ? अज्ञानभावनात् मिरवशा बाद मल्यो जना मासाशानमानी मिथ्यात्वसंस्कारस्तस्मात् ॥ ५५ ॥ इस प्रकार आत्मस्वरूपको न समझ नेवाला बहिरात्मा जिन बाह्य विषयोंमें आसक्तचित्त होता है उनमें से कोई भी उसका उपकारक नहीं है, ऐसा कहते हैं___ अन्वयार्प-( इन्द्रियार्थेष ) पांचों इन्द्रियोंके विषयों ( तत् ) ऐसा कोई पदार्थ ( न अस्ति ) नहीं है ( यत् ) जो ( आत्मनः) आत्माका ( क्षेमकर) भला करने वाला हो। ( तथापि) तो भी (बालः ) यह अज्ञानी बहिरात्मा ( अज्ञानभावनात् ) चिरकालोन मिथ्यात्वके संस्कारवश ( तत्रैव ) उन्हीं इन्द्रियोंके विषयोंमें ( रमते ) मासक्त रहता है। ____ भावार्य तत्त्वदृष्टिसे यदि विचार किया जाय तो ये पांचों ही इन्द्रियोंके विषय क्षणभंगुर हैं, पराधीन हैं, विषम हैं, बंधके कारण हैं, दुःखस्वरूप हैं और बाधासहित हैं-कोई भी इनमें आत्माके लिये सुखकर नहीं, फिर भी यह अज्ञानी जीव उन्होंसे प्रीति करता है, उन्हींकी सम्प्राप्तिमें लगा रहता है और रात-दिन उन्हींका राग आलापता है। यह सब अज्ञानभावको उत्पन्न करने वाले मिध्यात्व-संस्कारका ही माहात्म्य है ।। ५५ ॥ तथा अनादिमिथ्यात्वसंस्कारे सत्येवम्भूता बहिरात्मानो भवन्तोत्पाहचिरं सुषुप्तास्तमसि मूडास्मानः कुपोनिषु । अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाप्रति ।। ५६ ॥ टोका-विरमनादिकालं महात्मानो बहिरात्मानः सुगुप्ता मसीव जस्तां गतः । केषु ? योनिषु नित्यनिगोदादियतुरणीतिलक्षयोमिष्यधिकरणभूतेषु । कस्मिन् सति ते सुषुप्ताः ? तमसि अनाधिभिय्यात्वसंस्कारे सति एवम्भूवास्ते Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - -- . . समाषितम यदि संशिषत्पा कदाचिदैववशात् बुध्यन्ते तदा ममाहमिति गापति । फेषु ? मनात्मीमात्यभूतेषु-अनात्मीयेषु परमार्थतोऽनात्मीमभूतेषु पुत्रकलयादिषु ममते इति जाग्रति अध्यवस्यन्ति । अनात्मभूतेषु शरीरादिषु अहमेवेने इप्ति जापति अध्यवश्यन्ति ।। ५६ ॥ उस अनादिकालीन मिथ्यात्वके संस्कारवश बहिरात्माओंकी दशा किस प्रकारकी होती है, उसे बतलाते हैं..... __अन्वयार्ष-( महात्मानः ) ये मर्ख अज्ञानी जोव ( तममि) मिथ्यास्वरूपी अन्धकारके उदयवश ( चिरं) अनादिकालसे ( योनिष ) नित्यनिगोदादिक कुयोनियोंमें ( सुषुप्ताः ) सो रहे हैं-अतोब जडताको प्राप्त हो रहे हैं ' नादाचिा, प्राणिश होकर कुछ जागते भी हैं तो ( अनास्मीयात्मभूतेषु मम अहम् ) अनात्मीयभूत स्त्री-पुत्रादिकमें 'ये मेरे हैं। और अनात्मभत शरीरादिकोंमें 'मैं ही इन रूप है । इति जाग्रति ) ऐसा अध्यवसाय करने लगते हैं। भावार्थ-नित्यनिगोदादिक निध पर्यायोंमें यह जीव ज्ञानकी अत्यन्त हीनता-वश चिरकाल तक दुःख भोगता है। कदाचित् संज्ञी पंचेन्द्रियपर्याय प्राप्त कर कुछ थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करता भी है तो अनादिकालीन मिथ्यात्वके संस्कारवश जो आत्मीय नहीं ऐसे स्त्री-पुत्रादिकको ये मेरे हैं ऐसे आत्मीय मानकर और जो आत्मभन नहीं ऐसे शरीरादिको 'यह में ही हूँ ऐसे आत्मभूत मानकर अहंकार ममकारके चक्करमें फंस जाता है और उसके फलस्वरूप राग-द्वेषको बढ़ाता हुआ संसार-परिभ्रमणकर महादुःखित होता है ।। ५६ ।। ततो बहिरात्मस्वरूपं परित्यज्य स्वपरशरीरमित्थं पश्येदित्याहपायेन्निरतरं वेहमात्मनोऽनात्मचेतसा । अपरामधियाऽन्येषामात्मसस्ने व्यवस्थितः ॥ ५७ ॥ टीका-आत्मनो बेहमात्मसम्बन्धिशरीरं अनात्मवेतसा इदं ममात्मा न भवतीति बुद्धपा अन्तरात्मा पम्पेत् । निरन्तरं सर्ववा। तथा अन्येषां देहं परेषामारमा न भवतीति बुद्धचा पश्येत् । कि विशिष्टाः ? मात्मतस्ये व्यवस्थितः आरमस्वपनिष्ठः ॥१७॥ १. 'बामास्वपवस्वितः इति पाठान्तर 'ग' प्रती। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र अतः बहिरात्म भावका परित्यागकर अपने तथा परके शरीरको इस रूपमें अवलोकन करें, ऐसा बतलाते हैं ५४ आपको चाहिये कि ( आत्मतत्त्वे ) अपने आत्मस्वरूप में ( व्यवस्थितः ) स्थित होकर ( आत्मनः देहं ) अपने शरीरको ( अनात्मचेतसा ) 'यह शरोर मेरा आत्मा नहीं' ऐसी अनात्मबुद्धि ( निरन्तरं पश्येत् ) सदा देखे अनुभव करे और ( अन्येषां ) दूसरे प्राणियोंके शरीरको ( अपरात्मधिया) 'यह शरीर परका मात्मा नहीं ऐसी अनारम बुद्धि ( पश्येत् ) सदा अवलोकन करे | भावार्थ -- अन्तरात्माको चाहिये कि पदार्थ के स्वरूपको जैसाका तैसा जाने, अन्यमें अन्यका आरोपण न करे । अनादिकालसे आत्माकी शरीरके साथ एकल्पबुद्धि हो रही है, उसका मोह दूर होना कठिन जानकर आचार्य महोदय बार-बार अनेक युक्तियोंसे उसी बात को समझाकर बतलाते हैं--उनका अभिप्राय यही है कि सयुक्त होनेपर भी विवक्षाभेदसे, पुदुगलको पुद्गल और आत्माको आत्मा समझना चाहिये तथा कर्मकृत औपाधिक भावोंको कर्मकृत ही मानना चाहिये। आत्माका किसी शरीररूप विभावपर्याय में स्थिर होना उसकी कर्मोपाधि जमिल अवस्था है - स्वभाव नहीं । शरीरको आत्मा मानना, ग्रहको ग्रहवासी अथा वस्त्रको वस्त्रधारी माननेके समान भ्रम है ॥ ५७ ॥ नन्देवमात्मतत्त्वं स्वयमनुभूय महात्मनां किमिति न प्रतिपाञ्चते येन तेऽपि तज्जानन्त्विति वदन्तं प्रत्याह अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा । मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे मे शापनश्रमः ॥ ५८ ॥ टोका - महात्मानो मां आत्मस्वरूप मशापित्तमप्रतिपादितं यथा न जानन्ति मूढात्मत्वात् । तथा ज्ञापितमति मां ते मूढात्मत्वादेव न जानन्ति । ततस्तेषां सर्वथा परिशानाभावात् तेषां मूढात्मनां सम्बंधित्वेन वृथा मे ज्ञापनयत्रो विफलो में प्रतिपादन प्रयासः ।।५८॥ इस प्रकार आत्मतत्त्वका स्वयं अनुभव करके ज्ञातारम - पुरुष (स्वानुभवमग्न अन्तरात्मा ) मूढात्माओं ( जड़बुद्धियों ) को आत्मतत्त्व क्यों नहीं बतलाते, जिससे वे भी आत्मस्वरूपके ज्ञायक बनें ऐसी आशंका करनेवालोंके प्रति आचार्य कहते हैं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र अन्वयार्थ स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है कि ( यथा ) जैसे ( महात्मानः ) ये मूर्ख अज्ञानी जीव ( अज्ञापित ) बिना बताए हुए ( मां) मेरे आत्मस्वरूपको ( न जानन्ति ) नहीं जानत है । ( तथा ) वैसे ही ( शापितं ) बतलाये जाने पर भी नहीं जानते हैं । ( ततः ) इसलिये ( तेषां) उन मठ पुरुषों को ( मे ज्ञापनधमः) मेरा बतलानेका परिश्रम ( वृथा ) व्यर्थ है, निष्फल है। भावार्थ-जो ज्ञानी जीव अन्तर्मुखो होते हैं वे वाह्य बिग आने चित्तको अधिक नहीं भ्रमाते-उन्हें तो अपने आमाके चिन्तन और मननमें लगे रहना ही अधिक रुचिकर होता है। मुढ़ात्माओंके साथ आत्म-विषयमें मगज-पच्ची करना उन्हें नहीं भाता। वे इस प्रकार जड़ास्माओंके साथ टक्कर मारनेके अपने परिश्रमको व्यर्थ समझत हैं और समझते हैं कि हा सरह मुढ़ापायोंने हाथ नलझे रखकर कितने ही ज्ञानीजन अपने आत्महित साधनसे वंचित रह जाते हैं। आत्महित साधन सर्वोपरि मुख्य है, उसे इधर-उधरके चक्करमें पड़कर भुलाना नहीं चाहिये ॥५८॥ किंचयद् बोषयितुमिच्छामि तन्नाह यदहं पुनः । ग्राह्य तदपि नान्यस्य तस्किमन्यस्य बोषये ॥५९॥ ठौका-चत विकल्पाधिरूढमात्मस्वरूपं देहादिक वा घोषितुं ज्ञापयितुमिछामि । तम्लाहं तरस्वरूपं, नाहमात्मस्वरूप परमार्थतो भवामि। यदहं पुनः यत्पुनरहं चिदानन्दातमक स्वसंवेद्यमात्मस्वरूपं । तबपि पाएं मान्यस्य स्वसंवेदने न तपनुभूयत इत्यर्थः । तस्किमम्पस्य मोषय ततस्मारिक किमर्थ मन्यस्यात्मस्वरूपं बोघवेशम् ॥५९॥ और भी वह अन्तरात्मा विचारता है अन्वयार्थ ( यत् ) जिस विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको ( बोधयितु) समझाने-बुझानेकी ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ-चेष्टा करता हूँ (तत् ) वह ( अहं ) मैं नहीं हूँ-आत्माका वास्तविक स्वरूप नहीं हूँ। ( पुनः ) और ( यत् ) जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभव करने योग्य आत्मस्वरूप ( अहं) में हूँ ( तदपि ) वह भी ( अन्यस्य) दूसरे जीवोंके ( ग्राह्यं न ) उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है-यह तो स्वसंवेदनके द्वारा अनुभव किया जाता है (तत्) इसलिए ( अन्यस्य ) दुसरे जीवोंको (किं बोषये ) मैं क्या समझाऊँ ? Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - - - - AAJ समाधितंत्र भावार्थ---तत्त्वज्ञानो अन्तरालमा अपने उपदेशकी व्यर्थताको सोचता हुआ पुनः विचारता है कि जिस आत्मस्वरूपको शब्दों द्वारा में दूसरोंको बतलाना चाहता है वह तो सविकल्प है-आत्माका शुद्ध स्वरूप नहीं है; और जो आत्माका वास्तविक शुद्ध स्वरूप है वह शब्दों द्वारा बतलाया नहीं जा सकता--स्वसंवेदनके द्वारा ही अनुभव एवं ग्रहण किये जानेके योग्य है, तव दूसरोंको मेरे उपदेश देनेसे क्या नतीजा ? ॥ ५९॥ __बोधिनेऽपि चान्तस्तत्त्वे बहिरात्मनो न सत्रानुरागः सम्भवति । मोहोदयात्तस्य बहिरयं एवानुरागादिति दर्शयन्नाह बहिस्तुष्यति महात्मा पिहितज्योतिरन्तरे। तुष्यत्यन्तः प्रमुखात्मा बहिव्यावृत्तकोतुकः ॥६०॥ टोका-बहिः शरीराद्यर्थे तुष्पति प्रीति करोति । कोऽसौ ? मुहारमा । कसम्भूतः ? पिहिलज्योतिर्मोहाभिभूतज्ञानः । य? मन्तरे अन्तस्तत्त्व विषये । प्रवारमा मोहाभिभूतज्ञानः अन्तस्तुष्यति स्वस्वरूप प्रीति करोति । कि विशिष्टः सन् ? हिम्पावृत्तकौतुकः शरीरादौ निवृत्तानुरागः ।।६०॥ ____ आत्मतत्त्वके जैसे-तैसे समझाये जानेपर भी बहिरात्माका अनुराग होना संभव नहीं, क्योंकि मोहके उदयसे बाह्य पदार्थों में ही उसका अनुराग होता है, इसी विचारको आगे प्रस्तुत करते हैं अन्वयार्थ-- अन्तरे पिहितज्योतिः ) अन्तरङ्गमें जिसकी ज्ञानज्योति मोहसे आच्छादित हो रही है जिसे स्वरूपका विवेक नहीं ऐसा ( मूढा) स्मा) बहिरात्मा ( बहिः ) बाह्म शरीरादि परपदार्थों में ही ( तुष्यति - संतुष्ट रहता है-आनन्द मानता है। किन्तु (प्रबुद्वात्मा ) मिथ्यात्वके उदयाभावसे प्रबोधको प्राप्त हो गया है आस्मा जिसका ऐसा स्वरूप विवेकी अन्तरात्मा (बहिावृत्तकौतुकः ) बाह्यशरीरादि पदार्थोंमें अनुरागरहित हुआ ( अन्तः ) अपने अन्तरंग आत्मस्वरूपमें ही (तुष्यति ) संतोष धारण करता है-मग्न रहता है। भावार्थ-मूढात्मा और प्रबद्धात्माकी प्रवृत्तिमें बड़ा अन्तर होता है । मूढात्मा मोहोदयके वश महा अविवेकी हुआ समासाने पर भी नहीं समझता और बाह्म विषयोंमें ही संतोष मानता लुला फंसा रहता है। प्रत्युत इसके, प्रबुद्धात्माको अपने आत्मस्वरूप में लीन रहने में हो आनन्द आता है और इसीसे वह बाह्य विषयोंसे अपने इन्द्रिय-व्यापारको हटाकर प्रायः उदासीन रहता है ।। ६० ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - .- -. . .. .. समाषितंत्र कुतोऽभी शरीरादिविषये निवृत्त भूषणमण्डनादिकौतुकं इत्याहन जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः । निग्रहानग्रहषियं तपाप्यय कुर्वते ॥६१॥ टोका--सुखदुःखानि न जानन्ति । कानि चारोराणि जडत्वात् । अनुखयो बहिरात्मानः । तथापि यद्यपि जानन्ति तथापि । अव शरीरादावेष कुर्षति । कां ? निग्रहानुपहषियं द्वेषवशादुपवासादिना शरीरादेः कदर्थनाभिप्रायो निग्रहबुद्धि रागवशात्कटकटिसूत्रादिना भूषणाभिप्रायोऽनुग्रहबुद्धिम् ॥६१|| किसी कारण अन्तरात्मा शरीरादिको वस्त्राभूषणादिसे अलंकृत और मंडिता मारने नवासीग हो है, उसे हालाते हैं। अम्बया–अन्तरात्मा विचारता है- शरीराणि) ये शरीर (सुख-दुःखानि न जानन्ति ) जड़ होनेसे सुखों तथा दुःखोंको नहीं जानते हैं ( तथापि ) तो भी [ये जो जीव ( अत्रैव ) इन शरीरोंमें ही ( निग्रहानुग्रहधियं ) उपवासादि द्वारा दंडरूप निग्रहकी और अलंकारादि द्वारा अलंकृत करने रूप अनुग्रहकी बुद्धि ( कुर्वते ) धारण करते हैं [ ते ] वे जीव ( अबुद्धयः ) मूडबुद्धि हैं-बहिरात्मा हैं । भावार्य--अन्तरात्मा विचारता है कि जब ये शरीर जड़ है-इन्हें सुख-दुःखका कोई अनुभव नहीं होता और न ये किसीके निग्रह या अनुग्रहको हो कुछ समझते हैं तब इनमें निग्रहानुग्रहकी बुद्धि धारण करना मूढ़ता नहीं तो और क्या है ? उसका यह विचार ही उसे शरीरोंको वस्त्राभूष. णादिसे अलंकृत और मंडित करनेमें उदासीन बनाये रखता है वह उनको अनावश्यक चिन्ताको अपने हृदयमें स्थान ही नहीं देता ।। ६१ ।। यावच्च शरीरादावात्मबुखमा प्रवृतिस्तावत्संसारः तदभावान्मुक्तिरितिदर्शयन्नाह स्वबुदधा यावद् गृहणीयात कायवाक्चेतसा त्रयम् । संसार तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वतिः ॥१२॥ टोका-स्वनुराधा आत्मबुद्धधा यावद् गृहणीपात् । कि ? त्रयम् । फेषाम् ? कापवावेतसो सम्बन्धमिति पाठः । तत्र कायचाक्वेतसा प्रर्य कर्तु । आत्मनि यावत्सम्बग्धं गृह्णीयात्स्वीकुर्यादित्यर्थः । तावत्संसारः। एतेषां कायवाफ्नेतसां भेवाभ्याने तु आत्मनः सकाशात् कायवावयेतांसि भिन्नानीति मेदाम्यासे भेदभावनापां तु पुननिति: मुक्तिः ॥६२॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - समाधितंत्र शरीरादिकमें जब तक आत्मबुद्धिसे प्रवृत्ति रहती है तभी तक संसार है और जब वह प्रवृत्ति मिट जाती है तब मुक्तिको प्राप्ति हो जाती है, ऐमा दशति हुए कहते हैं-- __ अन्धमार्य-( यावत् ) जब तक ( कायवाक्चेतसां त्रयम् ) शरीर, धचन और मन इन तीनोंकी (स्त्रबुद्धया ) आत्मबुद्धिसे ( गृह्णीयात् ) ग्रहण किया जाता है ( तावत् ) तब तक ( संसारः) संसार है ( तु) और जब ( एतेषां ) इन मन, वचन, कायका ( भेदाभ्यासे ) आत्मासे भिन्न होनेरूप अभ्यास किया जाता है तब ( निवृतिः ) मुक्तिकी प्राप्ति होती है। भावार्थ-जब तक इस जीवकी मन-वचन-कायमें आत्मबुद्धि बनी रहती है-इन्हें आत्माके ही अंग अथवा अंश समझा जाता है-तबतक यह जीव संसारमें ही परिभ्रमण करता रहता है। किन्तु जब उसकी यह भ्रमबुद्धि मिट जाती है और वह शरीर तथा वचनादिको आत्मासे भिन्न अनुभव करता हुआ अपने उस अभ्यासमें दृढ़ हो जाता है तभी वह संसार-बंधनसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त होता है ।। ६२ ।। शरीरादावात्मनो भेदाप से रोस्टामाममा नायिका नायर हर दर्शयन् घनेत्यादि श्लोकचतुष्टयमाह घने वस्त्रे अथाऽऽरमानं न घनं मन्यते तथा । घने स्ववेहेप्यारमानं न घनं मन्यते बुधः ॥१३॥ टोका---प्रने निविडाक्य वस्त्रे प्रावृते सति मात्मामं धर्म दृढावयवं यथा बुषो म मन्यते । तथा स्वरोऽपि घने दृढ भास्मान पनं दृढं बुधो स मान्यते ।।६३॥ शरीरादिक आत्मासे भिन्न हैं. उनमें जीव नहीं-ऐसा भेदज्ञानका अभ्यास दृढ़ हो जानेपर अन्तरात्मा शरीरको दृढ़तादिक बननेपर आस्माकी दृढ़तादिक नहीं मानता, इस बातको आगेके चार श्लोकों में बतलत हैं। ___ अन्वयार्ष-( यथा) जिस प्रकार ( वस्त्रे घने ) गाढ़ा वस्त्र पहन लेनेपर (बुधः) बुद्धिमान पुरुष (आस्मनं) अपनेको-अपने शरीरको ( घनं ) गाढ़ा अथवा ष्ट ( न मन्यते ) नहीं मानता है ( तथा ) उसी प्रकार (स्वदेहेऽपि घने ) अपने शरीरके भी गाढ़ा अथवा पुष्ट होनेपर (बुधः) अन्तरात्मा ( आत्मानं ) अपने जीवात्माको (घन न मन्यते) पुष्ट नहीं मानता है ।। ६३ ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र 'जीर्णे वस्त्रे यथाssस्मानं न जीणं मन्यते तथा । जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुधः ॥६४॥ टीका -- जीर्ण पुराणे वस्त्रे प्रावृते पचाऽऽत्मानं जीणं न मन्यते । तथा श्रीर्णे वृद्धे स्वेऽपि स्थितमात्मानं न जीणं वृद्धमात्मानं मन्यते बुधः ||६४ || अम्वयार्थ - ( यथा ) जिस प्रकार ( वस्त्रे जीर्णे ) पहने हुए वस्त्रके जीर्ण-बोदा होनेपर ( बुधः ) बुद्धिमान पुरुष ( आत्मानं ) अपने को अपने शरीरको ( जीर्णे न मन्यते ) जीर्ण नहीं मानता है ( तथा ) उसी प्रकार ( स्वदेहे अपिजी) अपने शरीर भी जोर्ण हो जानेपर ( बुधः । अन्तरात्मा (आत्मानं ) अपने जीवात्माको ( जीणं न मन्यते ) जीर्ण नहीं मानता है ।। ६४ ।। नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न नष्टं सव्यते तथा । नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ॥६५॥ टीकाप्रावृते वस्त्रे मष्टे सहि आत्मानं यथा नष्टं बुधो न मन्यते तथा स्वदेहेऽपि मध्ये कुतश्चित्कारणाद्विनाशं गते आत्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ॥६५॥ भावार्थ - ( यथा ) जिस तरह ( वस्त्रे नष्टे ) कपड़के नष्ट हो जानेपर ( बुधः ) बुद्धिमान पुरुष ( आत्मानं ) अपने शरीरको ( नष्टं न मन्यते ) नष्ट हुआ नहीं मानता है ( तथा ) उसी तरह ( बुधः ) अन्तरात्मा ( स्वदेहे अपि नष्टे ) अपने शरीरको नष्ट हो जानेपर ( आत्मानं ) अपने जीवात्माको ( नष्टं न मन्यते ) नष्ट हुआ नहीं मानता है ||६५ ।। रक्ते वस्त्रे यथाssस्मानं न एकं मन्यते तथा । रक्ते स्वदेहेऽऽप्यात्मानं न रक्त मन्यते बुधः ॥ ६६॥ १. जिष्ण वरिय जेम बुह देहु ण मष्णइ जिष्णु । देहि जिणि गाणित अप्पु ण मण्णइ जिष्णु ॥ २- १८९ ॥ ५९ २. वत्यु पणट्ठइ जेम बहु देहु ण मण्णइ गट्ठ षट्ठे देहे णाणि तह अप्पु ण भण्णइ मट्टु ॥ २ - १८० ।। ३. रते वत्ये जेम बुहु देहू ण मण्णव रत्तु | हरसि माणित अप्पु ण मष्ण रतु ॥ - परमात्मप्रकाशे, मोगीन्द्रदेवः -परमात्मप्रकाशे, योगीन्द्रदेवः २ - ७८ ।। - परमात्मप्रकाशे, योगीन्द्रदेवः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समातिन टीका --- रक्ते वस्त्रे प्रावृते सति धारमा यथा बुधो न रक्तं मन्यते तथा स्वदेहेऽपि कुसुम्भादिना रक्त आत्मानं रक्त न मन्यते सुषः ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ - ( यथा ) जिस प्रकार ( वस्त्रे रक्ते ) पहना हुआ वस्त्र लाल होनेपर ( बुधः ) बुद्धिमान पुरुष ( आत्मानं ) अपने शरोरको (रक्तं न मन्यते ) लाल नहीं मानता है ( तथा ) उसी तरह ( स्वदेहे अपि रक्ते ) अपने शरीर के भी लाल होनेपर ( बुधः ) अन्तरात्मा ( आत्मानं ) अपने जीवात्माको (रक्तं न मन्यते ) लाल नहीं मानता है ।। ६६ । भावार्थ - शरीर के साथ वस्त्रकी जैसी स्थिति है वैसी ही आत्माके साथ शरीर को है । पहने जानेवाले वस्त्र के सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण, नष्टभ्रष्ट अथवा लाल आदि किसी रंगका होनेके कारण जिस प्रकार कोई भी समझदार मनुष्य अपने शरीरको सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शोणं, नष्ट-भ्रष्ट अथवा लाल आदि रंगका नहीं मानता है, उसी प्रकार शरीरके सुदृढ़पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण - नष्ट-भ्रष्ट या लाल आदि रंगका होनेपर कोई भी ज्ञानी मनुष्य अपने आत्माको सुदृढ़-पुष्ट, जीर्ण-शीर्ण, नष्ट-भ्रष्ट या लाल आदि रंगका नहीं मानता है। विवेकी अन्तरात्माकी प्रवृत्ति शरीरके साथ वस्त्र जैसी होती है, इससे एक वस्त्रको उतारकर दूसरा वस्त्र पहननेवालेकी तरह उसे मृत्युके समय कोई विषाद या रंज भी नहीं होता ।। ६३-६४-६५-६६ ॥ एवं शरीरादिभिन्नमात्मानं भावयतोऽन्तरात्मनः शरीरादेः काष्ठादिना तुल्यताप्रतिभासे मुक्तियोग्यता भवतीति दर्शयन्नाह यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पत्वेन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शर्म याति नेतरः ॥ ६७ ॥ टीका-मस्यात्मनः सस्वन्यं परिस्पन्यसमन्वितं शरीराविरूपं जन्तु मामाति प्रतिभासते । कथम्भूतं ? निःस्वेन समं निःस्पन्देन काष्ठपाषाणादिना समं तुल्यं । कुतः तेन तत्समं ? अप्रशं जडमचेतनं यतः । तथा किवाभोग क्रिया पदार्थपरिस्थितिः भोगः सुखाद्यनुभवः तो न विद्यते यत्र यस्यैवं सत्प्रतिभासते स किं करोति ? स शर्म थाति शमं परमवीतरागतां संसारभोगदेहोपरि वा वैराग्य गच्छति । कथम्भूतं शर्म ? अक्रियाभोगमित्येतदत्रापि सम्बन्धनीयम् । क्रिया वाक्काय मनोव्यापारः । भोग इन्द्रियप्रणालिकया विषयानुभवनं विषयोत्सवः श्री म विद्यते यत्र तमित्थम्भूतं शमं स याति । वरः तद्विलक्षणो महिरात्मा ॥६७॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र इस प्रकार शरीरादिकसे भिन्न आत्माको भावना करनेवाले अन्तरात्माको जब ये शरीरादिक काष्ठ-पाषाणादिके खण्ड-समान प्रतिभासित होने लगते हैं. उनमें चेतनाका अंश भी उसकी प्रतीतिका विषय नहीं रहता-तब उसको मुक्तिको योग्यता प्राप्त होती है | इसी बातको आगे दिखलाते हैं अन्वयार्य-( यस्य ) जिस ज्ञानी जीवको ( सस्पन्दं जगत् ) अनेक क्रियाएँ-चेष्टाएँ करता हला शरीरादिरूप यह जगत् ( निस्पन्देन सम) निश्चेष्ट काष्ठ-पाषाणादिके समान ( अप्रज्ञ) चेतनारहित जड़ और ( अक्रियाभोग ) क्रिया तथा सुखादि-अनुभवरूप भोगसे रहित ( आभाति ) मालूम होने लगता है ( सः) वह पुरुष ( अक्रियाभोग शमं याति ) परमवीतरागतामय उस शान्ति-सुखका अनुभव करता है जिसमें मन-वचनकायका व्यापार नहीं और न इन्द्रिय-द्वारोंसे विषयका भोग ही किया जाता है ( इतरः न ) उससे विलक्षण दुसरा बहिरात्मा जीव उस शान्तिसुखको प्राप्त नहीं कर सकता है । भावार्थ-जिस समय अन्तरात्मा आत्मस्वरूपका चिन्तन करते-करते अपनेमें स्थिर हो जाता है कि उसे यह क्रियात्मक संसार भी लकड़ी, पत्थर आदिकी तरह स्थिर तथा चेष्टारहित-सा जान पड़ता है-उसकी क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं होता-तभी वह वीतरागभावको प्राप्त होता हुआ शान्ति सुखका अधिकारी है ।।६७।। सोप्येवं शरीरादिभिन्नमात्मानं किमिति न प्रतिपद्यत इत्याह-- शरीरकंचुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रहः । नास्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिधिरं भवे ॥६॥ टीका-पारीरमेव कंचुकं तेन संवृतः सम्यक् प्रच्छादितो ज्ञानमेव विग्रहः स्वरूपं यस्य । शरीरसामान्योपादानेऽप्यत्र कामणशरीरमेव गृह्यते । तस्यैव मुरूपवृत्त्या तदावरकत्वोपपत्तेः । इत्थंभूतो बहिरात्मा मास्मानं पुष्यते तस्मापारमस्वरूपानववीषात् अतिपिर बहुतरकालं भवे संसारे भ्रमति ॥६८।। मन बहिराल्मा भी इसी प्रकार शरीरादिसे भिन्न आस्माको क्या जानता नहीं ? इसीको बतलाते हैं अन्या -(शरीरकंचुकेन ) कार्माणशरीररूपी कांचलीसे (संवृतमानविग्रहः आत्मा ) का हुआ है ज्ञानरूपी शरोर जिसका ऐसा बहिराल्मा ( आल्मानं ) आत्माके. यथार्थ स्वरूपको (न बुध्यते) नहीं जानता Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र है (तस्मात्) उसी अज्ञानके कारण ( अतिचिरं ) बहुत काल तक ( भवे ) संसारमें ( भ्रमति ) भ्रमण करता है। भावार्थ-इस लोक में 'कंचक' शब्द उस आवरणका घोतक है जो शरीरका यथार्थ बोध नहीं होने देता; सर्प-शरीरके ऊपरको कांचली जिस प्रकार के रंगारूपादिका ठीक बोध नहीं होने देती उसी प्रकार आत्माका ज्ञान शरीर जब दर्शनमोहनीयके उदयादिरूप कार्माण वर्गणाओंसे आच्छादित हो जाता है तब आत्माके वास्तविक रूपका बोध नहीं होने पाता और इस अज्ञानताकै कारण रागादिकका जन्म होकर चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। यहाँपर इतना और भी जान लेना चाहिये कि कांचलीका दृष्टान्त एक स्थल दृष्टान्त है। कांचली जिस प्रकार सर्व-शरीरके ऊपरी भागपर रहती है उसी प्रकारका सम्बन्ध कार्माण-शरीरका आत्माके साथ नहीं है। संसारी आत्मा और कामणि-रीरका ऐसा सम्बन्ध है जैस पानीमें नमक मिल जाता है अथवा कत्था और चना मिला देनेसे जैसे उनकी लालपरिणति हो जाती है। कर्मपरमाणुओंका आत्मप्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होता है, इसी कारण दोनोंके गुण विकृत रहते हैं, तथा दर्शनमोहनीय कामके उदयसे बहिरात्मा जीव आत्मस्वरूपको सममाये जानेपर भी नहीं समझता है--आत्माके वास्तविक चिदानंदस्वरूपका अनुभव उसे नहीं होता। इसी मिथ्यात्व एवं अज्ञानभावके कारण यह जीव अनादिकालो संसारचक्रमें भ्रमण करता आ रहा है और उस वक्त तक बराबर भ्रमण करता रहेगा जबतक उसका यह अज्ञानभाव नहीं मिटेगा ।।६८|| ___ यद्यात्मनः स्वरूपमात्मत्वेन बहिरात्मानो न दुधन्ते तवा किमात्मत्वेन ते बुद्धयन्ते इत्याह प्रविशगलतां म्यूहे वेणूनां समाकृती। स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धयः॥६९॥ टोका-तं देहात्मानं प्रपद्यन्ते । के ते? अबुद्धयो बहिरात्मानः । कया कृत्वा ? स्थितिभ्रान्त्या । क्ष? बेहे । कथम्भूते देहे ? हे समहे । केषा ? अमा परमाणनां । कि विशिष्टानां ? प्रविशद्गलता अनुप्रविशतां निर्गच्छतां । पुनरपि कथम्भूते ? समारतो समानाकारे सदृशा परापरोत्पादेन । आत्मना सहकक्षेत्र समानावगाहेन वा । इत्यम्भूते देहे वा स्थितिभ्रान्तिः स्थित्या कालान्तरावस्थायित्वेन एकक्षेत्रावस्थानेन या भ्रान्सिहात्मनोरभेवाध्यवसायस्तया ।।६९|| Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : समाति ६३ यदि बहिरात्मा जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं पहिचानते हैं, तो फिर वे किसको आत्मा जानते हैं ? इसी बातको आगे बतलाते हैंअन्वयार्थ – ( अबुद्धयः ) अज्ञानी बहिरात्मा जीव ( प्रविशद्गलतां अणूनां व्यूहे देहे ) ऐसे परमाणुओंके समूहरूप शरीरमें जो प्रवेश करते हैं और बाहर निकलते रहते हैं ( समाकृती ) शरीरको आकृति के समानरूपमें बने रहनेपर ( स्थितिभ्रांत्या ) कालांतर स्थायित्व तथा एकक्षेत्र में स्थिति होने के कारण शरीर और आत्माको एक समझने के रूप जो भ्रांति होती है उससे ( तम् ) उस शरीरको हो ( आत्मानं ) आत्मा (प्रपद्यते ) समझ लेते हैं । भावार्थ – यद्यपि शरीर ऐसे पुद्गल परम णुओंका बना हुआ है जो सदा स्थिर नहीं रहते – समय-समयपर अगणित परमाणु शरीर से बाहर निकल जाते हैं और नये-नये परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश करते हैं, फिर भी चूँकि आत्मा और शरीरका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है और परमाणुओं के इस निकल जाने तथा प्रवेश पानेपर बाह्य आकृति में कोई विशेष भेद नहीं पड़ता - वह प्रायः ज्योंकी त्यों ही बनी रहती है - इससे मूढात्माओं को यह भ्रम हो जाता है कि यह शरीर ही में हूँ - मेरा आत्मा है । उसी भ्रमके कारण मूढ़ बहिरात्मा प्राणी शरीरको ही अपना रूप ( आत्मस्वरूप ) रामझने लगते हैं । आभ्यन्तर आत्मतत्व तक उनकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती ॥ ६९ ॥ ततो यथावदात्मस्वरूपप्रतिपत्तिमिच्छन्नात्मानं देहाद्भिन्नं भावयेदित्याह -- गौरः स्थूलः कृशो वाऽहमित्यनाविशेषयन् । आत्मानं धारयेस्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ॥७०॥ टीका- गौरोऽहं स्थूलोऽहं शोवामित्यनेन प्रकारेणाङ्गेन विशेषणेन अविशेषयन् विशिष्ट अकुर्वन्नात्मानं धारयेत् चित्तेऽविचल भावयेत् नित्यं सर्वदा । कम्भूतं ? केवलज्ञप्तिविग्रहं केवलज्ञानस्वरूपं । अथवा केवला रूपादिरहिता शतिरोपयोग एव विग्रहः स्वरूप यस्य ॥७०॥ ऐसी हालत में आत्माका यथार्थ स्वरूप जानने की इच्छा रखने वालोंको चाहिये कि वह शरीरसे भिन्न आत्माको भावना करें ऐसा दर्शाते हैं अन्वयार्थ --- ( अहं ) मैं ( गौर: ) गोरा है ( स्थूलः ) मोटा हूँ ( वा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिसत्र कृशः) अथवा दुबला हूँ ( इति ) इस प्रकार ( अंगेन) शरीरके साथ (आत्मानं ) अपनेको (अविशेषयन्) एकरूप न करते हुए ( नित्यं ) सदा हो ( आत्मानं ) अपने आत्माको ( केवलज्ञप्तिविग्रहम् ) केवलज्ञानस्वरूप अथवा रूपादिरहित उपयोगशरीरी ( धारयेत् ) अपने चित्तमें धारण करे। भावार्थ--गोरापन, कालापन, मोटापन, दुबलापन आदि अवस्थाएँ पुद्गल की हैं-पुद्गलसे भिन्न इनका अस्तित्व नहीं है। आत्मा इन शरीरके घोंसे भिन्न एक ज्ञायकस्वरूप है। अतः आत्मपरिज्ञानके इच्छुकोंको चाहिये कि वे अपने आत्माको इन पुद्गलपर्यायों के साथ एकमेक ( अभेदरूप ) न करे, बल्कि इन्हें अपना रूप न मानते हुए अपनेको रूपादिरहित केवलज्ञानस्वरूप समझें । इसीका नाम भेदविज्ञान है ||७०|| यश्च विधमात्मानमेकापमनसा भावयेत्तस्यव मुक्तिर्नान्यस्पेत्याह शोकामिनी सचिने त्याचा इतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः ॥७१॥ टोका--एकान्तिको अवश्यम्भाविनी तस्यान्तरात्मानो मुक्तिः । यस्प चिते अविचला ति; आत्मस्वरूपधारणं स्वरूपविषया प्रसत्तिर्वा यस्य तु चिसे मालपबला तिस्तस्य नेकान्तिकी मुक्तिः ७१।। जो इस प्रकार आत्माकी एकाग्रचित्तसे भावना करता है उसीको मुक्तिकी प्राप्ति होती है अन्यको नहीं, ऐसा दिखाते हैं--- ___ अन्वयार्थ- ( यस्य ) जिस पुरुषके (चित्ते ) चित्तमें (अचला) आत्मस्वरूपकी निश्चल (धतिः) धारणा है ( तस्य ) उसकी ( एकान्तिकी मुक्तिः ) नियमसे मुक्ति होती है। ( यस्य ) जिस पुरुषको ( अचलाधृतिः नास्ति ) आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नहीं है ( तस्य ) उसको । एकान्तिको मुक्तिः न ) अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है । भावार्थ-जब यह जीव आत्मस्वरूपमें डाँबाडोल न रहकर स्थिर हो जाता है तभो मुक्तिकी प्राप्ति कर सकता है | आत्मस्वरूपमें स्थिरताके बिना मुक्तिकी प्राप्ति होना असंभव है ।। ७१ ॥ १. हा गोरउ हर्ट सामलज हउँ जि विभिण्णउ वष्णु । हउँ तणु-अंगउँ थूल ह एहउँ मुडउ मण्णु ॥ ८ ॥ --परमात्मप्रकाश, योगीन्द्रदेवः Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ चितेऽचला बुतिश्च लोकसंसर्ग परित्यज्यात्मस्वरूपस्य संवेदनानुभवे सति स्यान्नान्ययेति दर्शयन्नाह जनेभ्यो वा ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । 2 lif भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥७२॥ टोका --- जनेभ्योवाक वचनप्रवृत्तिर्भवति । प्रवृत्तेः स्पन्दो मनसः व्यग्रतामानसे भवति । तस्थात्मनः स्पन्दान्वितविश्रमाः नाना विकल्पे प्रवृत्तयो भवन्ति । यत एवं ततस्तस्मात् योगी त्यजेत् कं ? संसगं सम्बन्धम् कैः सह् ? जनः ॥७२॥ चित्तकी निश्चलता तभी हो सकेगी जब लोक-संसर्गका परित्याग कर आत्मस्वरूपका संवेदन एवं अनुभव किया जावेगा - अन्यथा नहीं हो सकेगी; इसी बात को आगे प्रकट करते हैं अन्वयार्थ - ( जनेभ्यो ) लोगोंके संसर्गसे ( बाबू ) वचनकी प्रवृत्ति होती है - चित्त चलायमान होता है ( तस्मात् ) चित्तकी चंचलतासे (चित्तविभ्रमाः भवन्ति ) चित्तमें नाना प्रकारके विकल्प उठने लगते हैंमन क्षुभित हो जाता है ( ततः ) इसीलिये (योगी) योंग में संलग्न होनेवाले अन्तरात्मा साधुको चाहिये कि वह ( जनैः संसगं त्यजेत् ) लौकिक जनोंके संसर्गका परित्याग करे — ऐसे स्थानपर योगाभ्यास करने न बैठे। जहाँपर कुछ लौकिकजन जमा हों अथवा उनका आवागमन बना रहता हो । भावार्थ — आत्मस्वरूप में स्थिरताके इच्छुक मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे लौकिक जनोंके संसर्ग से अपनेको प्रायः अलग रखें, क्योंकि लौकिकजन जहाँ जमा होते हैं वहाँ वे परस्परमें कुछ-न-कुछ बातचीत किया करते हैं, बोलते हैं और शोर तक मचाते हैं। उनकी इस वचनवृत्तिके श्रवणसे चित्त चलायमान होता है और उसमें नाना प्रकार के संकल्पविकल्प उठने लगते हैं, जो आत्मस्वरूपकी स्थिरतामें बाधक होत हैआत्माको अपना अन्तिम ध्येय सिद्ध करने नहीं देते ॥ ७२ ॥ तः संसर्गं परित्यज्याटव्यां निवासः कर्तव्य इत्याशंका निराकुर्वन्नाह प्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदशिनाम् । बुष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥७३॥ टीकाप्रामोऽरण्यमित्येवं द्वेषा निवासः स्थानं अनात्मदशनाम लब्धात्मस्वरूपोपलम्भानां वृष्टात्मनामुपलध्यात्मस्वरूपाणां निवासस्तु विमुक्तात्मैव रागादिरहितो विशुद्धात्मैव निश्चलः वित्तव्याकुलतारहितः ॥७३॥१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६६ समाधितंत्र तब क्या मनुष्यों का संसर्ग छोड़कर जंगलमें निवास करना चाहिये ? इस शंकाका निराकरण करते हुए कहते हैं अन्वयार्थ -- ( अनात्मदर्शनां ) जिन्हें आत्माकी उपलब्धि - उसका दर्शन अथवा अनुभव नहीं हुआ ऐसे लोगों के लिए ( ग्रामः अरण्यम् ) यह गांव है, यह जंगल है ( इति द्वेधा निवासः ) इस प्रकार दो तरह के निवासकी कल्पना होती है (तु) किन्तु ( दृष्टात्मनां ) जिन्हें आत्मस्वरूपका अनुभव हो गया है ऐसे ज्ञानी पुरुषोंके लिये ( विविक्तः ) रागादि रहित विशुद्ध एवं ( निश्चलः ) चित्तकी व्याकुलता रहित स्वरूपमें स्पिर ( आत्मा एव ) आत्मा हो ( निवासः ) रहनेका स्थान है । भावार्थ- जो लोग आत्मानुभवसे शून्य होते हैं उन्हीं का निवासस्थान गाँव तथा जंगल होता है कोई गांव अपनाता है तो दूसरा जंगलसे प्रेम रखना है। गाँव और जंगल दोनों ही बाह्य एवं परवस्तुएं हैं। मात्र जंगलका निवास किसीको आत्मदर्शी नहीं बना देता । प्रत्युत इसके, जो आत्मदर्शी होते हैं उनका निवासस्थान वास्तवमें वह शुद्धात्मा होता है जो वीतरागत के कारण चित्तको व्याकुलताको अपने पास फटकने नहीं देता और इसलिये उन्हें न तो ग्रामनामसे प्रेम होता है और न वनके निवाससे हो- वे दोनों को ही अपने आत्मस्वरूपसे बहिभूत समझते हैं और इसलिए किसी में भी आसक्तिका रखना अथवा उसे अपना ( आत्माका ) निवासस्थान मानना उन्हें इष्ट नहीं होता। वे तो शुद्धात्मस्वरूपको हो अपनी विहारभूमि बनाते हैं और उसीमें सदा रमे रहते हैं । ग्रामका निवास उन्हें आत्मदर्शीसे अनात्मदर्शी नहीं बना सकता ।। ७३ ।। अनात्मदर्शिनो दृष्टात्मनश्च फलं दर्शयन्नाह— बेहान्तरगतेजं बीजं बेहेऽस्मिन्नात्मभावना । विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ||७४|| टीका देहान्तरे भवान्तरे गतिर्गमनं तस्य बोर्ज कारणं कि ? आत्मभावना । 7 वज्र देहेऽस्मिन् अस्मिन् क्रमवशाद्गृहीते देहे । विदेहनिष्पत्तेः विवेहस्य सर्वधा देहत्यागस्य निष्पत्तेर्मुक्तिप्राप्तेः पुनर्थीसं स्वात्मन्येवात्मभावना ॥७४॥ अनात्मदर्शी और आत्मदर्शी होनेका फल क्या है, उसे दिखाते हैं-अन्वयार्थ -- ( अस्मिन् देते ) कर्मोदयवश ग्रहण किये हुए इस शरीर में (आत्मभावना ) आत्माको जो भावना है--शरीरको ही आत्मा मानना है - वही ( देहान्तरगतेः ) अन्य शरीर ग्रहणरूप भवान्तरप्राप्तिका ( बीजं ) कारण है और ( आत्मनि एव) अपनी आत्मामें हो ( आत्मभावना ) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मकी जो भावना है-आत्माको ही आत्मा गानता है वह ( विदेहनिष्पत्तेः ) शरीरके मर्वथा त्याग रूप मुक्तिका ( बोज ) कारण हैं | भावार्य-जो जीव कर्मोदयजन्य उग जड़ शरीरको ही आत्मा समझता है और इसीसे देह-भोगोंमें आसक्त रहता है. वह चिरकाल तक नये-नये शरीर धारण करना हा संसारपरिभरणा करता है शोर इस तरह अनन्त कष्टोंको भोगता है। प्रत्युत इसके. आत्माके निजस्वरूप में ही जिसकी आत्मत्वकी भावना है वह जीव शीघ्र हो कर्मबन्धनसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और सदाके लिए अपने निराबाध सुखस्वरूपमें मग्न रहता है ।। ७४ ।। नहि मुक्तिप्राप्तिहेतुः कश्चिदगुरूभविष्यतीति वदन्तं प्रत्याहनयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५॥ रोका जन्म संसार नयति प्रापयति । क: आत्मान । कोऽसौ ? आस्मेव देहादी ढात्मभावनावशात् । निर्वाणमेव च आत्मानमात्मैव नयति स्वात्मन्येदात्मबुद्धिप्रकपंसद्भावान् । यत एवं तस्मात् परमार्थतो गुरुरात्मात्मनः । नान्यो गुरुरस्ति परमार्थतः । व्यवहारेण तु यदि भवति तदा भवतु ।।७५|| यदि ऐसा है, तब मुक्तिको प्राप्त करानेके लिए हेतुभूत कोई दूसरा गह तो होगा? ऐसी आशंका करने वालेके प्रति कहते हैं अन्वयार्य-( आत्मा एष ) आत्मा ही ( आत्मानं ) आमाको (जन्म नयति ) देहादिकमें मूढ़ात्मभावनाके कारण जन्म-मरणरूप संसारमें भ्रमण कराता है (च) और (निर्वाणमेव नयति ) आत्मामें ही आत्मबुद्धि के प्रकर्षवश मोक्ष प्राप्त कराता है । तस्मात् ) इसलिए ( परमार्थतः ) निश्चयसे ( आत्मनः गुरुः ) आत्माका गुरु (आत्मा एव ) आत्मा हो है ( अन्यः न अस्ति ) दूसरा कोई गुरु नहीं है। भावार्थ-हितोपदेशक सद्गुरुओं का हितकर उपदेश सुनकर भी जब तक यह जीव अपने आत्माको नहीं पहचानता और अंतरंग रागादिक शत्रुओं एवं कषाय-परिणतिपर विजय प्राप्तकर स्वयं अपने उद्धारका यस्न नहीं करता तब तक बराबर संसाररूपी कीचड़में ही फंसा रहता है और जन्ममरणादिक असह्य कष्टोंको भोगता रहता है। परन्तु जव १. 'पा' इति पाठान्तरं 'ग' पुस्तके । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समाधितंत्र इस जीवको भवस्थिति सन्निकट आती है, दर्शनमोहका उपशम-क्षयोपशम होता है, उस समय सद्गुरुओं के उपदेशके बिना भी यह जीव अपने आत्मस्वरूपको पहचान लेता है और रागद्वेषादिरूप कषायभाव एवं faभावपरिणतिको त्याग करके स्वयं कर्मबन्धनसे छूट जाता है। इसलिये परमार्थिकदृष्टिसे तो खुद आत्मा ही अपना गुरु है - दूसरा नहीं ॥७५॥ देहे स्मरण निपाते किं करोतीत्मा ढात्मबुद्धिहादावुपश्यन्नाशमात्मनः मित्रादिभिवियोगं च विभेति मरणाद्भृशम् ॥७६॥ • टीका ---देहाय वृद्धात्मबुद्धि र विचलात्मदृष्टिय हिरात्मा । उत्पस्थनवलोकयन् । आत्मनो मार्श मरणं मित्राविभिवियोगं च मम भवति इति बुद्धधमानो मरजादविभेति भृशमत्यर्थम् ॥७६॥ शरीर में आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा मरणके संनिकट मानेपर करता है, उसे बतलाते हैं 1 अन्वयार्थ - ( देहादी दृढात्मबुद्धिः ) शरीरादिक में जिसकी आत्मबुद्धि दृढ हो रही है ऐसा बहिरात्मा ( आत्मनः नाशम् } शरीरके छूटनेरूप अपने मरण च) और ( मित्रादिभिः वियोगं ) मित्रादि-सम्बन्धियोंके वियोगको ( उत्पश्यन् ) देखता हुआ ( मरणात् ) मरने से ( भृशम् ) अत्यन्त (त्रिमेति ) डरता है । भावार्थ - फटे-पुराने कपड़ेको उतारकर नवीन वस्त्र पहननेमें जिस प्रकार कोई दुःख नहीं होता, उसी प्रकार एक शरीरको छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करने में कोई कष्ट न होना चाहिए। परन्तु यह अज्ञानी जीव मोहके तीव्र उदयवश जब शरीरको ही आत्मा समझ लेता है और शरीर सम्बन्धी स्त्री-पुत्र मिश्रादि परपदार्थोंको आत्मीय मान लेता है तब मरणके समुपस्थित होने पर उसे अपना ( अपने आत्मा का ) नाश और आत्मीय जनोंका वियोग दीख पड़ता है और इसलिए वह मरने से बहुत ही डरता है ॥ ७६ ॥ यस्तु स्वात्मन्येवात्मबुद्धिः स मरणोपनिपाते किं करोतीत्याहआत्मश्येवात्मधोरन्यां शरीरगतिमात्मनः । मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रांतरग्रहम् ॥७७॥ टीका- श्रात्मश्वात्मस्वरूप एव आत्मधीः अन्तरात्मा शरीरगत शरीर विनाश परिणति वा माकाद्यवस्थारूप रमलो अभ्यां भिन्नां निर्भयं यथा भवत्येव Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाभितष मन्यते । शरीरविनाशोत्पादौ आत्मनो विनाशोत्पावो न मन्यत इत्यर्थः । पत्र त्याला स्वासरग्रहणमिव ||७|| जिसकी आत्मस्वरूपमें ही आत्मबुद्धि है ऐसा अन्तरात्मा मरणके समुपस्थित होनेपर क्या करता है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ -( आत्मनिः एव आत्मधीः ) आत्मस्वरूपमें हो जिसकी दृढ़ आत्मबुद्धि है ऐसा अन्तरात्मा ( शरीरगति गरी विनासको अथवा बाल-युवा आदिरूप उसकी परिणतिको ( आ...Tः असा ) आपने आल्मासे भिन्न ( मन्यते ) मानता है-शरीरके उत्पाद विनाम अपन आस्माका उत्पाद-विनाश नहीं मानता-और इस तरह मरणके अवारपर ( वस्त्रं त्वक्त्वा वस्त्रान्तरणहम् इव ) एक वस्त्रको छोड़कर दुमरा बस्न ग्रहण करने की तरह ( निर्भय मन्यते ) निर्भय रहता है। भावार्य-अन्तरास्मा स्व-परके भेदका यथार्थ ज्ञाता होता है, अतएव पुद्गलके विविध परिणामोंसे खेद खिन्न नहीं होता । शरीरादि पुद्गलमय द्रव्योंको वह अपने नहीं समझता । इसीलिये शरीररूपी झोपहीका विनाश समुपस्थित होनेपर भी उसे आकुलता नहीं सताती । वह तो निर्भय हुआ अपने माल्मस्वरूपमें मग्न रहता है और शरीरके त्याग प्रहणको वस्त्रके त्याग ग्रहणके समान समानता है ।। ७७ ।। एवं च स एव बुध्यते यो व्यवहारेऽनापरपरः यस्तु तत्रादरपरः ग न बुध्यत इत्या , 'व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागरिमगोधरे । जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्ताचारमगोचरे ॥७॥ हीका व्यवहारे विकल्पाभिशामलक्षणे प्रवृत्तिनिवृत्यादिस्वरूपे वा पुश्तोऽप्रयत्नपरो यः समागास्नगोचरे आत्मविषये संवेदनोगतो भवति । यस्तम्बबहारेऽस्मिन्नुक्सप्रकारे जागति स पुशुप्तः आत्मगोचरे ॥७८।। इस प्रकार वही आत्मबोधको प्राप्त होता है जो व्यवहारमें अनावरवान है-अनासक्त है और जो व्यवहारमें आदरवान है-आसक्त है-वह आत्मबोधको प्राप्त नहीं होता। १. सुलो बहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो पम्गदि यवहारे सो सुत्तो अप्पण' कज्जे ॥ ३१ ॥ मोक्षाभूते, कुन्धाः । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र अन्वयार्थ – ( यः ) जो कोई. ( व्यवहारे ) प्रवृत्ति - निवृत्यादिरूप लोकव्यवहार में ( सुषुप्तः ) सोता है - अनासक्त एवं अप्रयत्नशील रहता है ( स ) वह ( आत्मगोचरे ) आत्माके विषय में ( जागति ) जागता है - आत्मानुभव में तत्पर रहता है (च ) और जो ( अस्मिन् व्यवहारे ) इस लोक व्यवहार में ( जागति ) जागता है उसकी साधना में तत्पर रहता है वह (आत्मगोचरे ) आत्मा के विषय में आत्मानुभवका कोई प्रयत्न नहीं करता है । ( सुषुप्तः ) सोता है ७० भावार्थ - जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती उसी प्रकार आत्मामें एक साथ दो विरुद्ध परिणतियाँ भी नहीं रह सकतीं, आत्मासक्ति और लोकव्यवहारासक्ति ये दो विरुद्ध परिणतियाँ हैं । जो आत्मानुभवन में आसक्त हुआ आत्माके आराधनमें तत्पर होता है वह लौकिक व्यवहारोंसे प्रायः उदासीन रहता है उनमें अपने आत्माकां नहीं फँसाता । और जो लोकव्यवहारोंने अपने आत्माको फँसाए रखता हैउन्होंमें सदा दत्तावधान रहता है वह आत्माके विषय मे बिल्कुल बेखबर रहता है— उसे अपने शुद्धस्वरूपका कोई अनुभव नहीं हो पाता ।। ७८ ।। यश्चात्मगोचरे जागति से मुक्ति प्राप्नोतीत्याह आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्या देहाविकं बहिः । तयोरन्तर विज्ञानावाभ्यासावच्युतो भवेत् ॥७९॥ टोका — आरमानन्तरेऽभ्यन्तरे वृष्ट्वा वैज्ञानिक बहिष्ट्वा तयोरात्मदेयोसरविज्ञानात् भेदविज्ञानात् अच्युतो मुक्तो भवेत् । ततोऽच्युतो भवन्नप्यभ्यासाद्भेदज्ञानभावनातो भवति न पुनर्भेदविज्ञानमात्रात् ॥७९॥ जो अपने आत्मस्वरूप के विषमें जागता है--उसकी ठीक सावधानी रखता है - वह मुक्तिको प्राप्त करता है, ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ - ( अन्तरे ) अन्तरंग में ( आत्मानम् ) आत्माके वास्तविक स्वरूपको ( दृष्ट्वा ) देखकर और ( बहि: ) बाह्यमें ( देहादिकं ) शरीरादिक परभावोंको ( दृष्ट्वा ) देखकर ( तयोः ) आत्मा और शरीरादिक दोनोंके ( अन्तर विज्ञानात् ) भेदविज्ञान से तथा ( अभ्यासात् ) अभ्यास द्वारा उस भेदविज्ञान में दृढ़ता प्राप्त करनेसे ( अच्युतो भवेत् ) यह जीव मुक्त हो जाता है । भावार्थ- जब इस जीवको आत्मस्वरूपका दर्शन हो जाता है और यह शरीरादिक को अपने आत्मासे भिन्न परपदार्थ समझने लगता है तब Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . .. समाणितंत्र इसकी परिणति पलट जाती है-बाह्य विषयोंसे हटकर अन्तमखी हो जातो है-और तब यह अपने उपयोगको इधर-उधर इन्द्रिय विषयोंमें न भ्रमाकर आत्माराधनको आर एकाय करता है, आत्मसाधनके अपने अभ्यासको बढ़ाता है और उस अभ्यास में दृढता सम्पादन करके अपने सम्यग्दर्शनादि गुणोंका पूर्ण विकास कर लेता है। फिर उसका आत्मस्वरूपसे पतन नहीं होता--वह उसमें बराबर स्थिर रहता है। इसीका नाम अच्युत ( मोक्ष ) पदको प्राप्त है ।। ७९ ।। यस्य च देहात्मनो ददर्शनं तस्यं प्रारब्धयोगावस्याया निष्पन्नयोगावस्थायां च कीदृशं जगत्प्रतिभासत इत्याह पूर्व दृष्टात्मतत्वस्य विभान्युन्मत्तवज्जगत् । स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपयत् ॥८॥ टोका---पूर्व प्रथम दृष्टात्मतरवस्य देहाभेदेन प्रतिपन्नात्मस्वरूपस्य प्रारब्धयोगिनः विभायमसजगत स्वरूपतिनविकलवाछु तर पेष्टायुक्तानां जगत् नानाबाह्मविफल्परूपेतमुन्मत मिव प्रतिभासने । पश्चाग्निष्पन्नयोगावस्थामा सत्मां स्वभ्यस्तात्मषियः सुष्छुभाषितमात्मस्वरूप येन तस्म निश्चलात्मस्वरूपमनुभवतो जगविषयचिन्ताभावात् काष्ठपावरणरूपवत्प्रतिभाति । न तु परमौदासीन्यावलम्बात् 11001 शरीर और आत्माका जिसे भेदविज्ञान हो गया है ऐसे अन्तरात्माको यह जगत योगाभ्यासको प्रारम्भावस्थामें कैसा दिखाई देता है और योगाभ्यासकी निष्पन्नावस्थामें केसा प्रतीत होता है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ-(दुष्टात्मतत्त्वस्य) जिसे आत्मदर्शन हो गया है ऐसे योगी जीवको (पूर्व ) योगाभ्यासकी प्राथमिक अवस्थामें ( जगत् ) यह अब प्राणिसमूह ( उन्मत्तवद ) उन्मत्त-सरीखा ( विभाति ) मालूम होता है किन्तु ( पश्चात् ) बादको जब योगको निष्पन्नावस्था हो जाती है तब { स्वभ्यस्तात्मधियः ) आत्मस्वरूपके अभ्यासमें परिपक्वबुद्धि हुए अन्तराण्माको (काष्ठपाषाणरूपवत् ) यह जगत् काठ और पत्थरके समान चेष्टारहित मालम होने लगता है। भावार्ष-अपने शरीरसे भिन्नरूप जब आत्माका अनुभव होता है तब योगकी प्रारम्भिक दशा होती है. उस समय योगो अन्तरात्माको यह जगत् स्वरूपचिन्तनसे विकल हानेके कारण शुभाशुभ चेष्टाओंसे यक्त और नाना प्रकारके बाह्य विकल्पोंसे घिरा हुआ उन्मत्त-जैसा मालम Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना पड़ता है। बादको योगमें निष्णात होनेपर जब आत्मानुभवका अभ्यास खब दृढ हो जाता है-बाह्यविषयों में उसकी परिणति नहीं जाती-तब, परम उदासीन भावका अवलम्बन न लेते हुए भी, जगद्विषयक चिन्ताका अभाव हो जानेके कारण उसे यह जगत् काष्ठ-पाषाण-जैसा निश्चेष्ट जान पड़ता है । यह सब भेदविज्ञान और अभ्यास-अनभ्यासका माहारम्य है ।। ८० ॥ ___ननु स्वम्यस्तात्मधियः इति व्यर्थम् । शरीराभेदेनारमनस्तत्स्वरूपवियः श्रवणात्स्वयं वाऽन्येषां तत्स्वरूपप्रतिपादनान्मुक्तिभविष्यतीत्यापा शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वबन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेड्रिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ॥१॥ टीका-अन्यत उपाध्यायादेः कामं अत्यर्थ नवम्मपि कलेबराद्भिन्नमात्मानमाकर्ण यन्नपि ततो भिन्न तं स्वयभन्यान् प्रति भवनपि यावत्तवराजसमात्मानं न भावयेत् । तावम्न मोसभाक् मोक्षभाजन सावन भवेत् ॥८॥ यदि कोई शंका करे कि 'स्वभ्यस्तात्मधियः' यह पद जो पूर्वश्लोकमें दिया है वह व्यर्थ है-आत्मतत्त्वके अभ्यासमें परिपक्व होनेकी कोई जरूरत नहीं क्योंकि शरीर और आल्माके स्वरूपके जाननेवालोंसे आस्मा शरीरसे भिन्न है ऐसा सुननेसे अथवा स्वयं दूसरोंको उस स्वरूपका प्रतिपादन करने से मुक्ति हो जायगी; इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं अम्बयार्थ-आत्माका स्वरूप ( अन्यतः) उपाध्याय आदि गुरुओंके मुखसे ( काम ) खुब इच्छानुसार ( शृण्वन्नपि) सुनने पर तथा ( कलेवरात् ) अपने मुखसे । वदन्नपि ) दूसरोंको बतलाते हुए भी ( यावत् ) जब तक ( आत्मान ) आत्मस्वरूपको ( भिन्न ) शरीरादि परपदार्योसे भिन्न (न भावयेत् ) भावना नहीं को जाती । (तावत् ) तब तक ( मोक्षभाक् न) यह जीव मोक्षका अधिकारी नहीं हो सकता ।। ८१॥ भावार्यजीव और पुद्गलके स्वरूपको सुनकर तोतेकी तरहसे रट लेने और दूसरोंको सुना देने मात्रसे मुक्तिको प्राप्ति नहीं हो सकती। मुक्तिको प्राप्तिके लिए आत्माको शरीरादिसे भिन्न अनुभव करनेकी खास जरूरत है । जब तक भावनाके बल पर यह अभ्यास दृढ़ नहीं होता तब तक कुछ भी आत्मकल्याण नहीं बन सकता ।। ८१ ॥ सद्भावनायां च प्रवृत्तोऽसौ किं कुर्यादित्याहतथैव भावयेद्देहायावस्थात्मानमारममि । यथा न पुनरात्मानं हे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥४२॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -UC L k -.. .- -- समाधितंत्र टोला-हापाप शरीरात्पृथक्कृत्वा आस्मान स्वस्वरूप अरमान स्थितं तव भावयेत् घरीरादभेदेन दृखतरभेदभावनाप्रकारेण भावयेत् । यथा पुनः स्वणे स्वप्नावस्थायां हे उपलब्धेषि सत्र बास्मान न योजयेत् देहमात्मतया नाष्य वस्येत् ॥८२॥ मेदविज्ञानकी भावना प्रवृत्त हुए अन्तरात्माको क्या करना चाहिये, उसे बतलाते हैं अन्धया-अन्तरात्माको चाहिए कि वह ( देहाद ) शरीरसे ( आत्मानं ) आत्माको ( व्यावृत्य ) भिन्न अनुभव करके ( आत्मनि) आत्मामें ही (तथेव) उस प्रकारसे (भावयेत्) भावना करे ( यथा पुनः) जिस प्रकार से फिर ( स्वप्नेऽपि) स्वप्नमें भी ( देहे ) शरीरको उपलब्धि होनेपर उसमें । आत्मानं ) आत्माको (न योजयेत् ) योजित न करे । अर्थात् शरीरको आत्मा न समझ बैठे। भावार्थ-मोहकी प्रबलता-जन्य चिरकालका अज्ञान संस्कार जब हृदय से निकल जाता है तब स्वप्नमें भी इस जड़ शरीरमें आस्माकी बुद्धि नहीं होती । अतः उक्त संस्कारको दूर करने के लिये भेदविज्ञानकी निरंतर भावना करनी चाहिये ।। ८२।। यथा परमौवासीन्यावस्थायां स्वपरविकल्पस्त्यापस्तथा व्रतविकल्पोऽपि । यतः अपुष्पमवतः पुण्यं वतर्मोक्षस्सयोव्ययः । अवतानीष मोक्षार्थी प्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।।८।। टीका-अपुग्यमधर्मः अवतहिंसाविधिकल्पः परिणतस्य भवति । पुच पो प्रतः हिंसादिविरतिविकल्पः परिणतस्प भवति । मोमः पुनस्तयोः पुण्यामुग्यो यो विनाशो । पर्थव हि लोहाला बंधहेतुस्सया सुवर्णरुलाऽपि । बतो यपोभयङ्खलामावाद्यवहारे मुक्तिस्तथा परमार्थेऽपीति । ततस्तस्मात् मोहानी भातानीच इव शम्दो यथाऽर्थः यथाऽवतानि स्पबेतवा ताम्यपि ॥८३॥ जिस प्रकार परम उदासीन अवस्थामें स्व-परका विकल्प त्यामने योग्य होता है उसी प्रकार व्रतोंके पालनेका विकल्प भी स्याज्य है। क्योंकि अन्वयार्थ-अवतः ) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप पाँच अवतोंके अनुष्ठानसे ( अपुण्यम् ) पापका बंध होता है और (प्रतः) हिसादिक पाँच प्रतोंके पालनेसे (पुण्यं ) पुष्पका बंध होता है ( तमोः) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र पुष्प दोनों (यः) जो विनाश है और वही ( मोक्षः ) मोक्ष है ( ततः ) इसलिये ( मोक्षार्थी ) मोक्षके इच्छुक भव्य पुरुषको चाहिये कि ( अन्नतानि इव ) अव्रतोंकी तरह ( व्रतानि अपि ) व्रतोंको भी ( त्यजेत् ) छोड़ देवे । भावार्थ - मोक्षार्थी पुरुषको मोक्षप्राप्तिके मार्ग में जिस प्रकार पंच अद्रत विघ्नस्वरूप है उसी प्रकार पाँच व्रत भी बाधक हैं, क्योंकि लोहेकी बेड़ी जिस प्रकार बन्धकारक है उसी प्रकार होने की बेड़ी भी बंधकारक है । दोनों प्रकारकी बेड़ियों का अभाव होनेपर जिस प्रकार लोकव्यवहारमें मुक्ति ( आजादी }) समझी जाती है उसी प्रकार परमार्थ में भी व्रत और अत दोनोंके अभाव से मुक्ति मानी गई है। अतः मुमुक्षुको अव्रतोंकी तरह व्रतोंकी भी छोड़ देना चाहिये ॥ ८३ ॥ 1 कथं तानि त्यजेदिति तेषां त्यागक्रमं दर्शयन्नाहअव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ॥ टीका - अग्रतानि हिंसादीनि प्रथमतः परित्यज्य तेषु परिनिष्ठितो भवेत् । पश्चात्तान्यपि त्यजेत् । किं कृत्वा ? सम्प्राप्य । किं तत् ? परमं पर्व परमवीत रागतालक्षणं क्षीणकषायगुणस्थानं । कस्य तत्पदं ? बात्मनः ।। ८४ ।। अब उनके छोड़नेका कम बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( अव्रतानि ) हिसादिक पंच अव्रतोंको ( परित्यज्य ) छोड़ करके ( व्रतेषु ) अहिमादिक व्रतोंमें (परिनिष्ठितः ) निष्ठावान् रहे अर्थात् उनका दृढ़ता के साथ पालन करे, बादको ( आत्मनः ) आत्माके ( परमं पदं ) रागद्वेषादिरहित परम वीतराग- पदको ( प्राप्य ) प्राप्त करके ( तानि अपि ) उन व्रतोंको भी ( त्यजेत् ) छोड़ देवे । 1 भावार्थ - प्रथम तो हिमादिक पंच पापरूप अशुभ प्रवृत्तिको छोड़कर अहिंसादिक व्रलोके अनुष्ठानरूप शुभ प्रवृत्ति करनी चाहिये । साथ ही अपना लक्ष शुद्धोपयोगकी ओर ही रखना चाहिये। जब आत्माके परमपदरूप शुद्धपयोगकी - परमवीतरागतामय क्षीणकषायनामक गुणस्थान की— सम्प्राप्ति हो जाये तब उन व्रतोंको भी छोड़ देना चाहिये 1 लेकिन जब तक वीतराग दक्षा न हो जावे तबतक व्रतोंका अबलम्बन रखना चाहिये, जिससे अशुभको ओर प्रवृत्ति न हो सके ||८४|| Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र कुतोऽव्रत - व्रत विकल्पपरित्यागे परम्पदप्राप्तिरित्याहयदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥ ८५॥ * ७५ टीकाकथम्भूतं ? अन्तर्जरूपसं पुक्तं अन्तवचनव्यापारोपेतं । व्यारमनो बुःखस्य मूलं कारणं । तन्नाशे तस्योत्प्रेक्षाजालस्य बिनाशे । इष्टमभिलषितं यत्पदं तरिछष्टं प्रतिपादितम् ।। ८५ ।। किस प्रकार अव्रतों और व्रतोंके विकल्पको छोड़नेपर परमपदकी प्राप्ति होगी. उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( अन्तर्जल्पसंपृक्तं ) अंतरंग में वचन व्यापारको लिये हुए ( यत् उत्प्रेक्षाजालं ) जो अनेक प्रकारकी कल्पनाओंका जाल है वही ( आत्मनः ) आत्मा के ( दुःखस्य ) दुःखका ( मूलं ) मूल कारण है ( तन्नाशे ) उस विविध संकल्प विकल्परूप कल्पनाजालके विनाश होनेपर (इष्टं ) अपने प्रिय हितकारी ( परं पदं शिष्टं ) परमपदको प्राप्ति कही गई है । भावार्थ -- यह जीव अपने चिदानन्दमय परम अतीन्द्रिय अविनाशी निर्विकल्प स्वरूपको भूलकर जब तक बाह्यविषयोंको अपनाता हुआ दुःख मूलकारण अल्परूपी अनेक संकल्प-विकल्पों के जाल में फँसा रहता है - मन- हो मन कुछ गुनगुनाता अथवा हवासे बातें करता है— तब तक इसको परमपदको प्राप्ति नहीं हो सकती और न कोई सुख ही मिल सकता है। सुखमय परमपदको प्राप्ति उसोको होती है जो अन्तजल्परूपो उत्प्रेक्षाजालका सर्वथा त्याग करके अपने ही नेतन्य चमत्काररूप विज्ञानधन आत्मामें लीन हो जाता है ॥८५॥ तस्य चोत्प्रेक्षाजालस्य नाशं कुर्वाणोऽनेन क्रमेण कुर्यादित्याह - अवती समादाय व्रतो ज्ञानपरायणः । परात्मज्ञानसम्पन्नः स्वयमेव परो भवेत् ॥ ८६ ॥ टीका -- अतित्वावस्थाभावि विकल्पजालं व्रतमावाय विनाशयेत् । प्रतित्वावस्थाभावि पुनर्विकल्पजालं ज्ञानपरायणो ज्ञानभावनानिष्ठो भूत्वा परमवीतरागतावस्यायां विनाशयेत् । सयोगिजिनावस्थायां परात्मज्ञानसम्पन्नः परं सकलशानेम्य: उत्कृष्ट लभ्च तदात्मज्ञानं च केवलज्ञानं तेन सम्पन्नो युक्तः स्वयमेव गुर्वाद्युपदेशानपेक्षः परः सिद्धस्वरूपः परमात्मा भवेत् ।। ८६ ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिसंग उस उत्प्रेक्षाजालका नाश करनेके लिये उदमी मनुष्य किस कमसे उसका नाश करे, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ--( अवती ) हिंसादिक पंच अन्नतों-पापोंमें अनुरक्त हुआ मानव (खतं आदाय ) व्रतोंको ग्रहण करके, अद्रतावस्था में होनेवाले विकल्पोंका नाश करे, तथा ( व्रती ) अहिंसादिक प्रतोंका धारक ( ज्ञानपरायणः ) ज्ञानभावनामें लीन होकर, प्रतावस्थामें होने वाले विकल्पोंका नाश करे और फिर अरहत-अवस्थामें ( परात्मज्ञानसम्पन्नः ) केवलज्ञानसे युक्त होकर ( स्वयमेव ) स्वयं ही बिना किसीके उपदेशके (परः भोत ) परमात्मा होवे-सिद्धस्वभागको प्राप्त करे ! भावार्थ-विकल्पजालको जीतकर सिद्धि प्राप्त करनेका क्रम अवतीसे प्रती होना, प्रतीसे शानभावनामें लीन होना, शानभावनामें लीन होकर केवलज्ञानको प्राप्त करना और केवलज्ञानसे सम्पन्न होकर सिद्धपदको प्राप्त करना है ।।८।। यथा च वविकल्पो मुक्तिहेतुर्न भवति तथा लिङ्गविकल्पोऽमीत्याह-- लिङ्ग देहाश्रितं दृष्टं बेह एवात्मनो भवः ।। न मुच्यन्ते भवासस्माते ये लिसकताऽऽग्रहाः ॥७॥ टोका-लि जटाधारणनग्नत्वादिदेहाधित इष्ट शरीरधर्मतया प्रत्पिन्न । देह एवासानो भव: संसारः । यत एवं सस्माये लिगकृतामहा: लिंगमेव मुक्त हेतुरिति कृताभिनिवेशास्तेन मुच्यते । कस्मात् मचात् ।। ८७ ॥ जिस प्रकार व्रतोंका विकल्प मोक्ष का कारण नहीं उसी प्रकार लिंगका विकल्प भो मोक्षका कारण नहीं हो सकता, ऐसा प्रतिपादन करते हैं___ अन्वयार्थ-(लिङ) जदा धारण करना अथवा नग्न रहना आदि वेष ( देहाधितं दृष्ट ) शरीरके आश्रित देखा जाता है । देह एव ) और शीर हो ( आत्मनः) आत्माका ( भवः) संसार है ( तस्मात् ) इसलिये ( ये लिङ्गकृतापहाः ) जिनको लिङ्गका ही आग्रह है-चार वेष धारण करनेसे मुक्तिको प्राप्ति होती है ऐसी हछ है (ते ) वे पुरुष' ( भवात् ) संसारसे ( न मुच्यन्ते ) नहीं छूटते हैं। भावार्थ-जो जीव केवल लिंग अथवा बाह्य वेषको ही मोक्षका कारण मानते हैं वे देहात्मदृष्टि है और इसलिये मुक्तिको प्राप्त नहीं हो सकते। क्योंकि लिगका माभार देह है और दह ही इस बारमाला Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . .. . . समाधितंत्र ..-. .- - -- - संसार है-देहके अभावमें संसार रहता नहीं। जो लिंगके आग्रही हैंलिंगको हो मुक्तिका कारण समझते हैं-संसारको अपनाये हुए हैं, और जो संसारके आग्रही होते हैं-उसीकी हठ पकड़े रहते हैं. वे संसारसे नहीं छूट सकते ।।८७|| ___ येऽपि 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरुरतः स एव परमपदयोग्य' इति वदन्ति तेऽपि न मुक्तियोम्या इत्याह-- जातिहाश्रिता दृष्टा वेह एवात्मनो भवः । न मुच्यन्ते भवारना थे भाविता: 13 टीका जातिक्षिणत्वाविदेहाश्रितेत्यादि सुगमं ।। ८८ ।। जो ऐसा कहते हैं कि 'वर्णोका ब्राह्मण गुरु है, इसलिए वही परमपदके योग्य है वे भी मुक्तिके योग्य नहीं हैं, ऐसा बतलाते हैं--- अन्वयार्ष-(जातिः ) ब्राह्मण आदि जाति ( देहाश्रिता दृष्टा) शरीरके आश्रित देखी गई है ( देह एव ) और शरीर हो ( आत्मनः भवः) आत्माका संसार है (तस्मात् ) इसलिये (ये) जो जीव ( जातिकृताग्रहा.) मुक्तिको प्राप्तिके लिये जातिका हट पकड़े हुए हैं ( तेऽपि ) वे भी ( भवात् ) संसारसे ( न मुच्यन्ते) नहीं छुट सकते हैं। भावार्य-लिंगकी तरह जाति भी देहाश्रित है और इसलिए जातिका दुराग्रह रखने वाले भी मुक्तिको प्राप्त नहीं हो सकते । उनका जाति-विषयक आग्रह भी संसारका ही आग्रह है और इसलिए वे संसारसे केसे छूट सकते हैं ? नहीं छूट सकते ||८cli ___ सहि ब्राह्मणत्वादिजातिविशिष्टो निर्वाणाविधीक्षया दीक्षितो मुक्ति प्राप्नोतीति वदन्त प्रत्याह जातिलिगविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । तेऽपि न प्राप्नुवन्स्येव परमं परमात्मनः ।।८९॥ टीका-जासिलिगस्पोविकल्पों भेवस्तेन येषां पावादीनां समयाग्रहः भागमानुबंधः उत्तमजातिविशिष्टं हि लिंग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्माण मुक्तिरित्यरूपी येषामागमाभिनिवेशः हेऽपि में प्राणवन्रमेव परमं परमात्माः ॥८९॥ तब तो ब्राह्मण आदि जातिविशिष्ट मानव ही साधुवेष धारणकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है, ऐसा कहने वालोंके प्रति कहते हैं अम्बया-(येषा) जिन जीवोंका ( जातिलिंगविकल्पेन ) जाति --. .. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र और बेषके विकल्पसे मुक्ति होती है ऐमा ( समयाग्रहः ) आगम-संबंधी आग्रह है...बाह्मण आदि जातिमें उत्पन्न होकर अमुक वेष धारण करनेसे ही मुक्ति होती है ऐमा आगमानुवन्धि हठ है ( ते अपि ) वे पुरुष भी ( आत्मनः) आत्मा ( परम "दं परमपदको (न प्राप्नुन्त्येव ) प्राप्त नहीं कर सकते हैं-संसारसे सूक्त नहीं हो सकते हैं। ____भावार्थ-जिनका एसा आग्रह है कि अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा आगममें कहा है, वे भी मुक्तिको प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि जाति और लिंग दोनों ही जब देहाश्रित हैं और देह ही आत्माका संसार है तब संसारका आग्रह रखने वाले उसे कैसे छूट सकते हैं ?।।८९|| तत्पधप्राप्त्यर्थ जात्मादिविशिष्टे वारोरे निर्ममत्व सिद्धयर्थ भीगेम्यो घ्यावृत्यापि पुनर्मोहवशाच्छरीर एवानुबन्ध प्रकुर्वन्तोत्याह यत्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदधाप्तये । प्रोति तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिनः ॥१०॥ टोका-यस्य शरीरस्य त्यागाय गिमवाय भोगेभ्यः स्रग्सनितादियो निवर्तन् । तथा यववाप्तये यस्य परमवीतरागत्वस्यावाप्सय प्राप्तिनिमित्त भोगेम्यो निवर्तन्ते । प्रीतिमनुबन्धं सत्रव शरीरे आबद्ध एव कुर्वन्ति द्वेषं पुनरम्यत्र परमवीतरागत्वे । के ते ? मोहिनो मोड्वन्तः ॥ ९० ॥ उस परमपदकी प्राप्तिके लिये ब्राह्मणादिजातिविशिष्ट शरीरमें निर्ममत्वको मिद्ध करनेके लिये भोगों को छोड़ देनेपर भी अमानी जीव मोहके वश होकर शरीरमें ही अनुराग करने लग जाते हैं, ऐसा कहते अन्वयार्थ-[ यत्यागाय ] जिस शरीरके त्यागके लिये---उससे ममत्व दूर करनेके लिये-और ( यअवाप्तये ) जिस परम वीतराग पदको प्राप्त करने के लिये [ भोगेभ्यः ] इन्द्रियोंके भोगोंसे (निवर्तन्त ) निवृत्त होते हैं अर्थात् उनका त्याग करते हैं ( तत्रैव ) उसी शरीर और इन्द्रियोंके विषयोंमें ( मोहिनः ) मोहो जीव (प्रोति कुर्वन्ति ) प्रोति करते हैं और ( अन्यत्र ) बीत रामता आदिके साधनोंमें ( वेषं कुर्वन्ति ) द्वेष करते हैं। भावार्थ--मोहको बड़ी ही विचित्र लीला है। जिस पारीरसे ममत्व हटानेके लिये भागोंसे निवृत्ति धारण की जाती है. संयम ग्रहण किया Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... . . समाषितंत्र जाता है-उसीसे मोही जीव पुन: प्रीति करने लगता है और जिस वीतरागभावकी प्राप्तिके लिये भोगोंसे निवृत्ति धारण की जाती हैसयमका आश्रय लिया जाता है--उसीसे मोही जीव द्वेप करने लगता है । ऐसी हालतमें मोहपर विजय प्राप्त करने के लिये बड़ी हो सावधानीकी जरूरत है और वह तभी बन सकती है जब साधकको दृष्टि शुद्ध हो । दृष्टि में मिले ही रखे दिसता है---सारीको उपकारी और उपकारी को अपकारी समझ लिया जाता है ।।९०॥ तेषां देहे दर्शनव्यापारविपर्णसं दर्शयन्नाह-- अनन्तरज्ञः संधत्ते दृष्टि पंगोर्यथाऽन्धके । संयोगात दष्टिमोऽपि संधत्ते तदात्मनः ।।९१।। होका- अनन्तरशो भेदाग्राहकः पुरुषो यथा गोष्टिमन्धके सन्धत्ते आरोपयति । कस्मात संयोगात् पंग्वन्धयो सम्बन्धमाश्चित्य । तद्वत् तथा बेहारमनोः संयोगावात्मनो दृष्टिमंगेऽपि सन्धत अंमं पश्यतीति [ मन्यते ] मोहाभिभूतो बहिरात्मा ।। ९१ ॥ मोही जीवोंके शरीरमें दर्शनच्यापारका विपर्यास किस प्रकार होता है, उसे दिखलाते हैं अन्वयार्थअनन्तरशः ) भेदज्ञान न रखने वाला गुरुप ( यथा) जिस प्रकार ( संयोगात् ) संयोगके कारण भ्रममें पड़कर-संयुक्त हुए लंगड़े और बंधेकी क्रियाओंको ठीक न समझकर ( पंगोदृष्टि ) लँगड़ेकी दृष्टिको ( अन्धके ) अन्धे पुरुषमें ( संधत्ते ) आरोपित करता है—यह समझता है कि अन्धा स्वयं देखकर चल रहा है-(तद्वत् ) उसी प्रकार ( आत्मनः दृष्टि ) आत्माकी दृष्टिको ( अङ्गेऽपि ) शरीरमें भी (सन्धत्ते) आरोपित करता है-यह समझने लगता है कि यह शरीर ही देखता जानता है। भावार्थ-एक लँगड़ा अन्धेके कंधे पर चढ़ा जा रहा है और ठीक मासे चलने के लिये उस अन्धेको इशारा करता जाता है, मार्ग चलनेसे दृष्टि लँगड़ेकी और पद टांगें अन्धेकी काम करती हैं। इस भेदको ठीक न जानने वाला कोई पुरुष यदि यह समझ ले कि यह अन्धा ही कैसी सावधानोसे देखकर चल रहा है तो वह जिस प्रकार उसका भ्रम होगा उसी प्रकार शरीरारूढ आत्माको दर्शनादिक क्रियाओंको न समझकर उन्हें शरीरकी मानना भी भ्रम है और इसका कारण आत्मा और शरीर Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र दोनोंका एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध है । आत्मा और शरोरके भेदको ठीक न समझने वाला बहिरात्मा ही ऐसे भ्रमका शिकार होता है ॥११॥ ८० अन्तरात्मा किं करोतीत्याह- बृष्टभेदो यथा दृष्टि पङ्गोरन्धेन योजयेत् । तथा न योजयेद्द है वृष्टात्मा दृष्टिमात्मनः ॥९२॥ टीका--दृष्टभेद: पंग्बन्धयोः प्रतिपन्नभेदः पुरुषो यथा पंगोदृष्टिरवे न योजयेत् । तथा आत्मनो बृष्टि बेहेन योजयेत् । कोऽसौ ? वृष्टात्मनः देहभेदेन प्रतिपन्नात्मा ॥२॥ संयोगकी ऐसी अवस्था में अन्तरात्मा क्या करता है, उसे बतलाते हैंअन्वयार्थ - ( दृष्टभेदः ) जो लंगड़े और अन्धे मेदका तथा उनकी क्रियाओंको ठीक समझता है वह ( यथा ) जिस प्रकार ( पंगोदु ष्टि ) लंग की दृष्टिको अन्धे पुरुष में ( न योजयेत् ) नहीं जोड़ता - अन्धेको मार्ग देखकर चलने वाला नहीं मानता - ( तथा ) उसी प्रकार ( दृष्टात्मा ) आत्माको शरीरादि परपदार्थों से भिन्न अनुभव करनेवाला अन्तरात्मा ( अत्मनः दृष्टि ) आत्माको दृष्टिको—उसके ज्ञानदर्शनस्वभावको ( देहे ) शरीर में ( न योजयेत् ) नहीं जोड़ता है-शरीरको शाता दृष्टा नहीं मानता है । भावार्थ --- जिस पुरुषको अन्धे और लँगड़ेका भेद ठीक मालूम होता है ऐसा समझदार मनुष्य जिस प्रकार दोनोंके संयुक्त होनेपर भ्रम में नहीं पड़ता - अन्धेको दृष्टिहीन और लँगडेको दृष्टिवान् समझता हैउसी प्रकार भेदविज्ञानी पुरुष आत्मा और शरीर के संयोगवश भ्रममें नहीं पड़ता - शरीरको चेतनारहित जड़ और आत्माको ज्ञानदर्शनस्वरूप हो समझता है, कदाचित् भी शरीरमें आस्माकी कल्पना नहीं करता ||१२|| बहिरन्तरात्मनोः काऽवस्था भ्रान्तिः का वाऽभ्रान्तिरित्याह-सुप्तोन्मत्तावस्यैव विभ्रमोऽनात्मदशिनाम् । विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य सर्वावस्थाऽस्मदर्शिनः ॥९३॥ टीका -- सुप्तोन्माद्यस्थैव विभ्रमः प्रतिभासते । केषाम् ? अनारमवशिनां यथावदात्मस्वरूपपरिज्ञानरहितानां वह्निरात्मनाम् । आत्मनोऽन्तरात्मनः पुनर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र क्षीणवोषस्य मोहाक्रान्तस्य बहिरात्मनः सम्बंधिन्यः सर्वावस्थाः सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थावत् जाग्रत्प्रबुद्धामुन्मत्ताअवस्थाऽपि विभ्रमः प्रतिभासते पथावस्तुप्रतिभासामावात् । अथवा-सुप्तोन्मसाधनस्र्थव एवकारोऽपिशब्दार्थे तेन सुप्तोन्मताद्यवस्थाऽपि न विभ्रमः केषाम् ? आत्मवशिमा दृढ़तराम्यासात्तदवस्यायामपि आत्मनि तेषामदिपर्यासात् स्वरूपसं वित्तिवैकल्यासम्भवाच्च यदि सुप्तावस्थायामप्यात्मदर्शनं स्यात्तदा जाग्रदेवस्थावत्तत्राप्यात्मनः कथं सुप्तादिव्यपदेश इत्यययुक्तम् यतस्तत्रेन्द्रियाणां स्वविषये निद्रया प्रतिबन्धात्तद्धपदेशो न पुनरामदर्शनप्रतिबन्धादिति । तहिं कस्याऽमी विभ्रमो भवति ? अक्षीणवोवस्य बहिरात्मनः । कथम्भूतस्य ? सर्वावस्थात्मशिनः सर्वावस्थां बालकुमारादिलक्षणां सुप्तोन्मत्तादिरूपां चात्मेति पश्यत्येवं शीलस्य ॥ ९३ ॥ बहिरात्मा और अन्तरात्माको कौनसी अवस्था भ्रमरूप और कौनसी भ्रमरहित मालूम होती है उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ---(अनात्मशिनाम् ) आत्मस्वरूपका वास्तविक परिज्ञान गि में ही है पो दिरामागों मुनोन्मत्तानि अवस्था एव ) केवल सोने व उन्मत्त होनेको अवस्था ही ( विभ्रम ) भ्रमरूप मालम होती है। किन्तु ( आस्मदर्शिनः ) आत्मानुभवी अन्तरात्माको ( अक्षीणदोषस्य ) मोहाक्रान्त बहिरात्माकी ( सविस्थाः ) सर्व ही अवस्थाएं-सृप्त और उन्मत्तादि अवस्थाओंकी तरह जाग्रत, प्रबुद्ध और उन्मत्तादि अवस्थाएँ भी (विभ्रमः) भ्रमरूप मालूम होती हैं। वितोय अर्थ-टीकाकारने 'अनात्मशिना' पदको 'न आत्मशिना' ऐसा मानकर और 'सर्वावस्थात्मदर्शिनों को एक पद रखकर तथा 'एव' का अर्थ 'भी' लगाकर जो दूसरा अर्थ किया है वह इस प्रकार है---- ___ आत्मदर्शी पुरुषोंको सुप्त व उन्मत्त अवस्थाएँ भी भ्रमरूप नहीं होती, क्योंकि दुइतर अभ्यासके कारण उनका चिप्स आत्मरससे भीगा रहता है-स्वरूपसे उनकी च्युति नहीं होती इन्द्रियोंकी शिथिलता या रोगादिके वंश उन्हें कदाचित् मूर्छा भी आ जाती है तो भी उनका आत्मानुभवरूप संस्कार नहीं छूटता--वह बराबर बना ही रहता है। किन्तु अक्षीणदोष बहिरात्माके, जो बाल युवादि सभी अवस्थारूप आत्माको अनुभव करता है, वह सब विभ्रम होता है । ___ भावार्चनजनको आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है उनको केवल सुप्त व उन्मत्त जैसी अवस्थाएं ही भ्रमस्वरूप मालूम होती हैं किन्तु आत्मदशियोंको मोहके वशीभूत हुए रागी पुरुषोंकी सभी अवस्थाएं भ्रमरूप Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ji समाधितंत्र जान पड़ पड़ती है---भले ही वे जागृत, प्रबुद्ध तथा अनुन्मत्त-जेसी अवस्थाएँ ही क्यों न हों। वास्तवमें बहिरात्मा और अन्तरात्माकी अवस्थामें बड़ा भेद है-अन्तरात्मा आत्मस्वरूपमें सदा जाग्रत् रहता है, जबकि बहिरात्माकी इससे विपरीत दशा होती है ||१३|| __ननु सर्वावस्थात्मशिनोऽप्यशेषमास्त्रपरिज्ञानान्निद्रारहितस्य मुक्तिभष्यितीति वदन्तं प्रत्याह विविताशेषशास्त्रोति - जागपि मुख्यते । देहात्मदृष्टितिात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥९४॥ टोका- न मुच्यते न कर्मरहितो भवति 1 कोऽसौ ? देहात्मदृष्टिबंहिरात्मा । कथम्भूतोऽपि ? विदिताहशेषशास्त्रोऽपि परिज्ञाताशेषशास्त्रोऽपि बेहात्मदृष्टियतः देहात्मनोभेंदरुचिरहितो यतः पुनरपि कथम्भूतोऽपि ? जाप्रवपि निद्रयानभिभूतोऽपि । यस्तु शातात्मा परिज्ञातात्मस्वरूपः स सुप्तोम्मत्तोऽपि मुख्यते विशिष्टां कर्मनिर्जरां करोति दृढतराभ्यासात्सुप्तावस्थायामप्यात्मस्वरूपसंविस्यवकल्यात् ।। ९४ ॥ __ यदि कोई कहे कि बाल वदादि सर्व अवस्थारूप आत्माको मानने वाला सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे निद्रारहित हुआ मुक्तिको प्राप्त हो जायेगा, तो उसके प्रति आचार्य कहते हैं___ अन्वयार्थ---( देहात्मदृष्टिः ) शरीरमें आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा ( विदिताशेषशास्त्रः अपि ) सम्पूर्ण शास्त्रोंका जानने वाला होनेपर भी तथा ( जाग्रत् अपि ) जागता हुआ भी ( न मुच्यते ) कर्मबन्धनसे नहीं छूटता है । किन्तु (झातात्मा) जिसने आत्माके स्वरूपको देहसे भिन्न अनुभव कर लिया है ऐसा विवेकी अन्तरात्मा (सुप्तोन्मत्तः अपिः) सोता और उन्नत्त हुआ भी ( मुच्यते ) कर्मबन्धनसे मुक्त होता है-विशिष्टरूपसे कर्मोंकी निर्जरा करता है । भावार्थ-अनेक शास्त्रोंके जानने तथा जाग्रत् रहनेपर भी भेदविज्ञान एवं देहसे आत्माको भिन्न करनेको रुचिके बिना भक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती। देहात्मदृष्टिका शास्त्रज्ञान तोतेकी राम-राम रटनके समान भाववासनाके बिना आत्महितका साधक नहीं हो सकता । प्रत्युत इसके, भेद-विज्ञानी होनेपर सुप्त और उन्मत्त-जैसी अवस्थाएँ भी आत्माका कोई विशेष अहित नहीं कर सकती, क्योंकि दृढतर अभ्यासके वश उन अवस्थाओंमें भी आत्मस्वरूप संवेदनसे च्युति न होनेके कारण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामि -. --. विशिष्टरूपसे कर्मनिर्जरा होती रहती है, और यह कर्मनिर्जरा ही बन्धनका पर्यवसान एवं मुक्तिका निशान है। अतएव भेदविज्ञानको प्राप्त करके उसमें अपने अभ्यासको दृढ़ करना सर्वोपरि मुख्य और उपादेय - - -'- " " कुतस्तदा तदर्वकल्यमित्याहयत्र वाहितषीः पुंसः श्रद्धा तत्रच जायते । यत्र व जायते श्रद्धा चित्तं तव लोयते ॥१५॥ टोका-यय यस्मिन्नैक विषये आहितलीः दसावधाना बुद्धिः । "पत्रात्महितप्रीति च पाठः यत्रात्मनो हितमुपकारस्तवाहितधीरति ।" स हितमुपकारक इति बुद्धिः । कस्य ? पुसः । अवा रुचिस्तस्य तत्रय तस्मिन्नेव विषय जायते । यत्रय जापते पहा चित्त तोच लोयते आसक्तं भवति ।। ९५ ॥ सुप्तादि अवस्थाओंमें भी स्वरूप संवेदन क्योंकर बना रहता है, इस बातको स्पष्ट करते हैं अन्वयार्थ ( यत्र एष ) जिस किसी विषयमें (पुसः) पुरुषको { आहितधीः ) दत्तावधानरूप बुद्धि होती है ( तत्रैव ) उसी विषयमें उनको ( श्रद्धा जायते ) श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और ( यत्र एव) जिस विषयमें ( श्रद्धा जायते ) श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है ( तत्रैव ) उस विषयमें ही ( चित्त लीयते ) उसका मन लीन हो जाता है तन्मय बन जाता है। भावार्थ-जिस विषयमें किसी मनुष्यको बुद्धि संलग्न होती हैखूब सावधान रहती है-उसी में आसक्ति बढ़कर उसकी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, और जहाँ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वहीं चित्त लीन रहता है। चिसकी यह लीनता ही सुप्त और उन्मत्त-जैसी अवस्थाओंमें मनुष्यको उस विषयकी ओरसे हटने नहीं देती-सोते में भी वह उसीके स्वप्न देखता है और पागल होकर भी उसीकी बातें किया करता है ।।१५।। नच पुनरनासप्तं चित्तं भवतीत्याह-- यत्रानाहितधीः पुंसः श्रद्धा तस्मान्निवर्तते । यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतषिचत्तस्य तल्लपः ॥१६॥ टीका-यत्र यस्मिन्विषये नाहितवीरवतावधामा बुद्धिः । 'यत्रवाहितधीरति च पाठः पत्र प माहितधीरतुपकारमादिः।कास्प! पुसः। तस्मादिषयात्स Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र काशात् षद्धा निवर्तते । यस्मान्निवर्तते यद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः तस्मिन् विषये लय आसक्तिस्तत्रयः कुतो ? नैव कुतश्चिदपि ॥ ९६ ॥ ८४ अब चित्त कहाँपर अनासक्त होता है, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ --- ( यत्र ) जिस विषय में ( पुगः ) पुरुषकी ( अनाहितघोः) बुद्धि दत्तावधानरूप नहीं होती ( तस्मात् ) उसमे (श्रद्धा) रुचि ( निवर्तते ) हट जाती है-दूर हो जाती है ( यस्मात् ) जिससे (श्रद्धा) रुचि ( निवर्तते ) हट जाती है ( चित्तस्य ) चित्तकी ( तल्लयः कुतः ) उस विषयमें लीनता कैसे हो सकती हैं ? अर्थात् नहीं होती । भावार्थ - जिस विषय में किसी मनुष्यकी बुद्धि संलग्न नहीं होतीभले प्रकार सावधान नहीं रहती - उसमेंसे अनासक्ति बढ़कर श्रद्धा उठ जाती है, और जहाँस श्रद्धा उठ जाती है वहाँ चित्तकी लीनता नहीं हो सकती । अतः किसी विषय में आसक्ति न होनेका रहस्य बुद्धिको उस विषयकी ओर अधिक न लगाना ही है-बुद्धिका जितना कम व्यापार उस तरफ किया जायगा उसे अहितकारी समझकर जितना कम योग दिया जायगा उतनी ही उस विषय से अनासक्ति होती जायगी और फिर सुप्त तथा उन्मत्त अवस्था हो जाने पर भी उस ओर चित्तकी वृत्ति नहीं जायगी ॥९६६॥ यत्र च चित्तं विलीयते तदृष्येयं भिन्नमभिन्नं च भवति, तत्र भिन्नात्मनि ध्येयें फलमुपदर्शयन्नाह — भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः । वतिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥ ९७ ॥ टोका - भिम्नात्मानभारावकात् पृथग्भूतमात्मानम हेस्सिद्धरूपं उपास्याराध्य आत्मा आराधकः पुरुषः परः परमात्मा भवति तादृशोऽहंत्सिद्धस्वरूपसदृशः । अवार्थे दृष्टान्तमाह- तिरित्यादि । दीपान्निा पतिथा बीपमुपास्य प्राप्य तावृशो भवति दोषरूपा भवति ।। ९७ ।। जिस विषयमें चित्तलीन होना चाहिये वह ध्येय दो प्रकारका है-एक भिन्न, दूसरा अभिन्न । भिन्नात्मा ध्येयमें लीनताका फल क्या होगा, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ – ( आत्मा ) यह आत्मा ( भिन्नात्मान) अपनेसे भिन्न अर्हन्त सिद्धरूप परमात्मा की उपास्य ) उपासना-आराधना करके ( तादृशः ) उन्हींके समान ( परः भवति ) परमात्मा हो जाता है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f समाचितंत्र ८५ ( यथा ) जैसे ( भिन्ना वतिः ) दीपकसे भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी ( दीपं उपास्य ) दोपककी आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके ( तादृशी ) दीपक स्वरूप ( भवति ) हो जातो है । भावार्थ - जिसमें चित्तको लगाना चाहिये ऐसा आत्मध्येय दो प्रकारका है - एक तो स्वयं अपना आत्मा जिसे अभिन्न ध्येय कहते हैं, और दूसरा वह भिन्न आत्मा जिसमें आत्मगुणों का पूर्ण हो गया हो. जैसे अर्हन्त सिद्धका आत्मा और जिसे भिन्नध्येय समझना चाहिये। ऐसे भिन्न ध्येमकी उपासनासे भी आत्मा परमात्मा बन जाता है । इसकी समझाने के लिए बत्ती और दीपकका दृष्टान्त बड़ा ही सुन्दर दिया गया है । बत्ती अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व भिन्न रखते हुए भी जब दीपककी उपासनामें तन्मय होती है- दीपकका सामीप्य प्राप्त करतो तो जल उठती है और दीपकस्वरूप बन जाती है। यही भिन्नात्मध्येयरूप अर्हन्त सिद्धकी उपासनाका फल है ।। ९७ ।। इदानीमभिन्नात्मनोपासने फलमाह- उपास्यात्मानमेवारमा जायते परमोऽथवा । मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु ।। ९८ ।। टीका अथवा अस्मानमेव चित्स्वरूपमेव चिदानन्दमयमुपास्य आत्मा परम परमात्मा जायते । अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राह मथित्वं त्यादि । यथामानमेव महिमा वर्षमितथा तस्रात्मा तदरूपः स्वभावः स्वत एवाग्निजयते ।। ९८ ।। अब अभिन्नात्मा की उपासनाका फल बतलाते हैं- अम्बार्थ - ( अथवा ) अथवा ( आत्मा ) यह आत्मा ( आत्मानम् ) अपने चित्स्वरूपको ही ( उपास्य ) चिदानन्दमय रूपसे आराधन करके (परमः ) परमात्मा ( जायते ) हो जाता है ( यथा ) जैसे ( तयः ) बांसका वृक्ष ( आत्मानं ) अपनेको (आत्मेच ) अपने से ही ( मथित्वा ) रगडकर (अग्नि) अग्निरूप ( जायते ) हो जाता है । भावार्थ - जिस प्रकार बाँसका वृक्ष बोसके साथ रगड़ खाकर अग्निरूप हो जाता है उसी प्रकार यह आत्मा भी आत्माके आत्मीय गुणोंकी आराधना करके परमात्मा बन जाता है। बांसके वृक्ष में जिस प्रकार अग्नि शक्तिरूपसे विद्यमान होती है और अपने ही बासरूपके साथ ajent निमित्त पाकर प्रकट होती है उसी प्रकार आत्मामें भी पूर्व Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापि शानादि गुण शक्तिरूपसे विद्यमान होते हैं और वे आत्माका आल्माके साथ संघर्ष होनेपर प्रकट हो जाते है । अर्थात् जब आत्मा आत्मीय गुणोंकी प्राप्ति के लिये अपने अन्य बाह्याभ्यंतर संकल्प-विकल्परूप व्यापारोंसे उपयोगको हटाकर स्वरूप-चिंतनमें एकाग्र कर देता है तो उसके वे गुण प्रकट हो जाते हैं---उस संघर्षसे ध्यानरूपी अग्नि प्रकट होकर कर्मरूपी ईंधनको जला देती है। और तभी वह आत्मा परमात्मा बन जाता है ॥२८॥ उक्तमर्थमुपसंहृत्य फलमुपदर्शयन्नाहइतीदं भाषयेन्नित्यमवानांगोचरं पवम् । स्वत एव तवाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ।। १९ ॥ टोका-ति एवमुक्तप्रकारेण इदं भिन्नमभिन्न पात्मस्वरूप भावपेत् नित्यं सर्वदा । ततः किं भवति ? तस्म अवाप्नोति । किं तत्पदं मोक्षस्थानं । कथम्भूतं? अपाचागोवर वचनरनिदेश्य । कथं तत्प्राप्नोति ? स्वत एव आत्मनंद परमार्थतो न पुनगु दिवा निमित्तात् । यतः प्राप्तात् तत्पदाम्नावाति संसारे पुनर्न भ्रमति ॥ १९ ॥ अब उक्त अर्थका उपसंहार करके फल दिखाते हुए कहते हैं अन्वयार्थ-(इति) उक्त प्रकारसे ( इदं) भेद-अभेदरूप आत्मस्वरूपकी { नित्यं ) निरन्तर ( भावयेत् ) भावना करनी चाहिए। ऐसा करनेसे ( तत् ) उस ( अवाचांगोचरं पदं) अनिर्वचनीय परमात्म पदको (स्वत एव ) स्वयं ही यह जीव ( आप्नोति ) प्राप्त होता है ( यतः ) जिस पदसे ( पुनः ) फिर ( न आवसते ) लौटना नहीं होता है-पुनर्जन्म लेकर संसारमें भ्रमण करता नहीं पड़ता है। भावार्थ-आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए आत्मस्वरूपके पूर्ण विकाशको प्राप्त हुए अर्हन्त और सिद्ध परमात्माका हमें निरन्तर ध्यान करना चाहिये तदरूप होने की भावनामें रत रहना चाहिये-अथवा अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें स्थिर करनेका दृढ़ अभ्यास करना चाहिये। ऐसा होने पर ही उस वचन-अगोचर अतीन्द्रिय परमात्मपदकी प्राप्ति हो सकेगा, जिसे प्राप्त करके फिर इस जीयको दूसरा जन्म लेकर संसारमें भटकना नहीं पड़ता-वह सदाके लिए अपने ज्ञानानन्दमें मान रहता है मोर सब प्रकारके दुःखोसे छूट जाता है ।। ९९।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र नन्बात्मनि सिद्ध तस्य तत्पदप्राप्तिः स्यात् । न चासौ तत्वचतुष्टयात्मकाच्छरीनातागत. सि. वि भाका. सात्मा मुक्तः सर्वदा स्वरूपोपलम्भसम्भवादिति सांख्यास्तान् प्रत्याह अयलसाध्यं निर्वाणं चित्तत्वं भूतजं यदि । अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ॥१०॥ टोका-चितवं घेतनालक्षणं तत्त्वं यवि भूतजं पृथिव्यप्नजावायुलक्षणभृतेभ्यो जातं यद्यभ्युपगम्यते सदाऽयत्नसाध्य निर्वाणं यत्नेन तात्पयण साध्य निर्वाणं न भवति । एतच्छरीरपरिश्मागेन विशिष्टावस्थाप्राप्तियोगस्यात्मन एव तन्मतं अभाबादित्यात्मनो मरणरूपविनाशादुत्तरकालमभावः । सांस्यमते तु भूतजं सहज भवन भूतं शुखात्मतत्त्वं तत्र जातं तत्स्वरूप संवेदकत्वेन लब्धात्मलाभं एवंविध चित्तत्त्वं यदि तदाऽयत्नसाध्यं निर्वाणं यत्नेन ध्यानानुष्ठानादिना साध्यं न भवति निर्वाण । सदा शुद्धात्मस्वरूपानुभवे सर्वदेवात्मनो निरूपायमुक्तिप्रसिद्धेः अथवा निष्पन्नेतरयोग्यपेक्षया यत्नेत्यादिवचनम् । तत्र निष्पन्नयोग्यपेक्षया चिप्तत्त्वं भूत स्वभावजं । भूतशब्दोऽत्र स्वभाववाची। मनोदाक्कायेन्द्रियरविक्षिप्तमात्मस्वरूप भूतं तस्मिन् जातं तत्स्वरूपसबंदकरवन लब्धात्मलाभं एवंविघं चित्तत्त्वं यदि तदाऽयत्नसाध्य निर्वाण तथाविधमात्मस्वरूपमनुभवतः कर्मबंधाभाबतो निर्वण- T स्याप्रयास सिद्धत्वात् । अथवा अन्यथा प्रारब्धयोग्यपेक्षया भूतज चित्तत्त्वं न भवति । तवा योगतः स्वरूपसंवेदनात्मकचित्तवृत्तिनिरोधाम्यासप्रकर्षानिर्वाणं । यत एवं तस्मात् स्वचिरप्यवस्थाविशेषे दुर्धरानुष्ठाने छेदनभेदनादी वा योगिनां तुःसं न भवति । आनन्दात्मकस्वरूपसंवित्तौ तेषां सत्प्रभवदुःखसंवेदनासम्भवात् ।। १०० ।। वह आत्मा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार तत्वरूप जो शरीर है उससे भिन्न किसी दूसरे तत्त्वरूप सिद्ध नहीं होता है, ऐसा चावकि मत वाले मानते हैं, तथा आत्माके सदा स्वरूपकी उपलब्धि संवेदना बनी रहनेसे वह सदा ही मुक्त है, ऐसा सांख्य लोगोंका मत है, इन दोनोंको लक्ष करके उनके प्रति आचार्य कहते हैं अन्वयार्ष---(चित्तत्त्वम् ) चेतना लक्षणबाला यह जीव तत्त्व ( यदि भूतजं) यदि भूतज है-बाकिमतके अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप भूतचतुष्टयसे उत्पन्न हुआ है अथवा सांख्यमतके अनुसार सहल शुद्धात्मस्वरूपसे उत्पन्न है-उस शुखात्मस्वरूपके संवेदना द्वारा लब्धात्मरूप है, तो ( निर्वाणं ) मोक्ष ( अयत्नसाध्य ) यत्नसे सिद्ध होने वाला नहीं रहेगा। अर्थात् चामितकी अपेक्षा, जो कि शरीरके छुट जानेपर आत्मामें किसी विशिष्टावस्थाकी प्राप्तिका अभाव बतलाता है, मरणरूप Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापित शरीरका विनाश होनेसे आत्माका अभाव हो जायगा और यही अभाव बिना यत्नका निर्वाण होगा, जो इष्ट नहीं हो सकता। और सांख्यमतको अपेक्षा स्वभावसे हो सदा शुद्धात्मस्वरूपका लाभ मान लेनेसे मोक्षके लिये ध्यानादिक कोई उपाय करनेकी भी आवश्यकता नहीं रहेगी, और इम तरह निरुपाय मुक्तिकी प्रसिद्धि होनेसे बिना यलके ही निर्वाण होना ठहरेगा जो उस मतके अनुयायियोंको भी इष्ट नहीं है। ( अन्यथा ) यदि चैतन्य आत्मा भतचतुष्टयजन्य तथा सदा शद्धात्मस्वरूपका अनुभव करने वाला नित्यमुक्त नहीं है । तो फिर । योगत: ) योगसे स्वरूप संवेदनाचित्तवृतिके निरोधका दृढ़ अभ्यास करनेसे ही निर्वाणकी प्राप्ति होगी ( तस्मात् ) कि वस्तुतत्त्वको ऐसी स्थिति है इसलिये ( योगिनां) निर्वाणके लिये प्रयत्नशील योगियोंको ( क्वचित् ) किसीभी अवस्थामेंदुर्द्धरानुष्ठानके करने तथा छेदन-भेदनादिरूप उपसर्ग के उपस्थित होनेपर( दुःखं न ) कोई दुख नहीं होता है । भावार्थ-आत्मतत्व यद्यपि चेतनामय नित्य पदार्थ है परंतु अनादिकर्मपुद्गलोंके सम्बन्धसे विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है और अपने स्वरूपमें स्थिर नहीं है । ध्यानादि सत्प्रयत्न द्वारा उस परिणतिका दूर होना ही स्वरूपमें स्थिर होना है और उसीका नाम निर्वाण है। चार्वाकको कल्पानुसार यह जीवात्मा भूतचतुष्टजन्य नहीं है । भूतचतुष्टयजन्य अनित्य शरीरका आत्मा मानना भ्रम तथा मिथ्या है और ऐसा माननेसे शरीरका नाश होनेपर आत्माका स्वतः अभाव हो जाना हो निर्वाण ठहरेगा, जो किसी तरह भी इष्ट नहीं हो सकता। ऐसा कौन बुद्धिमान है जो स्वयं ही अपने नाशका प्रयत्न करे? इसी तरह सांख्यमतको कल्पनाके अनुसार आत्मा सदा ही शुद्ध-बुद्ध तथा स्वरूपोलब्धिको लिये हुए नित्य मुक्तस्वरूप भी नहीं है। ऐसा माननेपर निर्वाणके लिये ध्यानादिके अनुष्ठानका कोई प्रयोजन तथा विधान नहीं बन सकेगा। सांख्यमतमें निर्वाणके लिये ध्यानादिक विधान है और इसलिए सदा शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धिरूप मुक्तिकी वह कल्पना निःसार जान पड़ती है । जब ये दोनों कल्पनाएँ ठोक नहीं है तब जैनमतकी उक्त मान्यताको मानना हो ठीक होगा, और उसके अनुसार योग साधनाद्वारा स्वरूपसंवेदनात्मक चित्त. वृत्तिके निरोधका दृढ़ अभ्यास करके सकल विभावपरिणतिको हटाते हुए शुद्धात्मस्वरूपमें स्थितिरूप निर्वाणका होना अन सकेगा। इस आत्मसिद्धिके सुदुद्देश्यको लेकर जो योगीजन योगाभ्यासमें प्रवृत्त होते हैं वे स्वेच्छासे अनेक पुर्वर तपपरगोंका अनुष्ठान करते हुए खेवखिन्न नहीं होते Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - .. . समापितंत्र और न दूसरों के किये हुए अथवा स्वयं बन आए हुए उपसगोपर दुःख ही मानते हैं. ऐसी घटनाओं के घटनेपर वे बराबर अपने साम्यभावको स्थिर रखते हैं ॥१०॥ नन्दात्मना मरणल्पविनाशदत्त रकालमभावसिडेः कयं सर्वक्षाऽस्तित्वं सिध्ये दिति वदन्तं प्रत्याह स्वप्ने वृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मनः । तथा जागरदृष्टोऽपि विपर्यासाविशेषतः ॥१०१॥ टीका—स्पने स्वप्नावस्थामां दृष्टे विनष्टेप शरीरादो आस्मनो पचा नाशो नास्ति सथा जागरवृष्टोऽपि जागरं जाग्रदयस्थायां दृष्टे विनष्टेऽपि शरीरावी आत्मनो नाशो नास्ति । ननु स्वप्नावस्थायां प्रांतिवशावात्मनो विनाशः प्रतिभातीति चेत्तदेतदन्यत्रापि समानं । न खलु शरीरविनाशे मात्मनो विमाधमत्रांतो मन्यते । तस्मादुभयत्राप्यात्मनो विनाशोऽनुपपन्नो विपर्यासाविशेषात् । पर्थव हि स्वप्नावस्थायामविद्यमानेऽप्यात्मनो विनाशे विनाशः प्रतिभासत इति विपर्यासः तथा जानववस्थायामपि ॥ १.१ ॥ यदि कोई कहे कि मरणस्वरूप विनाशके समुपस्थित होनेपर उत्तर कालमें आत्माका सदा अस्तित्व कैसे बन सकता है ? ऐसा कहने वालोके प्रति आचार्य कहते हैं अम्बया स्वप्ने ) स्वप्नको अवस्थामें ( दृष्टे विनष्टे अपि) प्रत्यक्ष देखे जानेवाले शरीरादिक विनाश होनेपर भी ( यथा ) जिस प्रकार ( आत्मनः ) आत्माका ( नाशः न अस्ति ) नाश नहीं होता है (तया) उसी प्रकार ( जागरदृष्टे अपि ) जाप्रत अवस्थामें भी दृष्ट शरीरादिकका विनाश होने पर आस्माका नाश नहीं होता है. । ( विपर्यासाविशेषतः) क्योंकि दोनों ही अवस्थाओंमें जो विपरीत प्रतिभास होता है उसमें परस्पर कोई भेद नहीं है। ___ भावार्थ-आल्मा वास्तवमें सत् पदार्य है और सत्का कभी नाश नहीं होता-पर्यायें जहर पलटा करती हैं । स्वप्नमें शरीरका नाश होनेपर जिस प्रकार आत्माके नाशका भ्रम हो जाता है किन्तु आस्माका नाश नहीं होता उसी प्रकार जाग्रत अवस्या भी शरीर पर्यायके विनाशसे जो आत्माका विनाश समान लिया जाता है वह भ्रम ही है-दोनों ही अवस्थाओं में होने वाले श्रम समान है---एकको भ्रम मानना और दूसरेको भ्रम माननेसे इनकार करना ठीक नहीं है । वस्तुतः झोंपड़ीके जलने पर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापितंत्र जैसे तद्गत आकाश नहीं जलता वैसे ही शरीरके नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट नहीं होता है। आत्मा एक अखंड और अविनाशी पदार्थ है उसके खण्ड तथा विनाशकी कल्पना करना ही नितान्त मिष्या है ॥ १०१ ।। नन्ने प्रसिद्धस्याप्यनानिधनस्यात्मनो मुक्त्यर्थ दुर्वरानुष्ठानक्लेशो पर्यो शानभावनामाश्रेणैव मुक्तिमिरित्याशङ्कयाह अनुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते कुःखसन्निधौ । तस्माद्यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ।।१०२॥ टीका-अदुःखेन कायक्लेशादिकष्टं विना सुकुमारोपक्रमेण भावितमेकाग्रतया पेतसि पुनः पुनः संगिन्दिा शरीरादिन्यः में मस्स्यपारेशान कोच अपकृष्यते । कस्मिन् ? दुःखसम्मिषौ दुःखोपनिपाते सति । यत एवं तस्मात्कारणात् यथावलं स्वशक्त्यन तिक्रमेण मुनिर्योगी आत्मानं दुषियेत कायक्लेशादिकष्टः सहाऽत्मस्वरूपं भावयेत् । कन्टसहोभनन् आत्मस्वरूपं चिन्तयेदित्यर्थः ॥ १०२॥ जब इस प्रकार आत्मा अनादि निधन प्रसिद्ध है तो उसकी मुक्तिके लिये दुर्द्धर तपश्चरणादिके द्वारा कष्ट उठाना व्यर्थ है। क्योंकि मात्र शानभावनासे ही मुक्तिकी सिद्धि होती है, ऐसी आशंका करनेवालों के प्रति आचार्य कहते हैं अन्वयार्थ ( अदुःखभावितं शान ) जो भेदविज्ञान दुःखोंकी भावनासे रहित है-उपार्जनके लिये कुछ कष्ट उठाये बिना ही सहज सुकुमार उपाय-द्वारा बन आता है-वह ( दुःखसन्निधौ) परिषह-उपसर्गादिक दुःखोंके उपस्थित होने पर (क्षीयते ) नष्ट हो जाता है। (तस्मात् ) इसलिए ( मुनिः ) अन्तरात्मा योगोको ( ययाबल ) अपनी शक्तिके अनुसार ( दुःखैः) दुःखोंके साथ ( आत्मानं भावयेत् ) आत्माकी शरीरादिभिन्न भावना करनी चाहिये। भावार्थ-जबतक योगी कायक्लेशादि तपश्चरणोंका अभ्यास करके कष्टसहिष्णु नहीं होता तबतक उसका ज्ञानाभ्यास शरीरसे भिन्न आल्माका अनुभवन-भी स्थिर रहनेवाला नहीं होता । वह दुःखोंके आजानेपर विचलित हो जाता है औरा सारा भेद-विज्ञान भूल जाता है। इसलिये १. मुहेण भाविदणाण दुहे जादे विणस्सा। सम्हा जहावलं जोई अप्या दुक्छेहि भावए ।। १२॥ -मोस प्रायो, कुन्दः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | AD समाधितंत्र शानभावनाके साथ कष्ट-सहनका अभ्यास होना चाहिये, जिससे उपार्जन किया हुआ ज्ञान नष्ट न होने पावे ॥ १०२ ।।। ननु पद्यात्मा शरीरात्सर्वथा भिन्नस्तदा कथमात्मनि चलति नियमेन तल्चालेत तिष्ठति नियमेन तत् तिष्ठेदिति वदन्तं प्रत्याह प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रतितात् । बायोः दणि नाते सहेतु कर्मसु ॥१०॥ टीका-आल: सम्बन्धिनः प्रपत्लावायुः शरीरे समुच्चक्षति कथम्भूतात् प्रयत्नात् ? इच्छावप्रतितात् रागद्वेषाभ्यां जनितात् । सत्र समुच्चलिताश्च पायो: शरीरयंत्राणि शरीराण्येव यंत्राणि शरीरयंत्राणि । किं पुनः शरीराणा यंत्रः -साघम्यं यस्तानि यन्त्राणीत्युच्यन्ते ? इति चेत् उच्यते--यया यंत्राणि काष्ठादिविनिर्मितसिंहव्याघ्रादीनि स्वसाध्यविविधक्रियानां परप्रेरतानि प्रवर्तन्ते तथा पारीराण्ययीत्युभयोस्तुल्यता। तानि शरीरयंत्राणि वायोः सकाशाद्वर्तन्ते । के ? कर्मसु क्रियासु कथम्भूतेषु ? स्वे स्वसाध्यैषु ॥ १०३ ॥ यदि आत्मा शरोरसे सर्वथा भिन्न है तो फिर आत्माके ठहरने पर शरीर कैसे ठहरता है ? ऐसा पूछनेवालेके प्रति कहते हैं अदायर्य---( आत्मनः ) आत्माके ( इच्छाद्वेषप्रवर्तितात् प्रयत्नात् ) और द्वेषकी प्रवृत्तिसे होनेवाले प्रयत्नसे ( वायुः ) वायु उत्पन्न होती है. वायुका संचार होता है ( बायोः) वायुके संचारसे ( शरीरयंत्राणि ) शरीररूपी यंत्र ( स्वेषु कर्मसु ) अपने-अपने कार्य करनेमें ( वर्तन्ते) प्रवृत्त होते हैं। भावार्थ-पूर्वबद्ध कर्मोंके उदयसे आस्मामें राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, राग-द्वेषकी उत्पत्तिसे मन-वचन-कायको क्रियारूप जो प्रयल उत्पन्न होता है, उससे आत्माके प्रदेश चंचल होते हैं, आत्म-प्रदेशोंकी चंचलतासे शरीरके भीतरको वायु चलती है और उस वायुके चलनेसे शरीररूपी यंत्र अपना अपना कार्य करनेमें प्रवृत्त होते हैं । यदि कोई कहे कि शरीरोंको यंत्रों के साथ क्या कोई समान-धर्मता है जिसके कारण उन्हें यंत्र कहा जाता है तो इसके उत्तरमें इतना ही जान लेना चाहिये कि काष्ठादिके बनाये हुए हाथी, घोड़े आदिरूप कलदार खिलौने जिस प्रकार इसरोंकी प्रेरणाको पाकर हिलने-चलने लग जाते हैं अर्थात् अपनेसे किये जाने योग्य नाना प्रकारकी क्रियाओंमें प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार शरीरके अंग-उपांग भो वायुको प्रेरणासे अपने योग्य कमौके करनेमें प्रवृत्त होते हैं। दोनों ही इस विषयमें समान हैं ॥ १०३ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ९२ समाधितंत्र तेषां शरीरयंत्राणामात्मन्यारोपानारोपी कृत्वा जड़विवेकिनौ किं कुरुतु इत्याह साम्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः | व्यवस्थाऽरोपं पुनविद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १०४ ॥ टीका --- तानि शरीरयंत्राणि साक्षाणि इंद्रियसहितानि आत्मनि समारो गौरोऽहं सुलोचनोऽहं स्थूलोऽहमित्याद्य भेदरूपतया आत्मन्यध्यारोग्य जडो बहि रामा असुखं सुखं वा यथा भवत्येवमास्ते विद्वामन्तरात्मा पुनः प्राप्नोति कि ? तत्परमं पदं मोक्षं । किं कृत्वा ? स्वक्त्वा ? कं ? आरोपं शरीरादीनामात्मन्मध्यघसायम् ।। १०४ ॥ उन शरीर-यंत्रोंकी आत्मामें आरोपना - अनारोपना करके जड़-विवेकी जीव क्या करते हैं, उसे बतलाते हैं अन्वयार्थ - ( जड़ ) मूर्ख बहिरात्मा ( साक्षाणि ) इन्द्रियोंसहित ( तानि) उन ओदारिकादि शरीरयन्त्र (समारोप्य) - में आरोपण करके में गोरा हूँ, मैं सुलोचन हूँ इत्यादि रूपसे उनके आत्मत्वको कल्पना करके - ( अमुखं आस्ते ) दुःख भोगता रहता है (पुनः) किन्तु (विद्वान् ) ज्ञानी अन्तरात्मा ( आरोपं त्यक्त्वा ) शरीरादिक में आत्माको कल्पनाको छोड़कर ( परमं पदं ) परमपदरूप मोक्षको ( प्राप्नोति ) प्राप्त कर लेता है । भावार्थ - मूढ बहिरात्मा कर्मप्रेरित शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको अपने आत्माको हो क्रियायें समझता है और इस तरह भ्रममें पड़कर विषय कषायों के जाल में फँसता हुआ अपनेको दुःखी बनाता है। प्रत्युत इसके विवेकी अंतरात्मा ऐसा न करके शरीर और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको आत्मासे भिन्न अनुभव करता है और इस तरह विषय कषायों के जाल में फँसकर बन्धनसे छूटता हुआ परमात्मपदको प्राप्त करके सदा के लिये परमानन्दमय हो जाता है ।। १०४ ।। कथमसौ तं त्यजतीत्याह – अथवा स्वकृतग्रन्यार्थमुपसंहृस्य फलमुपदर्शयन्मु~ क्वेत्याह मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमषियं च संसार- दुःखजननीं जननाद्विमुक्तः । ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठ स्तम्मार्णमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥ १०५ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाषितंत्र टोका-उपैत्ति प्राप्नोति । किं तत् ? सुख कथम्भसं ? ज्योतिर्मयं ज्ञानात्मक । कि विशिष्टः सन्नसौ तदुपति? जननाद्विमुक्तः संसाराद्विशेषेण भुक्तः । ततो मुक्तोऽप्यसो कसम्भतः सम्भवति ? परमात्मनिष्ठः परमात्मस्वरूपसंधेदकः कि कृस्वाऽसौ तन्निष्ठः स्यात् ? मुक्त्वा । कां ? परमुखि अहंधिपं च स्वात्मबुद्धि च । क्व ? परत्र शरीरादौ । कथम्भूतां ताम् ? संसारपुःखजननी चातुर्गतिकदु.लोत्पत्तिहेतुभूतां । यतस्तथाभतां तां त्यजेत् । किन अषिा: कि जत् । मावितंत्र समाधेः परमात्मस्वरूपसंवेदनकाग्रतायाः परमोदासीनताया वा तन्त्र प्रसिपादक शास्त्र । कथम्भत तत् ? तन्मार्ग तस्य ज्योतिर्मयसुखस्य मार्गमुपायमिति ।।१०।। आत्मा उस आरोपको कैसे छोड़ता है उसे बतलाते हैं-अथवा श्री पूज्यपाद आचार्य अपने ग्रन्थका उपसंहार करके फल प्रदर्शित करते हुए कहते हैं अन्वयार्प-(तन्मार्ग ) उस परमपदकी प्राप्तिका उपाय बतलाने वाले ( एतत् समाधितंत्रम् ) इस समाधितत्रको परमात्मस्वरूप संवेदनकी एकाग्रताको लिए हुए जो समाधि उसके प्रतिपादक इस 'समाधितन्त्र' नामक शास्त्रको ( अधिगम्य ) भले प्रकार अनुभव करके (परात्मनिष्ठः) परमात्माको भावनामें स्थिर चित्त हा अन्तरात्मा (संसारदुःखजननों ) चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली ( परत्र) शरीरादिपरपदार्थोंमें ( अहं धियं परबुद्धिं च ) जो स्वात्मबुद्धि तथा परात्मबुद्धि है उसको ( मुक्त्वा ) छोड़कर ( जननाद्विमुक्तः ) संसारसे मुक्त होता हुआ ( ज्योतिर्मय सुर्ख ) ज्ञानात्मक सुखको ( उपैति ) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ-इस पचमें, - ग्रन्थके विषयका उपसंहार करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्यसे उम बुद्धिको संसारके समस्त दुःखोंकी जननी बतलाया है, जो शरीरादि परपदार्थों में स्वात्मा-परात्माका आरोप किए हुए है- अर्थात् अपने शरीरादिको अपना आत्मा और परके शरीरादिको परका आस्मा समझती है । ऐसी दुःखमूलक बुद्धिका परित्याग कर जो जीवात्मा परमात्मामें निष्ठावान होता है-परमात्माके स्वरूपको अपना स्वरूप समझकर उसके आराधनमें तत्पर एवं सावधान होता है वह संसारके बन्धनोंसे छुटता हुआ केवलज्ञानमय परम सुखको प्राप्त होता है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि यह 'समाधितंत्र' ग्रन्थ उक्त परमसुख अथवा परमपदकी प्राप्तिका मार्ग है-उपाय प्रदर्शित करने वाला है । इसको भले प्रकार अध्ययन सथा अनुभव करके जीवन में उतारनेसे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधितंत्र वह प्राप्ति सुखसाध्य हो जाती है और इस तरह इस ग्रन्थकी भारी उपयोगिताको प्रदर्शित किया है ।। १०५ ।। पेनात्मना बहिरन्तरुत्तमभिधा त्रेधा विवृत्योदितो, मोक्षोऽनन्तवसुष्टयाऽमलवपुः सद्धमानतः कीर्तितः । जीयात्सोऽत्र जिनः समस्तविषयः श्रीपूज्यपादोऽमलो, मयानन्वकरः समाधिशतकश्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः ॥१॥ इति श्रीपण्डितप्रभाचन्द्र विरचिता समाधिशतकटीका समाप्ता' अंतिम मङ्गल-कामना जिनके भक्ति-प्रसादसे, पूर्ण हुआ व्याख्यान । सबके उर मंदिर बसो, पूज्यपाद भगवान ॥ १ ॥ पढ़ें सुनें सब ग्रन्थ यह, सेवें अति हित मान । आत्म-समुन्नति-बीज जो, करो जगत कल्यान ।। २ ॥ १. मूरबिद्री के मठ की प्रतिमें उक्त पुष्पिका-वाक्य निम्न प्रकार पाया जाता है:-इति श्रीजयसिंहदेव राज्ये श्रीमद्वारा निवासिना परापर परमेष्ठिप्रणामोपाषितामलपुण्यनिरास्ताखिलमलकलफेन श्रीमत्प्रभाचन्द्र पण्डितेन समाधिशतकटीका कुतेति ।।" इस वाक्य से प्रमेयकमलमातंपन आदि न्यायअन्योंके कर्ता धारानिवासी प्रभाचन्द्र ही जान पड़ते हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - . . . . . .. . . पद्यानुक्रमसूची घ ४६ वने वस्त्रे यथात्मानं ५८ १०२ चिरं सुषुप्तास्तमसि अचेतनमिदं दृश्यअगापितं न जानन्ति अदुःखभावितं ज्ञानं अनन्तरशः संधत्ते अपमानादयस्तस्म अपुण्यमनतः पुण्यं अयत्नसाथ्यं निर्वाण अविक्षिप्त मनस्तत्त्वं अविद्याम्याससंस्कारः अविद्यार्यज्ञितस्तस्मात् अङ्गतानि परित्यज्य अवती बसमावाय आ आत्मज्ञानात्पर कार्य यात्मदेहान्तरसान आत्मन्येवात्मधीरन्यां आत्मविनमज दुःख आत्मानमन्तरं दृष्ट्वा ३८ जगदेहात्मदृष्टीना ८३ जनेम्यो वाफ ततः स्पन्दो १०० जयन्ति यस्यावरतोऽपि ३६ जातिहाथिता देष्टा जातिलिंगविकल्पेन १२ जानन्नप्यात्मनस्तत्वं जीर्ण वस्त्रे ययात्मानं सथैव भाययदेहा सब यात्तत्परा पृच्छेत् तान्यात्मनि समारोप्य त्यक्त्वैवं बहिरात्मानत्यागादाने बहिम वः ७७ इतीदं भावयेन्नित्य दृढ़ात्मबुखिहादादृश्यमानमिदं मन दृष्टिभेदो यथा दृष्टि देहान्तरगतो देहे स्वधुतिरात्मानं देहे स्वात्मधिया जाताः उत्पन्नपुरुषनान्ते उपास्यात्मानमेवात्मा एवं त्यक्त्वा बहिर्वाच क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्या ग गौरः स्थूलः कृशो बाहनामोऽरम्पमिति देघा न जानंति शरीराणि न तदस्तीन्द्रियार्थेषु नयत्यात्मानामात्मैव नरदेड्स्यमात्मान नष्टे वस्त्रे ययात्मानं ७० नारक नारकांगस्थ ७३ निर्मलः केवलः शुखी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - परवाह मतिः स्वस्मापश्येन्निरन्तरं देहपूर्व दृष्टात्मतत्त्वस्य भाग्य नियोऽई प्रयत्नादात्मनो वायुप्रविशद् गलतां व्यूह समापितंत्र यदा मोहात्मजायते 43 यद्बोधयितुमिच्छामि 57 मन्मया दृश्यते रूपं यस्य सस्पन्दमाभाति 32 मंजीर मनात्मन 103 येनात्मनानुभूमेश येनात्माबुध्यतात्मव यो न बेप्ति परं देहा४ यः परात्मा स एवाह पहिरन्तः परपति पहिरामा शरीरादौ बहिरात्मेन्द्रिमद्वारः बहिस्तुष्यति महात्मा 7 रखने वस्त्रे पयात्मानं 60 रागद्वेषादिकल्लोल: भिन्नास्मानमुपास्यात्मा 97 लिग देहाश्रितं दृष्ट मत्तरभ्युलेन्द्रियद्वारः मामपश्यन्नयं लोको मुक्तिरेकान्तिकी तस्य मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमूढारमा यत्र विश्वस्त मूलं संसारदुःखस्य 16 विदिताशेषशास्त्रोऽपि व्यबहारे सुषुप्तो यः श 105 पारीरकंचुकेनात्मा बारीरे वाचि चात्मानं पाभ शरीरं विख्याश्च घृणधन्नप्यन्यतः कामं श्रुतेन लियोन यथात्मशक्ति यत्यागाय निवर्तन्ते यत्परैः प्रतिपायोऽह यत्पश्यामीन्द्रियस्तन्मे पत्रानाहितधीः पुसः यत्रवाहितधीः पुसः यथासो पेष्टले स्थाणी यदपाबन गृह्णाति मदन्तर्जल्पसंपृक्तयदभावे सुषुप्तोऽहं पत्र काये मुनेः प्रेम सन्द्रियाणि संयम्म सुखमारब्धयोगस्म 95 सुप्तोन्मसाधवस्यैवं 22 सोऽहमित्यालसंस्कार स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा स्वपराध्यवसायन स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि 40 स्वधुवधा याबद्गृहीयात् 85 62